________________
६६८
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
.
१२५५ अर्थात् वि० सं० ७८५ या ईसवी सन् ७२८ आता है । इस हरिभद्र, अकलंक और सिद्धर्षि से पूर्ववर्ती हैं । अकलंक का समय गाथा में उनके स्वर्गवास का उल्लेख नहीं है, अत: इसे उनका सत्ता- विद्वानों ने ई० सन् ७२०-७८० स्थापित किया है । अत: हरिभद्र या समय माना जा सकता है । यद्यपि उक्त गाथा की पुष्टि हेतु हमें अन्य कोई तो अकलंक के पूर्ववर्ती या वरिष्ठ समकालीन ही सिद्ध होते है । उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। यदि हम इसी प्रसंग में वीर निर्वाण संवत्
निवाण सवत् के सम्बन्ध में चली आ रही ६० वर्ष की भूल को संशोधित कर वीर-निर्वाण हरिभद्र का व्यक्तित्व को वि० पू०४१० या ई० पू० ४६७ मानते हैं जैसा कि मैंने अपने एक हरिभद्र का व्यक्तित्व अनेक सगुणों की पूँजीभूत भास्वर प्रतिभा निबन्ध (देखें : सागर जैन-विद्या भारती, भाग १) में सिद्ध किया है, तो ऐसी है। उदारता, सहिष्णुता, समदर्शिता ऐसे सद्गुण हैं जो उनके व्यक्तिव को स्थिति में हरिभद्र का स्वर्गवास काल १२५५-४६७= ७८८ ई० सिद्ध हो महनीयता प्रदान करते हैं। उनका जीवन समभाव की साधना को समर्पित जाता है और यह काल जिनविजयजी द्वारा निर्धारित हरिभद्र के सत्ता- है। यही कारण है कि विद्या के बल पर उन्होंने धर्म और दर्शन के क्षेत्र समय ईस्वी सन् ७०० से ७७० के अधिक निकट है।
में नए विवाद खड़े करने के स्थान पर उनके मध्य समन्वय साधने का हरिभद्र के उपर्युक्त समय-निर्णय के सम्बन्ध में एक अन्य पुरुषार्थ किया है । उनके लिए विद्या विवादाय' न होकर पक्ष-व्यामोह महत्त्वपूर्ण समस्या खड़ी होती है सिद्धर्षिकृत उपमितिभवप्रपंचकथा के से ऊपर उठकर सत्यान्वेषण करने हेतु है । हरिभद्र पक्षाग्रही न होकर उस उल्लेख से जिसमें सिद्धर्षि ने हरिभद्र को अपना धर्मबोधकर गुरु कहा सत्याग्रही हैं, अत: उन्होंने मधुसंचयी भ्रमर की तरह विविध धार्मिक और है। उन्होंने यह कथा वि० सं० ९६२ में ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी, गुरुवार दार्शनिक परम्पराओं से बहुत कुछ लिया है और उसे जैन परम्परा की के दिन पूर्ण की थी । सिद्धर्षि के द्वारा लिखे गये इस तिथि के अनुसार अनेकान्त दृष्टि से समन्वित भी किया है । यदि उनके व्यक्तित्व की यह काल ९०६ ई० सिद्ध होता है तथा उसमें बताए गए वार, नक्षत्र महानता को समझना है तो विविध क्षेत्रों में उनके अवदानों का मूल्यांकन आदि भी ज्योतिष की गणना से सिद्ध होते हैं । सिद्धर्षि उपमितिभवप्रपंचकथा करना होगा और उनके अवदान का वह मूल्यांकन ही उनके व्यक्तित्व में हरिभद्र के विषय में लिखते हैं कि उन्होंने (हरिभद्र ने) अनागत अर्थात् का मूल्याकंन होगा । भविष्य में होने वाले मुझको जानकर ही मेरे लिये चैत्यवंदनसूत्र का आश्रय लेकर 'ललितविस्तरा-वृत्ति' की रचना की। यद्यपि कुछ जैन धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान कथानकों में सिद्धर्षि और हरिभद्र के पारस्परिक सम्बन्ध को सिद्ध किया धर्म और दर्शन के क्षेत्र में हरिभद्र का अवदान क्या है ? यह गया है और यह बताया गया है कि सिद्धर्षि हरिभद्र के हस्तदीक्षित शिष्य समझने के लिए इस चर्चा को हम निम्न बिन्दुओं में विभाजित कर रहे हैंथे, किन्तु सिद्धर्षि का यह कथन कि 'भविष्य में होने वाले मुझको (१) दार्शनिक एवं धार्मिक परम्पराओं का निष्पक्ष प्रस्तुतीकरण। जानकर ............' यही सिद्ध करता है कि आचार्य हरिभद्र उनके (२) अन्य दर्शनों की समीक्षा में भी शिष्ट भाषा का प्रयोग तथा परम्परा-गुरु थे, साक्षात् गुरु नहीं।
अन्य धर्मों एवं दर्शनों के प्रवर्तकों के प्रति बहुमानवृत्ति । स्वयं सिद्धर्षि ने भी हरिभद्र को कालव्यवहित अर्थात् पूर्वकाल (३) शुष्क दार्शनिक समालोचनाओं के स्थान पर उन अवधारणाओं में होने वाले तथा उपने को अनागत अर्थात् भविष्य में होने वाला कहा के सार-तत्त्व और मूल उदेश्यों को समझने का प्रयत्न । है। अत: दोनों के बीच काल का पर्याप्त अन्तर होना चाहिए । यद्यपि (४) अन्य दार्शनिक मान्यताओं में निहित सत्यों को एवं यह सत्य है कि सिद्धर्षि को उनके ग्रन्थ ललितविस्तरा के अध्ययन से इनकी मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए जैन दृष्टि के साथ उनके समन्वय जिन धर्म में स्थिरता हुई थी, इसलिए उन्होंने हरिभद्र को धर्मबोध प्रदाता का प्रयत्न । गुरु कहा, साक्षात् गुरु नहीं कहा । मुनि जिनविजयजी ने भी हरिभद्र को (५) अन्य दार्शनिक परम्पराओं के ग्रन्थों का निष्पक्ष अध्ययन सिद्धर्षि का साक्षात् गुरु नहीं माना है।
___ करके उन पर व्याख्या और टीका का प्रणयन करना । कुवलयमाला' के कर्ता उद्योतनसूरि ने अपने इस ग्रन्थ में जो (६) उदार और समन्वयवादी दृष्टि रखते हुए पौराणिक शक संवत् ६९९ अर्थात् ई० सन् ७७७ में निर्मित है, हरिभद्र एवं अन्धविश्वासों का निर्भीक रूप से खण्डन करना । उनकी कृति “समराइच्चकहा' तथा उनके भवविरह नाम का उल्लेख (७) दर्शन और धर्म के क्षेत्र में आस्था या श्रद्धा की अपेक्षा किया है । अत: हरिभद्र ई० सन् ७७७ के पूर्व हुए हैं, इसमें कोई विवाद तर्क एवं युक्ति पर अधिक बल; किन्तु शर्त यह कि तर्क और युक्ति नहीं रह जाता है।
का प्रयोग अपने मत की पुष्टि के लिए नहीं, अपितु सत्य की खोज हरिभद्र, सिद्धर्षि और अकलंक के पूर्ववर्ती हैं, इस सम्बन्ध में के लिए हो। एक अन्य प्रमाण यह है कि सिद्धर्षि ने न्यायावतार की टीका में अकलंक (८) धर्म साधना को कर्मकाण्ड के स्थान पर चरित्र की द्वारा मान्य स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क- इन तीन प्रमाणों की चर्चा की निर्मलता के साथ जोड़ने का प्रयत्न । है । अकलंक के पूर्व जैनदर्शन में इन तीन प्रमाणों की चर्चा अनुपस्थित (९) मुक्ति के सम्बन्ध में एक उदार और व्यापक दृष्टिकोण । है । हरिभद्र ने भी कहीं इन तीन प्रमाणों की चर्चा नहीं की है । अत: (१०) उपास्य के नाम-भेद को गौण मानकर उसके गुणों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org