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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
निबद्ध धूर्ताख्यान पर प्रभाव की चर्चा की है । इस प्रकार उन्होंने (महाभारत) और रामायण का उल्लेख करते हैं । हरिभद्र ने तो एक स्थान धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक रचना माना है। यदि धूर्ताख्यान की पर विष्णुपुराण, महाभारत के अरण्यपर्व और अर्थशास्त्र का भी उल्लेख कथा का निबन्धन हरिभद्र ने स्वयं अपनी स्वप्रसूत कल्पना से किया है किया है, अत: निश्चित ही यह आख्यान इनकी रचना के बाद ही रचा तो वे निश्चित ही निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि के लेखन-काल से गया होगा। उपलब्ध आगमों में अनुयोगद्वार महाभारत और रामायण पूर्ववर्ती हैं। क्योंकि इन दोनों ग्रन्थों में यह कथा उपलब्ध है। भाष्य में का उल्लेख करता है । अनुयोगद्वार की विषयवस्तु के अवलोकन से इस कथा का सन्दर्भ निम्न रूप में उपलब्ध होता है -
ऐसा लगता है कि अपने अन्तिम रूप में वह लगभग पाँचवीं शती ससएलासाढ-मूलदेव, खण्डा य जुण्णउज्जाणे । की रचना है । धूर्ताख्यान में 'भारत' नाम आता है, 'महाभारत' नहीं। सामस्थणे को भत्तं, अक्खात जो ण सद्दहति ।। अत: इतना निश्चित है कि धूर्ताख्यान के कथानक के आद्यस्रोत की चोरभया गावीओ, पोट्टलए बंधिऊण आणेमि । पूर्व सीमा ईसा की चौथी या पाँचवीं शती से आगे नहीं जा सकती। तिलअइरूढकुहाडे, वणगय मलणा य तेल्लोदा ।। पुनः निशीथभाष्य और निशीथचूर्णी में उल्लेख होने से धूर्ताख्यान वणगयपाटण कुंडिय, छम्मास हत्थिलग्गणं पुच्छे । के आद्यस्रोत की अपर-अन्तिम सीमा छठी-सातवीं शती के पश्चात् रायरयग मो वादे, जहि पेच्छइ ते इमे वत्था ।। नहीं हो सकती । इन ग्रन्थों का रचनाकाल ईसा की सातवीं शती का
भाष्य की उपर्युक्त गाथाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उत्तरार्ध हो सकता है । अत: धूर्ताख्यान का आद्यस्रोत ईसा की पाँचवीं भाष्यकार को सम्पूर्ण कथानक जो कि चूर्णि और हरिभद्र के धूर्ताख्यान से सातवीं शती के बीच का है । में है, पूरी तरह ज्ञात है, वे मृषावाद के उदाहरण के रूप में इसे प्रस्तुत करते यद्यपि प्रमाणाभाव में निश्चितरूप से कुछ कहना कठिन है, किन्तु हैं । अत: यह स्पष्ट है कि सन्दर्भ देने वाला ग्रन्थ उस आख्यान का एक कल्पना यह भी की जा सकती है कि हरिभद्र की गुरु-परम्परा जिनभद्र आद्यस्रोत नहीं हो सकता। भाष्यों में जिस प्रकार आगमिक अन्य आख्यान और जिनदास की हो, आगे कहीं भ्रान्तिवश जिनभद्र का जिनभट और सन्दर्भ रूप में आये हैं, उसी प्रकार यह आख्यान भी आया है। अत: यह जिनदास का जिनदत्त हो गया हो, क्योंकि 'ई' और 'ट्ट' के लेखन में और निश्चित है कि यह आख्यान भाष्य से पूर्ववर्ती है । चूर्णि तो स्वयं भाष्य पर 'त' और 'स' के लेखन में हस्तप्रतों में बहुत ही कम अन्तर रहता है । पुनः टीका है और उसमें उन्हीं भाष्य गाथाओं की व्याख्या के रूप में लगभग तीन हरिभद्र जैसे प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु भी प्रतिभाशाली होना चाहिए, जब पृष्ठों में यह आख्यान आया है, अत: यह भी निश्चित है कि चूर्णि भी इस कि हरिभद्र के पूर्व जिनभट्ट और जिनदत्त के होने के अन्यत्र कोई संकेत नहीं आख्यान का मूलस्रोत नहीं है । पुन: चूर्णि के इस आख्यान के अन्त में स्पष्ट मिलते हैं। हो सकता है कि धूर्ताख्यान हरिभद्र की युवावस्था की रचना हो लिखा है- “सेसं धुत्तवखाणगाहाणुसारेण" (पृ०१०५)। अत: निशीथभाष्य और उसका उपयोग उनके गुरुबन्धु सिद्धसेन क्षमाश्रमण (छठी शती) ने
और चूर्णि इस आख्यान के आदि स्रोत नहीं माने जा सकते । किन्तु हमें अपने निशीथभाष्य में तथा उनके गुरु जिनदासगणि महत्तर ने निशीथचूर्णि निशीथभाष्य और निशीथचूर्णि से पूर्व रचित किसी ऐसे ग्रन्थ की कोई में किया हो । धूर्ताख्यान को देखने से स्पष्ट रूप से यह लगता है कि यह जानकारी नहीं है जिसमें यह आख्यान आया हो।
हरिभद्र के युवाकाल की रचना है क्योंकि उसमें उनकी जो व्यंग्यात्मक शैली जब तक अन्य किसी आदिस्रोत के सम्बन्ध में कोई जानकारी है, वह उनके परवर्ती ग्रन्थों में नहीं पायी जाती। हरिभद्र जिनभद्र एवं नहीं है, तब तक हरिभद्र के धूर्ताख्यान को लेखक की स्वकल्पनाप्रसूत जिनदास की परम्परा में हुए हो, यह मात्र मेरी कल्पना नहीं है । डॉ० हर्मन मौलिक रचना क्यों नहीं माना जाये ! किन्तु ऐसा मानने पर भाष्यकार जैकोबी और अन्य कुछ विद्वानों ने भी हरिभद्र के गुरु का नाम जिनभद्र माना और चूर्णिकार, इन दोनों से ही हरिभद्र को पूर्ववर्ती मानना होगा और इस है । यद्यपि मुनि श्री जिनविजयी ने इसे उनकी भ्रान्ति ही माना है । सम्बन्ध में विद्वानों की जो अभी तक अवधारणा बनी हुई है वह खण्डित वास्तविकता जो भी हो, किन्तु यदि हम धूर्ताख्यान को हरिभद्र की मौलिक हो जायेगी । यद्यपि उपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा उनके ग्रन्थ लघुक्षेत्रसमास रचना मानते हैं तो उन्हें जिनभद्र (लगभग शक संवत् ५३०) और सिद्धसेन की वृत्ति में हरिभद्र का स्वर्गवास वीर-निर्वाण संवत् १०५५ या विक्रम क्षमाश्रमण (लगभग शक संवत् ५५०) तथा उनके शिष्य जिनदासगणि संवत् ५८५ तथा तदनुरूप ईस्वी सन् ५२९ में माना जाता है । किन्तु महत्तर (शक संवत् ५९८ या वि० सं०७३३) के पूर्ववर्ती या कम से कम पट्टावलियों में उन्हें विशेषावश्यकभाष्य के कर्ता जिनभद्र एवं जिनदास समकालिक तो मानना ही होगा। का पूर्ववर्ती भी माना गया है । अब हमारे सामने दो ही विकल्प हैं या यदि हम हरिभद्र को सिद्धसेन क्षमाश्रमण एवं जिनदासगणि महत्तर तो पट्टावलियों के अनुसार हरिभद्र को जिनभद्र और जिनदास के पूर्व का पूर्ववर्ती मानते हैं तब तो उनका समय विक्रम संवत् ५८५ माना जा मानकर उनकी कृतियों पर विशेषरूप से जिनदास महत्तर पर हरिभद्र का सकता है । मुनि जयसुन्दर विजयजी शास्त्रवार्तासमुच्चय की भूमिका में उक्त प्रभाव सिद्ध करें या फिर धूर्ताख्यान के मूलस्रोत को अन्य किसी पूर्ववर्ती तिथि का समर्थन करते हुए लिखते हैं - प्राचीन अनेक ग्रन्थकारों ने श्री रचना या लोक-परम्परा में खोजें । यह तो स्पष्ट है कि धूर्ताख्यान चाहे हरिभद्रसूरि को ५८५ वि० सं० में होना बताया है । इतना ही नहीं, किन्तु वह निशीथचूर्णि का हो या हरिभद्र का, स्पष्ट ही पौराणिक युग के पूर्व श्री हरिभद्रसूरि ने स्वयं भी अपने समय का उल्लेख संवत् तिथि-वार-मास की रचना नहीं है। क्योंकि वे दोनों ही सामान्यतया श्रुति, पुराण, भारत और नक्षत्र के साथ लघुक्षेत्रसमास की वृत्ति में किया है, जिस वृत्ति के
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