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स्तोत्र में भी मिलती है।
ऋग्वेद में उपलब्ध कुछ ऋचाओं की जैन दृष्टि से ऋषभदेव के प्रसंग में व्याख्या करने का हमने प्रयत्न किया है। विद्वानों से यह अपेक्षा है कि वे इन ऋचाओं के अर्थ को देखें और निश्चित करें कि इस प्रयास की कितनी सार्थकता है। यद्यपि मैं स्वयं इस तथ्य से सहमत हूँ कि इन ऋचाओं का यही एक मात्र अर्थ है ऐसा दावा नहीं किया जा सकता। अग्रिम पंक्तियों में कुछ ऋचाओं का जैन दृष्टिपरक अर्थ प्रस्तुत है। मेरी व्यस्तताओं के कारण वृषभवाची सभी ११२ ऋचाओं का अर्थ तो नहीं कर पाया हूँ, मात्र दृष्टि-बोध के लिये कुछ ऋचाओं की व्याख्या प्रस्तुत है। इस व्याख्या के सम्बन्ध में भी मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि इन ऋचाओं के जो विभिन्न लाक्षणिक अर्थ सम्भव हैं उनमें एक अर्थ यह भी हो सकता है। इससे अधिक मेरा कोई दावा नहीं है।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
ऋषभ वाची ऋग्वैदिक ऋचाओं की जैन दृष्टि से व्याख्या असृग्रमिन्द्र ते गिरः प्रति त्वामुदहासत । अजोषा वृषभं पतिम |
(१.९.४)
हे इन्द्र ! (अजोषा ) जिन्होंने स्त्री का त्याग कर दिया है, उन ऋषभ (पतिम्) स्वामी के प्रति आपकी जो अनेक प्रकार की वाणी (स्तुति) है, वह आपकी (भावनाओं) को उत्तमता पूर्वक अभिव्यक्त करती है। ( ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में इन्द्र ही सर्वप्रथम जिन की स्तुति करता है शक्रस्तव (नमोत्गुणं) का पाठ जैनों में सर्व प्रसिद्ध है) त्वमग्ने वृषभः पुष्टिवर्धन उद्यतचे भवसि श्रवाय्यः । य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुग्ने विश अविवाससि ।।
( १.३१.५)
हे ज्योतिस्वरूप वृषभ ! आप पुष्टि करने वाले हैं जो लोग होम करने के लिए तत्पर हैं उनके लिए स्वयं आकर आप सुनने योग्य हैं अर्थात् उन्हें आहूत होकर आपके विचारों को जानना चाहिए आप का उपदेश जानने योग्य है क्योंकि उसके आधार पर उत्तम क्रियायें की जा सकती हैं। आप एका अर्थात् चरम शरीरी हैं और तीर्थंकरों में प्रथम या अग्र हैं और प्रजा आप में ही निवास करती है अर्थात् आप की ही आज्ञा का अनुसरण करती है।
(ज्ञातव्य है - वैदिक दृष्टि से अग्नि के लिये एकायु एवं अग्र विशेषण का प्रयोग उतना समीचीन नहीं है जितना भ तीर्थंकर के साथ है। उन्हें का कहने का तात्पर्य यह है कि जिनका यही अन्तिम जीवन है। दूसरे प्रथम तीर्थकर होने से उनके साथ अग्र विशेषण भी उपयुक्त है
न ये दिवः पृथिव्या अन्तमापुर्न मायाभिर्धनदां पर्यभूवन । युजं वज्रं वृषभश्चक्र इन्द्रो निज्योतिषा तमसो गा अदुक्षत।। ( १.३३.१०)
हे स्वामी (भदेव ! न तो स्वर्ग के और न पृथ्वी के वासी माया और धनादि (परिग्रह) से परिभूत होने के कारण आपकी मर्यादा
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(आपकी योग्यता) को प्राप्त नहीं होते हैं। हे वृषभ ! आप समाधियुक्त (युज), अतिकठोर साधक, व्रजमय शरीर के धारक और इन्द्रों के भी चक्रवर्ती हैं- ज्ञान के द्वारा अन्धकार (अज्ञान) का नाश करके गा अर्थात् प्रजा को सुखों से पूर्ण कीजिये।
आ चर्षाणिप्रा वृषभो जनानां राजा कृष्टीनां पुरुहूत इन्द्रः । स्तुतः श्रवस्यन्नवसोप महिग्युक्ता हरी वृषणा याह्यर्वाङ ।।
(१.१७७.१) बहुतों में प्रसिद्ध तथा बहुतों के द्वारा संस्तुत, सबके उस विचक्षण बुद्धि महान ऋषभदेव की इस प्रकार स्तुति की जाती है। वह स्तुत्य होकर हमें वीरता, गोधन एवं विद्या प्रदान करें। हम उस तेजस्वी (ज्ञान) दाता को जाने या प्राप्त करें।
त्वमग्ने इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः । त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्यते त्वं विधर्तः सचसे पुरन्य्या ।।
(२.१.३)
हे ज्योति स्वरूप जिनेन्द्र ऋषभ ! आप सत्पुरुषों के बीच प्रणाम करने योग्य हैं। आप ही विष्णु हैं और आप ही ब्रह्मा हैं तथा आप ही विभिन्न प्रकार की बुद्धियों से युक्त मेधावी है। जिस सप्त किरणों वाले वृषभ ने सात सिन्धुओं को बहाया और निर्मल आत्मा पर चढ़े हुए कर्ममल को नष्ट कर दिया। वे बज्रबाहु इन्द्र अर्थात् जिनेन्द्र आप ही हैं।
अनानुदो वृषभो दोधतो वधो गम्भीर ऋष्वो असमष्टकाव्यः । रचोदः श्रनथनो वीलितस्पृथुरिन्द्रः सुयज्ञः उषसः स्वर्जनत ।
(२.२१.४)
दान देने में जिनके आगे कोई नहीं निकल सका ऐसे संसार अर्थात् जन्म-मरणको क्षीण करने वाले, कर्म शत्रुओं को मारने वाले असाधारण, कुशल, दृढ़ अगों वाले, उत्तम कर्म करने वाले ऋषभ ने सुयज्ञ रूपी अहिंसा धर्म का प्रकाशन किया।
अनानुदो वृषभो जग्मिराहवं निष्टप्ता शत्रुं पृतनासु सासहिः । असि सत्य ऋणया ब्रह्मणस्पत उग्रस्य चिद्दमिता वीलुहर्षिणः । 1 (२.२३.११)
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हे ज्ञान के स्वामी वृषभ! तुम्हारे जैसा दूसरा दाता नहीं है। तुम आत्म शत्रुओं को तपाने वाले, उनका पराभव करने वाले कर्म रूपी ऋण को दूर करने वाले, उत्तम हर्ष देने वाले कठोर साधक व सत्य के प्रकाशक हो।
उन्मा ममन्द वृषभो मरुत्वान्त्वक्षीयसा वयसा नाधमानम । घृणीव च्छायामरण अशीयाऽऽविवासेयं रुद्रस्य सुग्नम |
(२.३३.६) मरुत्वान् अर्थात् मरुदेवी के पुत्र ऋषभ हम (भिक्षुओं) को तेजस्वी अन्न से तृप्त करे। जिस प्रकार धूप से पीडित व्यक्ति छाया का आश्रय लेता है उसी प्रकार मैं भी पाप रहित होकर कठोर साधक वृषभ के सुख को प्राप्त कर व उनकी सेवा करू अर्थात् निर्वाण लाभ प्राप्त करूँ ।
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