Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 787
________________ तार्किक शिरोमणी आचार्य सिद्धसेन 'दिवाकर' ६५५ वर्ष ६० का और द्वितीय में वर्ष ७९ का उल्लेख है। यदि हम इसे शक आदि कुछ दिगम्बर विद्वानों ने उन्हें यापनीय परम्परा का आचार्य सिद्ध संवत् मानें तो तद्नुसार दूसरे अभिलेख का काल लगभग विक्रम संवत् करने का प्रयास किया है। प्रो० उपाध्ये ने जो तर्क दिये उन्हें स्पष्ट २१५ होगा। यदि ये लेख उनकी युवावस्था के हों तो आचार्य वृद्धहस्ति करते हुए तथा अपनी ओर से कुछ अन्य तर्कों को प्रस्तुत करते हुए का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्ध तक माना जा सकता डॉ० कुसुम पटोरिया ने भी उन्हें यापनीय परम्परा का सिद्ध किया है। है। इस दृष्टि से भी सिद्धसेन का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के प्रस्तुत सन्दर्भ में हम इन विद्वानों के मन्तव्यों की समीक्षा करते हुए उत्तरार्ध से चौथी शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच माना जा सकता है। यह निश्चय करने का प्रयत्न करेंगे कि वस्तुत: सिद्धसेन की वास्तविक इस समग्र चर्चा से इतना निश्चित होता है कि सिद्धसेन दिवाकर परम्परा क्या थी। के काल की सीमा रेखा विक्रम संवत् की तृतीय शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर विक्रम संवत् की पंचम शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच ही कहीं निश्चित क्या सिद्धसेन दिगम्बर हैं ? होगी। पं० सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी ने उनका काल चतुर्थ-पंचम समन्तभद्र की कृति के रूप में मान्य रत्नकरण्डक श्रावकाचार शताब्दी निश्चित किया है। प्रो० ढाकी ने भी उन्हें पाँचवीं शताब्दी के में प्राप्त न्यायावतार की जिस समान कारिका को लेकर यह विवाद है उत्तरार्ध में माना है, किन्तु इस मान्यता को उपर्युक्त अभिलेखों के कि यह कारिका सिद्धसेन ने समन्तभद्र से ली है, इस सम्बन्ध में प्रथम आलोक में तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय से समकालिकता की दृष्टि से थोड़ा तो यही निश्चित नहीं है कि रत्नकरण्डक समन्तभद्र की कृति है या नहीं। पीछे लाया जा सकता है। यदि आर्य वृद्धहस्ति ही वृद्धवादी हैं और दसरे यह कि यह कारिका दोनों ग्रन्थों में अपने योग्य स्थान पर है अत: सिद्धसेन उनके शिष्य हैं तो सिद्धसेनका काल विक्रम की तृतीय शती इसे सिद्धसेन से समन्तभद्र ने लिया है या समन्तभद्र से सिद्धसेन ने लिया के उत्तरार्ध से चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्ध के बीच ही मानना होगा। कुछ है, यह कह पाना कठिन है। तीसरे, यदि समन्तभद्र भी लगभग ५वीं प्रबन्धों में उन्हें आर्य धर्म का शिष्य भी कहा गया है । आर्य धर्म का शती के आचार्य हैं और न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने में उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है । वे आर्य वृद्ध के बाद तीसरे क्रम बाधा नहीं है, तो यह भी सम्भव है, समन्तभद्र ने इसे सिद्धसेन से लिया पर उल्लिखित हैं। इसी स्थविरावली में एक आर्य धर्म देवर्धिगणिक्षमाश्रमण हो । समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में भी सन्मतितर्क को कुछ गाथाएँ के पूर्व भी उल्लेखित हैं । यदि हम सिद्धसेन के सन्मतिप्रकरण और अपने संस्कत रूप में मिलती हैं। तत्त्वार्थसत्र कि तुलना करें तो दोनो में कुछ समानता परिलक्षित होती है। पं० जगलकिशोर जी मख्तार ने सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन विशेष रूप से तत्त्वार्थ सूत्र में अनेकान्त दृष्टि को व्याख्यायित करने के को दिगम्बर परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयत्न किया है तथापि लिए 'अर्पित' और 'अनर्पित' जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है । इन शब्दों मख्तार जी उन्हें दिगम्बर परम्परा का आचार्य होने के सम्बन्ध में कोई का प्रयोग सन्मतितर्क (१/४२) में भी पाया जाता है। मेरी दृष्टि में भी आधारभत प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। उनके तर्क मुख्यत: दो सिद्धसेन उमास्वाति से किंचित परवर्ती हैं और उनका काल विक्रम की बातों पर स्थित हैं। - प्रथमतः सिद्धसेन के ग्रन्थों से यह फलित नहीं. चतुर्थ शती से परवर्ती नहीं है। होता कि वे स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और सवस्त्रमुक्ति आदि के समर्थक थे । दूसरे यह कि सिद्धसेन अथवा उनके ग्रन्थ सन्मतिसूत्र का उल्लेख सिद्धसेन दिवाकर की परम्परा जिनसेन, हरिषेण, वीरषेण आदि दिगम्बर आचार्यों ने किया है- इस जहाँ तक उनकी परम्परा का प्रश्न है डॉ० पाण्डेय ने अपनी आधार पर उनके दिगम्बर परम्परा के होने की सम्भावना व्यक्त करते कृति में इसकी विस्तृत चर्चा नहीं की है । सम्भवत: डॉ० पाण्डेय ने हैं। यदि आदरणीय मुख्तार जी उनके ग्रन्थों में स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति उनकी परम्परा के सन्दर्भ में विशेष उल्लेख यह जानकर नहीं किया हो या सवस्त्रमुक्ति का समर्थन नहीं होने के निषेधात्मक तर्क के आधार पर कि इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने ग्रन्थ जैन धर्म का यापनीय उन्हें दिगम्बर मानते हैं, तो फिर इसी प्रकार के निषेधात्मक तर्क के सम्प्रदाय में की है। __ आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उनके ग्रन्थों में स्त्रीमुक्ति, सिद्धसेन दिवाकर के सम्प्रदाय के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण केवलीभक्ति और सवस्त्रमुक्ति का खण्डन नहीं है, अत: वे श्वेताम्बर परिलक्षित होते हैं । जिनभद्र, हरिभद्र आदि से प्रारम्भ करके पं० परम्परा के आचार्य हैं। सुखलाल जी, पं० बेचरदास जी आदि सभी श्वेताम्बर परम्परा के पुनः मुख्तार जी यह मान लेते हैं कि रविषेण और पन्नाटसंघीय विद्वान् एकमत से उन्हें अपने सम्प्रदाय का स्वीकार करते हैं। इसके जिनसेन दिगम्बर परम्परा के हैं, यह भी उनकी भ्रांति है । रविषण विपरीत षट्खण्डागम की धवला टीका एवं जिनसेन के हरिवंश तथा यापनीय परम्परा के हैं अत: उनके परदादा गुरू के साथ में सिद्धसेन रविषेण के पद्यपुराण में सिद्धसेन का उल्लेख होने से पं० जुगल दिवाकर का उल्लेख मानें तो भी वे यापनीय सिद्ध होंगे, दिगम्बर तो किशोर मुख्तार जैसे दिगम्बर परम्परा के कुछ विद्वान् उन्हें अपनी किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होगें। आदरणीय मुख्तारजी ने एक यह परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। किन्तु दिगम्बर विचित्र तर्क दिया है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का परम्परा से उनकी कुछ भिन्नताओं को देखकर प्रो० ए०एन० उपाध्ये उल्लेख नहीं है, इसलिए प्रबन्धों में उल्लिखित सिद्धसेन अन्य कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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