Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 748
________________ जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय I है किन्तु इस व्याख्या से बोटिक शब्द पर कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। मात्र बोटिकों के चरित्र के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। मेरी दृष्टि में प्राकृत के 'बोडिय' के स्थान पर 'वाडिय' शब्द होना चाहिए था जिसका संस्कृत रूप वाटिक होगा। 'वाटिक' शब्द का अर्थ वाटिका या उद्यान में रहने वाला है । विशेषावश्यकभाष्य में शिवभूति की कथा से स्पष्ट है कि बोटिक मुनि नग्न रहते थे, भिक्षादि प्रसंग को छोड़कर सामान्यतया ग्राम या नगर में प्रवेश नहीं करते थे और वे नगर के बाहर उद्यानों या वाटिकाओं में ही निवास करते थे१४ । अतः सम्भावना यह है कि वाटिका में निवास के कारण वे वाडिय या बाडिय कहे जाते होगें जो आगे चलकर 'बोडिय' हो गया। हमें कल्पसूत्र में वेसवाडिय (वैश्यवाटिक) उडुवाडिय (ऋतुवाटिक) आदि गणों के उल्लेख मिलते हैं। जिस प्रकार श्वेतपट प्राकृत में सेतपट> से अपड> से अअ सेवड़ा हो गया, उसी प्रकार सम्भवतः वाटिका वाडिया बाडिय बोडिय हो गया हो। आज भी मालव प्रदेश में उद्यान को बाडी कहा जाता है। इसी प्रसंग में मुझे मालवी बोली में प्रयुक्त 'बोडा' शब्द का भी स्मरण हो जाता है। गुजराती एवं मालवी में केशरहित मस्तक वाले व्यक्ति को 'बोडा' कहा जाता है। सम्भावना यह भी हो सकती है कि लुंचित केश होने से उन्हें 'बोडिय' कहा गया हो। शब्दों के रूप परिवर्तन की ये व्याख्याएं मैनें अपनी बुद्धयनुसार करने की चेष्टा की है। भाषाशास्त्र के विद्वानों से अपेक्षा है कि इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालें । प्रो० एम० ए० ढाकी बोटिक की मेरी इस व्याख्या से सहमत नहीं है । उनका कहना है कि 'बोटवु' शब्द आज भी गुजराती में भ्रष्ट या अपवित्र के अर्थ में प्रयुक्त होता है"। सम्भवतः यह देशीय शब्द हो और उस युग में भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता हो । अतः श्वेताम्बरों ने उन्हें साम्प्रदायिक अभिनिवेशवश 'बोडिय' कहा होगा। क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा उनके लिए मिथ्यादृष्टि, प्रभूततर विसंवादी, सर्वविसंवादी और सर्वापलापी जैसे अनादरसूचक शब्दों का प्रयोग कर रही थी। भोजपुरी और अवधी में बोरना या बूड़ना शब्द डूबने के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । व्यञ्जना से इसका अर्थ भी पतित या गिरा हुआ हो सकता है । 1 'बोडिय' शब्द की इन विभिन्न व्याख्याओं में मुझे प्रो० ढाकी की व्याख्या अधिक युक्तिसंगत लगती है क्योंकि इस व्याख्या से यापनीय और बोटिक शब्द पर्यायवाची भी बन जाते है यदि यापनीय का अर्थ तिरस्कृत या निष्कासित और बोटिक का अर्थ भ्रष्ट या पतित है, तो दोनों पर्यायवाची ही सिद्ध होते हैं। किन्तु हमें यह स्मरण रखना होगा कि ये दोनों नाम उन्हें साम्प्रदायिक दुरभिनिवेश के वश दिये गये हैं। जहाँ श्वेताम्बरों ने उन्हें बोडिय (बोटिक = भ्रष्ट) कहा, वहीं दिगम्बरों ने उन्हें यापनीय तिरस्कृत या निष्कासित कहा इनके लिए बोटिक शब्द का प्रयोग केवल श्तेताम्बर परम्परा के आगमिक व्याख्या अन्यों तक ही सीमित रहा है, इन ग्रन्थों के अतिरिक्त इस शब्द का प्रयोग अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है । Jain Education International ६१७ आगे चलकर इस वर्ग ने स्वयं अपने लिए 'यापनीय' शब्द को स्वीकार कर लिया होगा क्योंकि यापनीय शब्द की व्याख्या प्रशस्त अर्थ में भी सम्भव है। अभिलेखों में भी ये अपने को 'यापनीय' के रूप में ही अंकित करवाते थे। यापनीय संघ को उत्पत्ति यापनीय सम्प्रदाय कब उत्पन्न हुआ ? यह प्रश्न विचारणीय है । भगवान महावीर का धर्म संघ कब और किस प्रकार विभाजित होता गया इसके प्राचीनतम उल्लेख हमें कल्पसूत्र" और नन्दीसूत्र" की स्थविरावलियों में मिलता है। ये स्थविरावलियाँ स्पष्ट रूप से हमें यह बताती हैं कि यद्यपि महावीर का धर्मसंघ विभिन्न गणों में विभाजित हुआ और ये गण शाखाओं में, शाखायें कुल में और कुल सम्भोगों में विभाजित हुए फिर भी नन्दीसूत्र और कल्पसूत्र की स्थाविरावलियों में ऐसा कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है जिससे महावीर के धर्मसंघ के यापनीय, श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में विभाजित होने की कोई सूचना मिलती हो। इन दोनों स्थविरावलियों में भी कल्पसूत्र की स्थविरावली अपेक्षाकृत प्राचीन है, इसमें दो बार परिवर्धन हुआ है। अन्तिम परिर्वधन वीर निर्वाण सम्वत् ९८० अर्थात् ईसा की पाँचवीं शताब्दी का है। नन्दीसूत्र की स्थविरावली भी इसी काल की है किन्तु दोनों स्थविरावलियाँ स्थूलभद्र के शिष्यों से अलग हो जाती हैं। इनमें कल्पसूत्र की स्थविरावली का सम्बन्ध वाचक वंश से जोड़ा जाता है। सम्भवतः गणधरवंश संघ व्यवस्थापक आचार्यों की परम्परा (Administrative lineage) का सूचक है जबकि वाचक वंश उपाध्यायों या विद्यागुरुओं की परम्परा का सूचक है। वाचक वंश विद्यावंश है। यह विद्वान् जैनाचार्यों के नामों का कालक्रम से संकलन है। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियाँ अन्तिम रूप से देवर्धिगणि क्षमाश्रमण तक की परम्परा का वीरनिर्वाण से एक हजार वर्ष तक अर्थात् ई. पू. पाँचवीं शती से ईसा की पाँचवीं शती तक का उल्लेख करती हैं, फिर भी इसमें सम्प्रदाय भेद की कहीं चर्चा नहीं हैं, मात्र गणभेद आदि की चर्चा है। I श्वेताम्बर परम्परा के उपलब्ध आगमिक साहित्य स्थानाङ्ग और आवश्यकनियुक्ति में हमें सात निड़यों का उल्लेख मिलता है" (निह्नव वे हैं जो सैद्धान्तिक या दार्शनिक मान्यताओं के सन्दर्भ में मतभेद रखते हैं, किन्तु आचार और वंश वही रखते हैं ।) इन सात निह्नवों में कहीं भी बोटिक (बोडिय) जिन्हें सामान्यतया दिगम्बर मान लिया जाता है, किन्तु वस्तुतः जो यापनीय हैं, का उल्लेख नहीं है । बोटिक सम्प्रदाय का सर्वप्रथम उल्लेख आवश्यक मूलभाष्य की गाथा १४५ से १४८ तक में मिलता है। ये गाथायें हरिभद्र की आवश्यकनियुक्ति की टीका में नियुक्ति गाथा ७८३ के पश्चात् संकलित हैं । इस प्रकार श्वेताम्बर आगमिक साहित्य आवश्यक मूलभाष्य की रचना के पूर्व तक बोटिक, यापनीय एवं दिगम्बर परम्पराओं के सम्बन्ध में हमें कोई सूचना नहीं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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