Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 777
________________ ६४६ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ हैं, मुझे जाकर उन्हें प्रणाम करना चाहिए । यह विचार करते हुए, जैसे में की गयी है । दिगम्बर परम्परा के अनुसार जहाँ शल्य निवृत्ति भरत ही बाहुबलि लघुभ्राताओं के वंदन हेतु जाने के लिये अपने चरण उठाते के द्वारा की गई क्षमा याचना या पूजा से होती है । वहाँ श्वेताम्बर परम्परा हैं, कैवल्य प्रकट हो जाता है। में शल्य की निवृत्ति अपनी संसार पक्ष की बहनों तथा भगवान् ऋषभदेव सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने बाहुबलि के जीवनवृत्त में इस घटना की प्रधान आर्यिका ब्राह्मी और सुन्दरी के उद्बोधन से होती है। किसी का उल्लेख अवश्य किया है। इस सम्बन्ध से उनमें कोई मतभेद नहीं आर्यिका द्वारा श्रमण साधक के उद्बोधन की दो प्रमुख घटनाएँ श्वेताम्बर देखा जाता है जबकि दिगम्बर आचार्यों में इस घटना के सम्बन्ध में भी साहित्य में हमें उपलब्ध होती हैं । एक ब्राह्मी और सुन्दरी के द्वारा मतभेद देखा जाता है । प्रथम तो इस प्रश्न पर ही कि बाहुबलि को बाहुबलि का उद्बोधन और दूसरा राजीमती के द्वारा रथनेमि का उद्बोधन । साधनाकाल में शल्य था, वे एकमत नहीं हैं । जिनसेन ने आदिपुराण जबकि दिगम्बर परम्परा में आर्यिकाओं के द्वारा श्रमणों के उद्बोधन के में और रविषेण ने पद्मपुराण में शल्य का उल्लेख नहीं किया है; जबकि प्रसङ्गों का अभाव सा ही है । यद्यपि श्री लक्ष्मीचन्द जैन ने 'अन्तर्द्वन्द्वों कुन्दकुन्द ने भाव पाहुड में एवं स्वयम्भू ने पउमचरिउ में शल्य का के पार' नामक पुस्तक में यह उल्लेख किया है कि भरत भगवान् उल्लेख किया है । बाहुबलि में कषाय था, इस तथ्य का दिगम्बर ऋषभदेव से बाहुबलि में शल्य की उपस्थिति को जानकर स्वयं अयोध्या परम्परा में प्राचीनतम उल्लेख आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ 'भाव पाहुड' आते हैं और वहाँ से ब्राह्मी एवं सुन्दरी को लेकर बाहुबलि के समीप की गाथा ४४ में मिलता है। किन्तु यह 'मान' कषाय किस बात का जाते हैं, बाहुबलि की पूजा करते हैं और दोनों बहनें बाहुबलि को था, इसका स्पष्टीकरण उसमें नहीं है । दूसरे जिन दिगम्बर आचार्यों ने उद्बोधित करती हैं कि 'भाई हाथी से नीचे उतरो', किन्तु श्री लक्ष्मीचन्द शल्य की उपस्थिति का उल्लेख किया है, वे भी इस घटना को श्वेताम्बर जी के इस कथन का आधार दिगम्बर परम्परा का कौन सा ग्रन्थ है, मुझे आचार्यों से नितांत भिन्न रूप में प्रस्तुत करते हैं - भरत भगवान् ज्ञात नहीं। पुनः उन्होंने भी ब्राह्मी और सुन्दरी को श्राविका के रूप में ऋषभदेव से पूछते है कि बाहुबलि को कैवल्य प्राप्ति क्यों नहीं हुई? प्रस्तुत किया है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा में ये साध्वी के रूप में भगवान् उत्तर देते हैं कि उसके मन में यह कषाय है कि भरत की धरती बाहुबलि को उद्बोधित करती हैं। पर हूँ। भरत स्वयं बाहुबलि के पास जाकर कहते हैं कि धरती तुम्हारी इस तुलनात्मक अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि है मैं तो तुम्हारा किंकर हूँ (पउमचरिउ-स्वयम्भू ४/१४)। भरत के इन बाहुबलि के इस कथानक को दोनों ही परम्पराओं ने अपनी-अपनी वचनों को सुनकर बाहुबलि को केवल ज्ञान हो जाता है । कुछ दिगम्बर धारणाओं के अनुरूप मोड़ने का प्रयास किया है। फिर भी बाहुबलि की आचार्यों ने यह भी उल्लेख किया है कि भरत ने जाकर जैसे ही रोमांचकारी कठोर साधना का, जो चित्रण दोनों परम्परा के आचार्यों ने बाहुबलि की पूजा की, उनका शल्य दूर हो गया और उन्हें केवल ज्ञान किया है, वह निश्चय ही हमें महापुरुष के प्रति श्रद्धावनत बना देता है। प्राप्त हो गया । श्वेताम्बर आचार्यों ने तो स्पष्टरूप से बाहुबलि में मान जो अन्तर और बाह्य दोनों युद्धों में अपराजेय रहा हो । ऐसा व्यक्तित्व या अहंकार की उपस्थिति बतायी है किन्तु दिगम्बर आचार्यों ने भरत की निश्चय ही महान् है । बाहुबलि सर्वतोभावेन अपराजेय सिद्ध हुए हैं। धरती पर होने के जिस शल्य का उल्लेख किया है उसे या तो हीन भाव एक ओर चक्रवर्ती सम्राट् को पराजित कर वे अपराजेय बने हैं, तो (शल्यग्लानि) मानना होगा या भरत के प्रति आक्रोश मानना होगा । इस दूसरी ओर स्वयं प्रबुद्ध हो एकाकी साधना के द्वारा कर्म शत्रुओं को प्रकार दोनों ने शल्य की व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में की है। पराजित कर उन्होंने अपनी अपराजेयता को सिद्ध किया है । शल्य की निवृत्ति की व्याख्या भी दोनों परम्पराओं में भिन्न रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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