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लोगों के लिए बनाया। सिद्धर्षि ने कहीं भी इस तथ्य का निर्देश नहीं किया है कि मूलग्रन्थ मेरे द्वारा बनाया गया है। अतः यह कल्पना करना निराधार है कि मूल न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति है और उस पर उन्होंने स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है ।
यह सत्य है कि उस युग में स्वोपज्ञ टीका या वृत्ति लिखे जाने की प्रवृत्ति प्रचलन में थी किन्तु इस सिद्धर्षि की वृत्ति से कहीं भी फलित नहीं होता है कि वह स्वोपज्ञ है पुनः स्वोपज्ञवृत्ति में मूल में वर्णित विषयों का ही स्पष्टीकरण किया जाता है, उसमें नये विषय नहीं आते। उदाहरण के रूप में तत्त्वार्यसूत्र मूल में गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा नहीं है तो उसके स्वोपज्ञ भाष्य में किसी भी स्थान में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा नही की गयी किन्तु अन्य आचार्यों के द्वारा जब उस पर टीकायें लिखी गयीं तो उन्होंने विस्तार से गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की। इससे यही फलित होता है कि न्यायावतार की मूल कारिकायें सिद्धर्षि की कृति नहीं हैं। यदि मूलकारिकाएँ भी सिद्धर्षि की कृति होतीं तो उनमें नैगमादि नयों एवं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा तर्क आदि प्रमाणों की कहीं कोई चर्चा अवश्य होनी थी।
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नये विवेचन के सन्दर्भ में डॉ० पाण्डेय का यह तर्क भी समीचीन नहीं है कि "यदि सिद्धर्षि सिद्धसेन के ग्रन्थ पर वृत्ति लिखे होते तो जो सिद्धसेन को अभीष्ट नहीं है या तो उसका उल्लेख नहीं करते या उल्लेख करते भी तो यह कहकर कि मूलकार इसे नहीं मानता ।" यहाँ उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि टीकाकारों के द्वारा अपनी नवीन मान्यता को प्रस्तुत करते समय कहीं भी यह लिखने की प्रवृत्ति नहीं रही कि वे आवश्यक रूप से जो मूलग्रन्थकार का मंतव्य नहीं है उसका उल्लेख करें सिद्धर्षि की न्यायावतार वृत्ति में नयों की जो चर्चा है वह किसी मूल कारिका की व्याख्या न हो करके एक परिशिष्ट के रूप में की गयी चर्चा ही है क्योंकि मूल ग्रन्थ की २९वीं कारिका में मात्र 'न' शब्द आया है उसमें कहीं भी नय कितने हैं यह उल्लेख नहीं है, यह टीकाकार की अपनी व्याख्या है और टीकाकार के लिए यह बाध्यता नहीं होती है कि वह उन विषयों की चर्चा न करे जो मूल में नहीं है। इतना निश्चित है कि यदि सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ होती तो वे मूल में कहीं न कहीं नयों की चर्चा करते। इससे यही फलित होता है कि मूल अन्धकार और वृत्तिकार दोनों अलग-अलग व्यक्ति है।
टीका में नवीन नवीन विषयों का समावेश यही सिद्ध करता है कि न्यायावतार की सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ नहीं है । जहाँ तक डॉ० पाण्डेय के इस तर्क का प्रश्न है कि वृत्तिकार ने मूलग्रन्थकार का निर्देश प्रारम्भ में क्यों नहीं किया, इस सम्बन्ध में मेरा उत्तर यह है कि जैन परम्परा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ वृत्तिकार मूलमन्धकार से भिन्न होते हुए भी मूलग्रन्थकार का निर्देश नहीं करता है। उदाहरण के रूप में तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में कहीं भी यह निर्देश नहीं है कि वह उमास्वाति के मूल ग्रन्थ पर टीका लिख रहा है। ये लोग प्रायः केवल ग्रन्थ का निर्देश करके ही संतोष कर लेते थे, ग्रन्थकार का नाम बताना आवश्यक नहीं समझते थे क्योंकि वह जनसामान्य में ज्ञात ही होता था।
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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
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अतः यह मानना कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति न होकर सिद्धर्षि की कृति है और उस पर लिखी गयी न्यायावतार वृत्ति स्वोपज्ञ है, उचित प्रतीत नहीं होता।
न्यायावतार सिद्धसेन की कृति है, इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण तो यह है कि मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ नयचक्र में स्पष्ट रूप से सिद्धसेन को न्यायावतार का कर्ता कहा है। मुझे ऐसा लगता है कि प्रतिलिपिकारों के प्रमाद के कारण ही कहीं न्यायावतार की जगह नयावतार हो गया है । प्रतिलिपियों में ऐसी भूलें सामान्यतया हो ही जाती हैं।
जहाँ तक सिद्धसेन की उन स्तुतियों का प्रसंग है जिनमें महावीर के विवाह आदि के संकेत हैं, दिगम्बर विद्वानों की यह अवधारणा यह किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है उचित नहीं है। केवल अपनी परम्परा से समर्थित न होने के कारण किसी अन्य सिद्धसेन की कृति कहें, यह उचित नहीं है।
सन्दर्भ
१.
-सन्मति प्रकरण- सम्पादक, पं० सुखलाल जी संघवी, ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद, प्रस्तावना, पृष्ठ ६ से १६।
अ. दंसणगाही दंसणणाणप्यभावमणि सत्याणि सिद्धिविणिच्छयसंमतिमादि गेहंतो असंथरमाणे जं अकप्पियं पडिसेवति जयणाते तत्थ सो सुद्धो अप्रायश्चिती भवतीत्यर्थः ।
निशीथचूर्णि भाग १, पृष्ठ १६२ । दंसणप्पभावगाण सत्याण सम्मदियादिसुतणाणे य जो विसारदो सिकियत्तथो त्ति वृत्तं भवति ।
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वही भाग ३, पृष्ठ २०२ । ब. आयरिय सिद्धसेणेण सम्मई ए पइट्ठि अजसेणं । दूसमणिसादिवागर कप्पत्तणओ तदक्खेणं ।
पंचवस्तु (हरिभद्र), १०४८ स. श्रीदशाश्रुतस्कन्ध मूल, नियुक्ति, चूर्णिसह पृ० १६ (श्रीमणिविजय ग्रन्थमाला नं० १४, सं० २०११) (यहाँ सिद्धसेन को गुरु से भिन्न अर्थ करने वाला भाव-अभिनय का दोषी बताया गया है)।
द. पूर्वाचार्य विरचितेषु सन्मति - नयावतारादिषु .
- द्वादशारं नयचक्रम् (मल्लवादि) भावनगरस्या श्री आत्मानन्द सभा, १९८८, तृतीय विभाग, पृ० ८८६ ।
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अ. अणेण सम्मइसुत्तेणसह कथमिदं वक्खाणं ण विरुज्झदे। (ज्ञातव्य है कि इसके पूर्व सन्मतिसूत्र की गाथा ६ उद्धृत है-धवला, टीका समन्वित षट्खण्डागम १/१/१ पुस्तक, १, पृष्ठ १६ । जगत्प्रसिद्ध बोधस्य, वृषभस्येव निस्तुषाः । बोध्यति सतां बुद्धिं सिद्धसेनस्य सूक्तयः ।।
-हरिवंशपुराण (जिनसेन) १/३० ।
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