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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
संघदास गणी (छठी शताब्दी) की वसुदेवहिंडी में मिलता है। वसुदेवहिंडी से भी प्रकाशन हो चुका है । हेमचन्द्र सामान्यतया तो विमलसूरि की की रामकथा कुछ प्रसंगों के संदर्भ में पउमचरिय की रामकथा से भिन्न रामकथा का ही अनुसरण करते हैं, किन्तु उन्होंने सीता के वनवास का है और वाल्मीकि रामायण के निकट है । इसकी विशेषता यह है कि कारण, सीता के द्वारा रावण का चित्र बनाना बताया है। यद्यपि उन्होंने इसमें सीता को रावण और मन्दोदरी की पुत्री बताया गया है, जिसे एक इस प्रसंग के शेष सारे कथानक में पउमचरिय का ही अनुसरण किया पेटी में बन्द कर जनक के उद्यान में गड़वा दिया गया था, जहाँ से हल है, फिर भी सौतियाडाह के कारण राम की अन्य पत्नियों ने सीता से चलाते समय जनक को उसकी प्राप्ति हुई थी। इस प्रकार यहाँ सीता की रावण का चित्र बनवाकर, उसके सम्बन्ध में लोकापवाद प्रसारित किया, कथा को तर्कसंगत बनाते हुए भी उसका साम्य भूमि से उत्पन्न होने की ऐसा मनोवैज्ञानिक आधार भी प्रस्तुत कर दिया है । इस प्रसंग में भद्रेश्वर धारणा के साथ जोड़ा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संघदासगणी सूरि की कहावली का अनुसरण करते हैं । चौदहवीं शताब्दी में धनेश्वर ने रामकथा को कुछ भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। अधिकांश श्वेताम्बर ने शत्रुजय माहात्म्य में भी रामकथा का विवरण दिया है । सोलहवीं लेखकों ने विमलसूरि का ही अनुसरण किया है। मात्र यही नहीं दिगम्बर शताब्दी में देवविजय गणी ने रामचरित्र पर संस्कृत में एक स्वतन्त्र ग्रंथ परम्परा में पद्मपुराण के रचयिता रविसेन (७वीं शताब्दी) और अपभ्रंश लिखा है । इसी प्रकार मेघ विजय (१७वीं शताब्दी) ने लघुत्रिषष्टि में भी पउमचरिउ के रचयिता यापनीयस्वयम्भू ने भी विमलसूरि का ही पूरी रामकथा का संक्षिप्त विवरण दिया है । इन ग्रंथों के अतिरिक्त जिनरत्न तरह अनुकरण किया है । पद्मपुराण तो पउमचरिय का ही विकसित सिद्धांत कोष में और भी कुछ श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा रचित रामकथा संस्कृत रूपान्तरण मात्र है । यद्यपि उन्होंने उसे दिगम्बर परम्परा के सम्बन्धी ग्रंथों का उल्लेख उपलब्ध है । इन प्राकृत और संस्कृत की अनुरूप ढालने का प्रयास किया है ।
रामकथाओं के अतिरिक्त अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी में भी श्वेताम्बर आठवीं शताब्दी में हरभिद्र ने अपने धूर्ताख्यान में और नवीं आचार्यों ने रामकथा सम्बन्धी साहित्य लिखा है । इस सम्बन्ध में अभी शताब्दी में शीलाङ्काचार्य ने अपने ग्रंथ 'चउपन्नमहापुरिसचरिय' में अति भी व्यापक सर्वेक्षण और शोध की आवश्यकता है। संक्षेप में रामकथा को प्रस्तुत किया है । भद्रेश्वर (११वीं शताब्दी) की सोलहवीं शताब्दी में उपकेशगच्छ के वाचक विनय समुद्र ने कहावली में भी रामकथा का संक्षिप्त विवरण उपलब्ध हैं। तीनों ही राजस्थानी में पद्मचरित लिखा था । सम्प्रति स्थानकवासी जैन मुनि ग्रन्थकार कथा विवेचन में विमलसूरि की परम्परा का पालन करते हैं। शुक्लचंदजी ने भी 'शुक्ल जैन रामायण' के नाम से हिन्दी पद्य में यद्यपि भद्रेश्वरसूरि ने सीता के द्वारा सपत्नियों के आग्रह पर रावण के पैर रामकथा लिखी है । संस्कृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और हिन्दी हनुमान का चित्र बनाने का उल्लेख किया । ये तीनों ही रचनाएँ प्राकृत भाषा में चरित्र, अंजना सुन्दरी चरित्र और सीता चरित्र के रूप में अनेकों खण्ड हैं। १२वीं शताब्दी में हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ योगशास्त्र की स्वोपज्ञवृत्ति काव्य भी उपलब्ध हैं । सम्प्रति आचार्य तुलसी के द्वारा रचित अग्निपरीक्षा में तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में संस्कृत भाषा में रामकथा को प्रस्तुत तो बहुचर्चित है ही। इस प्रकार रामकथा के विकास में श्वेताम्बर जैन किया है । त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में वर्णित रामकथा का स्वतन्त्र रूप आचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
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