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जीवन प्रवृत्ति में भी निवृत्ति का जीवन है उनके लिए बाह्य पदार्थ नहीं, मूर्च्छा ही वास्तविक परिग्रह है। चूंकि यह बात श्वेताम्बर परम्परा के अनुकूल थी अतः उसे भरत का जीवनादर्श अधिक अनुकूल लगा यही कारण था कि श्वेताम्बर आचार्यों ने भरत के जीवन चरित्र पर अपनी कलम को अधिक चलाया है ।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
इसके विपरीत बाहुबलि की जीवन-दृष्टि भिन्न है, वे पूरे मन से राजा हैं । राजा का गौरव उनके मन में है, यही कारण है कि वे बड़े भाई की अधीनता के प्रस्ताव को ठुकराकर युद्ध के लिये तैयार हो जाते हैं और बड़े भाई का राजलिप्सा के मद में युद्ध की नैतिकता को भंग कर छोटे भाई के वध के लिए उद्यत हो जाना ही उनके विराग का कारण बन जाता है । वे श्रमण बन जाते हैं, फिर भी उनके मन से 'राजा का गौरव' समाप्त नहीं होता है। भरत की भूमि पर खड़े रहने या छोटे भाइयों के नमन करने के प्रश्न उनके मन को कचोटते रहते हैं । यद्यपि बाहुबलि ने युद्ध भी जीता है और अपना गौरव भी अक्षुण्ण रखा, फिर भी भीतर के युद्ध में उन्हें सहज विजय नहीं मिलती है। उनका जीवन कठोर निवृत्ति प्रधान साधना का जीवन है ध्यान और कायोत्सर्ग की साधना का ऐसा कोई दूसरा उदाहरण देख पाना कठिन है । जिसके शरीर को लताओं ने आच्छादित कर लिया हो, चींटियों ने जिस पर अपने वल्मीक बना लिये हों, फिर भी जो ध्यान में अचल और अकम्प है, कितनी कठोर साधना है । बाहुबलि का जीवन निवृत्तिपरक कठोरतम साधना का उच्चतम आदर्श है। यही कारण था कि कठोर साधना के आदर्श के प्रति श्रद्धान्वित दिगम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति अपेक्षाकृत अधिक बहुमान देखा जाता है किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि श्वेताम्बर परम्परा में बाहुबलि के प्रति या दिगम्बर परम्परा में भरत के प्रति आदर भाव नहीं रहा है। यह तो मात्र अपेक्षाकृत विशेष रुझान की बात है। वैसे तो दोनों परम्पराओं में दोनों के ही प्रति समादर भाव है। फिर भी हमें इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि दोनों की साधना पद्धति भिन्न-भिन्न है । यदि शास्त्रीय भाषा में कहना हो तो जहाँ भरत निश्चय प्रधान साधना के प्रतीक है वहीं बाहुबलि व्यवहार प्रधान साधना के प्रतीक हैं। भरत की साधना की यात्रा निश्चय से व्यवहार की ओर है, तो बाहुबलि की साधना की यात्रा व्यवहार से निश्चय की ओर है।
जैन साहित्य में बाहुबलि की कथा का विकास
श्वेताम्बर परम्पर के आगमग्रंथों में स्थानांगसूत्र में बाहुबलि के शरीर की ऊँचाई के सम्बन्ध में तथा समवायांग में बाहुबलि की आयुष्य के सम्बन्ध में उल्लेख अवश्य उपलब्ध हैं, किन्तु वे उनके जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कोई विस्तृत जानकारी प्रदान नहीं करते हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भरत की षट्खण्ड विजय यात्रा का विस्तार से वर्णन है तथा कल्पूसत्र में ऋषभदेव का जीवन चरित्र दिया गया है, किन्तु उनमें बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा का सम्पूर्ण आगम साहित्य बाहुबलि के जीवनवृत्त के सम्बन्ध में मौन है।
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यद्यपि श्वेताम्बर आगम साहित्य की टीकाओं में आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यकभाष्य, विशेषावश्यक भाष्य, आवश्यक चूर्णि निशीथ चूर्णि कल्पसूत्रवृत्ति, आचारांग टीका और स्थानांग टीका में बहुबलि का जीवनवृत्त उल्लिखित है । कथा - साहित्य में विमलसूरि के पउमचरिउ में, संघदासमणि कृत वसुदेवहिण्डि में शीलांक के चउपन्न महापुरिवरिय में एवं हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाका पुरुष- चरित्र में भी बाहुबलि का जीवनवृत्त सविस्तार से उल्लिखित है। इसके अतिरिक्त भरत चक्रवर्ती पर लिखे गये भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति में तथा शत्रुंजयमाहात्म्य आदि ग्रन्थों में बाहुबलि के सम्बन्ध में उल्लेख प्राप्त है। जिनरत्न कोश के अनुसार बाहुबलि पर दो स्वतन्त्र ग्रंथ 'बाहुबलि चरित्र' के नाम से भी प्राप्त हैं, जिनमें एक के लेखक भट्टारक चारुकीर्ति हैं जो कि दिगम्बर परंपरा के हैं। दूसरे के लेखक अज्ञात हैं, जो कि संभवत: श्वेताम्बर परम्परा के हो सकते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में पुण्यकुशलगणि की भरत बाहुबलि महाकाव्य नामक एक अत्यन्त सुन्दर तथा महत्त्वपूर्ण कृति है, यह संस्कृत भाषा में है। इसके अतिरिक्त शालिभद्रसूरि का भरतबाहुबलि रास (१३वीं शताब्दी) एवं अमीऋषिजी का भारत बाहुबलि चौखलिया, समकालीन आचार्य तुलसी का भरतमुक्ति काव्य क्रमशः प्राचीन गुजराती, राजस्थानी एवं हिन्दी में श्वेताम्बर आचार्यों की प्रमुख रचनाएँ हैं, जिनमें बाहुबलि का जीवनवृत्त उल्लिखित है ।
दिगम्बर परम्परा के आगम-स्थानीय साहित्य में कुन्दकुन्द के भाव पाहुड़ में बाहुबलि को मान कषाय था, मात्र इतना उल्लेख है । इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के आगमिक साहित्य में बाहुबलि के जीवनवृत्त का उल्लेख हमें प्राप्त नहीं हुआ है, यद्यपि दिगम्बर परम्परा का पौराणिक साहित्य विस्तार से बाहुबलि की यशोगाथा गाता है। हरिषेण के पद्मपुराण, स्वयम्भू के पउमचरिउ, जिनसेन के आदिपुराण, रविषेण के पद्मपुराण, पुत्राटसंघीय जिनसेन के हरिवंश पुराण आदि में बाहुबलि का जीवनवृत्त वर्णित है।
बाहुबलि की कथा, समानता और अन्तर
बाहुबलि के जीवनवृत्त में जिन उल्लेखनीय प्रसंगों का चित्रण श्वेताम्बर आचार्यों ने किया है, वे दो हैं - एक भरत और बाहुबलि के युद्ध का प्रसंग और दूसरा बाहुबलि की साधना और कैवल्य लाभ का प्रसंग भरत ने दूत के द्वारा अपने भाइयों को अपनी अधीनता को स्वीकार करने का सन्देश भेजा। शेष भाई भरत के इस अन्याय के सम्बन्ध में योग्य निर्णय प्राप्त करने पिता ऋषभदेव के पास पहुँचते हैं और अन्त में उनके उपदेश को सुनकर प्रबुद्ध हो, दीक्षित हो जाते हैं। किन्तु बाहुबलि स्पष्टरूप से भरत को चुनौती देकर युद्ध के लिए तत्पर हो जाते हैं। बाहुबलि ने भरत के सुवेग नामक दूत को जो तर्क, प्रत्युत्तर दिये हैं, वे बहुत ही सचोट, युक्तिसंगत एवं महत्वपूर्ण हैं। इस सम्बन्ध में आवश्यकचूर्णि चउपन्न महापुरिसन्यरियं तथा शिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र के प्रसंग निश्चय ही पठनीय हैं। वह कह उठता है, क्या भाई भरत की भूख अभी शांत नहीं हुई है? अपने लघुभ्राताओं
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