Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 784
________________ भगवान महावीर की निर्वाण तिथि पर पुनर्विचार ६५३ के आस-पास निश्चित होता है५५ क्योंकि इन्हीं आर्यकृष्ण और शिवभूति निर्वाण काल को ई.पू. ४६७ मानने की ही पुष्टि करते हैं। ऐसी स्थिति के वस्त्र सम्बन्धी विवाद के परिणामस्वरूप बोटिक निह्नव की उत्पत्ति हुई में बुद्ध निर्वाण ई.पू. ४८२. जिसे अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों ने मान्य थी और इस विवाद का काल वीरनिर्वाण संवत् ६०९ सुनिश्चित है। किया है, मानना होगा और तभी यह सिद्ध होगा कि बुद्ध के निर्वाण के वीरनिर्वाण ई.पू.४६७ मानने पर उस अभिलेख काल का ६०९- लगभग १५ वर्ष पश्चात् महावीर का निर्वाण हुआ। ४६७=१४२ ई. आता है। यह अभिलेखयुक्त अंकन ९५+ ७८=१७३ई. का है। चूंकि अंकन में आर्यकृष्ण को एक आराध्य के रूप में अंकित सन्दर्भ करवाया गया है। यह स्वाभाविक है कि उनकी ही शिष्य परम्परा के किसी १. (अ) णिव्वाणे वीर जिणे छव्वाससदेसु पंचवरिसेसु। पणमासेसु आर्य अर्ह द्वारा ई.सन् १७३ में यह अंकन उनके स्वर्गवास के २०- गदेसु संजादो सगणिओ अहवा।।-तिलोयपण्णत्ति, ४/१४९९. २५ वर्ष बाद ही हुआ होगा। इस प्रकार यह अभिलेखीय साक्ष्य वीरनिर्वाण (ब) पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससया। संवत् ई.पू. ४६७ मानने पर ही अन्य साहित्यिक उल्लेखों से संगति रख परिणिव्वुअस्सअरिहतो सो उण्णण्णो सगो राया।।-तित्थोगाली सकता है, अन्य किसी विकल्प से इसकी संगति बैठाना सम्भव नहीं है। पइन्नय, ६२३ मथुरा अभिलेखों में एक नाम आर्यवृद्धहस्ति का भी मिलता २. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार, जैन साहित्य और इतिहास पर विशद है। इनके दो अभिलेख मिलते हैं। एक अभिलेख शक सं.६० (हुविष्क प्रकाश, श्री वीरशासन संघ, कलकत्ता, १९५६, पृ. २६-४४, वर्ष ६०) और दूसरा शक सं. ७९ का है।५६ ईस्वी सन् की दृष्टि से ४५-४६ ये दोनों अभिलेख ई.सन् १३८ और ई.सन् १५७ के हैं। यदि ये वृद्धहस्ति ३. मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण संवत् और जैन कालगणना, ही कल्पसूत्र स्थविरावली के आर्यवृद्ध और पट्टावलियों के वृद्धदेव हों प्रकाशक क.वि. शास्त्र समिति, जालौ (मारवाड़), पृ. १५९ तो पट्टावलियों के अनुसार उन्होंने वीरनिर्वाण ६९५ में कोरंटक में प्रतिष्ठा ४. तित्थोगाली पइन्नयं (गाथा ६२३), पइण्णयसुत्ताई, सं. मुनि करवाई थी।५७ यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू ४६७ मानते हैं तो यह काल पुष्यविजय, प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, ६९५-४६७-२१८ ई. आता है। अत: वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ मानता ४०००३६ पर इस अभिलेखीय साक्ष्य और पट्टावलीगत मान्यता का समीकरण ठीक ५. तिलोयपण्णत्ति, ४/१४९९ सं. प्रो. हीरालाल जैन, जैन बैठ जाता है। पट्टावली में वृद्ध का क्रम २५वाँ है। प्रत्येक आचार्य का संस्कृतिरक्षक संघ शोलापुर, औसत सत्ता काल २५ वर्ष मानने पर इनका समय वीरनिर्वाण ई.पू. मानने ६. कल्पसूत्र, १४७, पृ. १४५, अनुवादक माणिकमुनि, प्रकाशकपर भी अभिलेख से वीरनिर्वाण ६२५ आयेगा और तब ६२५- सोभागमल हरकावत, अजमेर ४६७=१५८ संगति बैठ जायेगी। ७. ठाणं (स्थानांग), अगुंसुत्तााणि भाग १, आचार्य तुलसी, अन्तिम साक्ष्य जिस पर माहवीर की निर्वाण तिथि का निर्धारण जैनविश्वभारती, लाडनूं ७/१४१ किया जा सकता है, वह है महाराज ध्रुवसेन के अभिलेख और उनका ८... भगवई, ९/२२२-२२९ (अंगसुत्ताणि भाग २-आचार्य तुलसी, काल। परम्परागत मान्यता यह है कि वल्लभी की वाचना के पश्चात् जैनविश्वभारती लाडनूं) सर्वप्रथम कल्पसूत्रकी सभा के समक्ष वाचना आनन्दपुर (बडनगर) में ९. आवश्यकनियुक्ति, ७७८-७८३ (नियुक्तिसंग्रह-सं. विजयजिनसेन महाराज ध्रुवसेन के पुत्र-मरण के दुःख को कम करने के लिये की गयी। सूरीश्वर, हर्षपुष्पामृत, जैनग्रन्थमाला, लाखा बाखल, सौराष्ट्र, यह काल वीरनिर्वाण सं. ९८० या ९९३ माना जाता है।५८ ध्रुवसेन के १९८९) अनेक अभिलेख उपलब्ध हैं। ध्रुवसेन प्रथम का काल ई.सं. ५२५ से १०. तिलोयपण्णति, ४/१४९६-१४९९ ५५० तक माना जाता है।५९ यदि यह घटना उनके राज्यारोहण के द्वितीय ११. धवला टीका समन्वित षट्खण्डागम, खण्ड-४ भाग-१, पुस्तक वर्ष ई. सन् ५२६ की हो तो महावीर का निर्वाण ९९३-५२६=४६९ ९ पृ० १३२-१३३ ई.पू. सिद्ध होता है। १२. कल्पसूत्र (मणिकमुनि, अजमेर), सूत्र १४७, पृ० १४५ इस प्रकार इन पाँच अभिलेखीय साक्ष्यों में तीन तो ऐसे अवश्य १३. तित्थोगालीपइन्नयं (पइण्णयसुत्ताई), ६२१ ।। हैं जिनसे महावीर का निर्वाण ई.प. ४६७ सिद्ध होता है। जबकि दो ऐसे १४. एवं च श्री महावीर मुक्तैर्वर्षशते, पंच पंचाशदधिके चन्द्रगुप्तोऽभवन्त्रपः।। हैं जिनसे वीरनिर्वाण ई.पू. ५२७ भी सिद्ध हो सकता है। एक अभिलेख परिशिष्टपर्व, हेमचन्द्र, सर्ग, ८/३३९ (जैनधर्म प्रसारक संस्था का इनसे कोई संगति नहीं है। ये असंगतियाँ इसलिए भी है कि पट्टावलियों भावनगर) में आचार्यों का जो काल दिया गया है उसकी प्रामाणिकता सन्दिग्ध है १५. ज्ञातव्य है चन्दुगुप्त मौर्य को वीरनिर्वाण सं० २१५ में राज्यासीन और आज हमारे पास ऐसा कोई आधार नहीं है जिसके आधार पर इस मानकर ही वीरनिर्वाण ई०पू० ५२७ में माना जा सकता है, किन्तु असंगति को समाप्त किया जा सके। फिर भी इस विवेचना में हम यह उसे वीरनिर्वाण १५५ में राज्यासीन मानने पर वीरनिर्वाण ई०पू० पाते हैं कि अधिकांश साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्य महावीर के ४६७ मानना होगा। १६. Jacobi, V. Harman--Buddhas und Mahaviras Nirvana Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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