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आर्य सुहस्ति स्थूलीभद्र से दीक्षित हुए थे। पट्टावलियों के अनुसार स्थूलभद्र की दीक्षा वीरनिर्वाण सं. १४६ में हुई थी और स्वर्गवास वीरनिर्वाण २१५ में हुआ था। इससे यह फलित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्याभिषेक के ९ वर्ष पूर्व अन्तिम नन्द राजा (नव नन्द) के राज्यकाल में वे दीक्षित हो चुके थे। यदि पट्टावली के अनुसार आर्य सुहस्ति की सर्व आयु १०० वर्ष और दीक्षा आयु ३० वर्ष मानें तो वे वीरनिर्वाण सं. २२१ अर्थात् ई.पू. २४६ (वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानने पर) में दीक्षित हुए हैं। इससे आर्य सुहस्ति की सम्मति से समकालिकता तो सिद्ध हो जाती है किन्तु उन्हें स्थूलीभद्र का हस्त दीक्षित मानने में ६ वर्ष का अन्तर आता है क्योंकि उनके दीक्षित होने के ६ वर्ष पूर्व ही वीरनिर्वाण से २१५ में स्थूलीभद्र का स्वर्गवास हो चुका था। सम्भावना यह भी हो सकती है कि सुहस्ति ३० वर्ष की आयु के स्थान पर २३ - २४ वर्ष में ही दीक्षित हो गये हों। फिर भी यह सुनिश्चित है कि पट्टावलियों के उल्लेखों के आधार पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति की समकालीनता वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ पर ही सम्भव है उसके पूर्व ई. पूर्व ५२७ में अथवा उसके पश्चात् की किसी भी तिथि को महावीर का निर्वाण मानने पर यह समकालीनता सम्भव नहीं है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
इस प्रकार भद्रबाहु और स्थूलिभद्र की महापद्मनन्द और चन्द्रगुप्त मौर्य से तथा आर्य सुहस्ती को सम्प्रति से समकालीनता वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानने पर सिद्ध की जा सकती है। अन्य सभी विकल्पों में इनकी समकालिकता सिद्ध नहीं होती है। अतः मेरी दृष्टि में महावीर का निर्वाण ई.पू. ४६७ मानना अधिक युक्तसंगत होगा।
अब हम कुछ अभिलेखों के आधार पर भी महावीर के निर्वाण
समय पर विचार करेंगे
मथुरा के अभिलेखो ४४ में उल्लेखित पाँच नामों में से नन्दिसूत्र स्थविरावली ४५ के आर्य मंगु, आर्य नन्दिल और आर्य हस्ति (हस्त हस्ति)- ये तीन नाम तथा कल्पसूत्र स्थविरावली ४६ के आर्य कृष्ण और आर्य वृद्ध ये दो नाम मिलते हैं। पट्टावलियों के अनुसार आर्य मंगु का युग-प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण संवत् ४५१ से ४७० तक माना गया है। ४७ वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानने पर इनका काल ई.पू. १६ से ई० सन् ३ तक और वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ मानने पर इनका काल ई.पू. ७६ से ई.पू. ५७ आता है। जबकि अभिलेखीय आधार पर इनका काल शक सं. ५२ (हुविष्क वर्ष ५२) अर्थात् ई. सन् १३० आता है४८ अर्थात् इनके पट्टावली और अभिलेख के काल में वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ मानने पर लगभग २०० वर्षों का अन्तर आता है और वीरनिर्वाण ई. प ४६७ मानने पर भी लगभग १२७ वर्ष का अन्तर तो बना ही रहता है। अनेक पट्टावलियों में आर्य मंगु का उल्लेख भी नहीं है। अतः उनके काल के सम्बन्ध में पट्टावलीगत अवधारणा प्रामाणिक नहीं है। पुनः आर्य मंगु का नाम मात्र नन्दीसूत्र स्थविरावली में है और यह स्थविरावली भी गुरु-शिष्य परम्परा की सूचक नहीं है। अतः बीच में कुछ नाम छूटने की सम्भावना है जिसकी पुष्टि स्वयं मुनि कल्याणविजयजी ने भी की है। ४९ इस प्रकार आर्य मंगु के अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाण काल का निर्धारण सम्भव
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नहीं है। क्योंकि इस आधार पर ई.पू. ५२७ की परम्परागत मान्यता ई.पू. ४६७ की विद्वन्मान्य मान्यता दोनों ही सत्य सिद्ध नहीं होती है। अभिलेख एवं पट्टावली का समीकरण करने पर इससे वीरनिर्वाण ई.पू. ३६० के लगभग फलित होता है। इस अनिश्चितता का कारण आर्य मंग के काल को लेकर विविध भ्रान्तियों की उपस्थिति है।
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जहाँ तक आर्य नन्दिल का प्रश्न है, हमें उनके नाम का उल्लेख भी नन्दिसूत्र में मिलता है। नन्दिसूत्र में उनका उल्लेख आर्य मंगु के पश्चात् और आर्य नागहस्ति के पूर्व मिलता है। ५° मथुरा के अभिलेखों में नन्दिक नन्दिल) का एक अभिलेख शक संवत् ३२ का है। दूसरे शक सं. ९३ के लेख में नाम स्पष्ट नहीं है, मात्र “न्दि" मिला है । ५१ आर्य नन्दिल का उल्लेख प्रबन्धकोश एवं कुछ प्राचीन पट्टावलियों में भी है किन्तु कहीं पर भी उनके समय का उल्लेख नहीं होने से इस अभिलेखीय साक्ष्य के आधार पर महावीर के निर्वाणकाल का निर्धारण सम्भव नहीं है।
अब हम नागहस्ति की ओर आते हैं- सामान्यतया सभी पट्टावलियों में आर्य वज्र का स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं. ५८४ में माना गया है आर्य वज्र के पश्चात् १३ वर्ष आर्य रक्षित, २० वर्षं पुष्यमित्र और ३ वर्ष वज्रसेन युगप्रधान रहे अर्थात् वोरनिर्वाण सं. ६२० में वज्रसेन का स्वर्गवास हुआ। मेरुतुंग की विचारश्रेणी में इसके बाद आर्य निर्वाण ६२१ से ६९० तक युगप्रधान रहे। ५२ यदि मथुरा अभिलेख के हस्तहस्ति ही नागहस्ति हों तो माघहस्ति के गुरु के रूप में उनका उल्लेख शक सं. ५४ के अभिलेख में मिलता है अर्थात् वे ई.सन् १३२ के पूर्व हुए हैं। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू. ४६७ मानते हैं तो उनका युग प्रधान काल ई. सन् १५४-२२३ आता है। अभिलेख उनके शिष्य को ई. सन् १३२ में होने की सूचना देता है यद्यपि यह मानकर सन्तोष किया जा सकता है कि युग प्रधान होने के २२ वर्ष पूर्व उन्होंने किसी को दीक्षित किया होगा। यद्यपि इनकी सर्वायु १०० वर्ष मानने पर तब उनकी आयु मात्र ११ वर्ष होगी और ऐसी स्थिति में उनके उपदेश से किसी का दीक्षित होना और उस दीक्षित शिष्य के द्वारा मूर्ति प्रतिष्ठा होना असम्भव सा लगता है। किन्तु यदि हम परम्परागत मान्यता के आधार पर वीरनिर्वाण को शक संवत् ६०५ पूर्व या ई. पू. ५२७ मानते हैं तो पट्टावलीगत उल्लेखों और अभिलेखीय साक्ष्यों में संगति बैठ जाती है। इस आधार पर उनका युग प्रधान काल शक सं. १६ से शक सं. ८५ के बीच आता है और ऐसी स्थिति में शक सं. ५४ में उनके किसी शिष्य के उपदेश से मूर्ति प्रतिष्ठा होना सम्भव है। यद्यपि ६९ वर्ष तक उनका युग प्रधानकाल मानना सामान्य बुद्धि से युक्ति संगत नहीं लगता है। अतः नागहस्ति सम्बन्धी यह अभिलेखीय साक्ष्य पट्टावली की सूचना को सत्य मानने पर महावीर का निर्वाण ई.पू. ५२७ मानने के पक्ष में जाता है ।
पुन: मथुरा के एक अभिलेखयुक्त अंकन में आर्यकृष्ण का नाम सहित अंकन पाया जाता है। यह अभिलेख शक संवत् ९५ का है। १३ यदि हम आर्यकृष्ण का समीकरण कल्पसूत्र स्थाविरावली में शिवभूति के बाद उल्लिखित आर्यकृष्ण से करते हैं५४ तो पट्टावलियों एवं विशेषावश्यक भाष्य के आधार पर इनका सत समय वीरनिर्वाण सं. ६०९
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