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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ कलश नामक श्वेताम्बर साधु ने विक्रम की मृत्यु के २०५ वर्ष पश्चात् दूसरी शताब्दी में जैनमुनि वस्त्रखण्ड, पिच्छि या रजोहरण एवं पात्र कल्याण नगर में यापनीय संघ प्रारम्भ किया । ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में धारण करने लगे थे । हो सकता है छेदसूत्रों में वर्णित १४ उपकरण विस्तृत विवरण का अभाव है।
__ पूर्ण रूप से प्रचलित न भी हो पाये हों किन्तु इतना अवश्य है कि वस्त्र यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दूसरा कथानक खण्ड रखकर नग्नता छिपाने का प्रयत्न और भिक्षा पात्रों का प्रयोग होने रत्ननन्दी के भद्रबाहुचरित्र (ईसा की लगभग १५वीं शताब्दी में उपलब्ध लगा था। यह वस्त्रखण्ड सम्भवत: मुख वस्त्रिका के रूप में ग्रहण किया होता है.
जाता था, उसे हाथ की कलाई पर डालकर नग्नता को छिपा लिया करहाटक के राजा भूपाल की पत्नी नृकुलादेवी ने राजा से जाता था, विशेष रूप से जब भिक्षादि हेतु नगर में जाना होता था। आग्रह किया कि वे उसके पैतृक नगर जाकर वहाँ आये हुए आचार्यों शिवभूति का आर्यकृष्ण से इसी प्रश्न को लेकर विवाद हुआ होगा। को आने हेतु अनुनय करें । राजा ने नृकुलादेवी के निर्देशानुसार अपने जहाँ आवश्यकमूलभाष्य में आर्यकृष्ण और शिवभूति के मध्य गुरुमन्त्री बुद्धिसागर को भेजकर उन मुनियों से करहाटक पधारने की प्रार्थना शिष्य का सम्बन्ध बताया गया है, वहाँ कल्पसूत्र स्थविरावली में की। राजा के आमन्त्रण को स्वीकार कर वे मुनिगण करहाटक पधारे। शिवभूति को अज्ज दुज्जेन्त कण्ह के पहले दिखाया गया है। फिर भी उनके स्वागत हेतु जाने पर राजा ने देखा कि वे साधु सवस्त्र हैं और दोनों की समकालिकता में कहीं बाधा नहीं आती है । वस्तुत: विवाद उनके पास भिक्षा-पात्र और लाठी भी है । यह देखकर राजा ने उन्हें दोनों के बीच हुआ था इसमें कोई सन्देह नहीं है । श्वेताम्बर परम्परा में वापस लौटा दिया । नृकुला देवी को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने उन भी रत्नकम्बल प्रसङ्ग को लेकर जो कथानक खड़ा किया गया है वह मुनियों से दिगम्बर मुद्रा में पिच्छि-कमण्डलु लेकर पधारने का आग्रह मुझे प्रामाणिक नहीं लगता । वस्तुत: महावीर के पश्चात् उनके संघ में किया और उन्होंने तदनुरूप दिगम्बर मुद्रा धारण कर नगर प्रवेश किया। वस्त्र-पात्र ग्रहण करने का क्रमशः विकास हुआ है । क्षुल्लकों और इस प्रकार वे साधु वेष से तो दिगम्बर थे किन्तु उनके क्रिया-कलाप सदोजलिङ्ग वाले व्यक्तियों अथवा राज परिवार से आये व्यक्तियों के श्वेताम्बरों जैसे थे। यापनीय संघ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में रत्ननन्दी का लिए अपवादरूप में वस्त्र रखने की अनुमति पहले से ही थी किन्तु जिन यह कथन पूर्णतः प्रामाणिक नहीं है । यापनीयों की उत्पत्ति श्वेताम्बर कल्प का विच्छेद मानकर जब यह सामान्य नियम बनने लगा तो परम्परा से न होकर उस मूल धारा से हुई है जो श्वेताम्बर परम्परा की शिवभूति ने इसका विरोध कर अचेलता को ही उत्सर्ग मार्ग स्थापित पूर्वज थी, जिससे काल-क्रम में वर्तमान श्वेताम्बर धारा का विकास हुआ करने का प्रयत्न किया । उनके पूर्व भी आर्यरक्षित को अपने पिता जो है । वस्तुत: महावीर के धर्मसंघ में जब वस्त्र-पात्र आदि में वृद्धि होने उनके ही संघ में दीक्षित हो गये थे, नग्नता धारण करवाने हेतु विशेष लगी थी और अचेलकत्व-प्रतिष्ठा क्षीण होने लगी, उससे अचेलता के प्रयत्न करना पड़ा था क्योंकि वे अपने परिजनों के समक्ष नग्न नहीं पक्षधर यापनीय और सचेलता के पक्षधर श्वेताम्बर ऐसी दो धारायें रहना चाहते थे । यद्यपि इन्हीं आर्यरक्षित ने भिक्षा पात्र के अतिरिक्त निकलीं। पुनः यापनीय सम्प्रदाय का जन्म दक्षिण में न होकर उत्तर वर्षाकाल में मल-मूत्र आदि के लिए एक अतिरिक्त पात्र रखे जाने की भारत में हुआ । यापनीयों ने जब दक्षिण भारत में प्रवेश किया होगा तब अनुमति भी दी थी । महावीर के काल से ही निर्ग्रन्थ संघ में नग्नता का वे श्वेताम्बर साधु का वेश लेकर गये थे । यह एक भ्रान्त धारणा ही है। एकान्त आग्रह तो नहीं था किन्तु उसे अपवाद के रूप में तो स्वीकृत उनके कथन में मात्र इतनी ही सत्यता हो सकती है कि यापनीयों के किया ही गया था। किन्तु जब जिनकल्प को विच्छिन्न मानकर अचेलता आचार-विचार में कुछ बातें श्वेताम्बर परम्परा के समान और कुछ बातें के अपवाद को ही उत्सर्ग मानकर नग्नता को छिपाने के लिए वस्त्रदक्षिण में उपस्थित दिगम्बर परम्परा के समान थीं।
खण्ड रखना अनिवार्य किया होगा तो शिवभूति को अचेलता को ही इन्द्रनन्दी के 'नीतिसार' में यद्यपि यापनीयों की उत्पत्ति-कथा उत्सर्ग मार्ग के रूप में स्वीकार करने के लिए संघर्ष करना पड़ा। नहीं दी गई है किन्तु पाँच प्रकार के जैनाभासों की चर्चा करते हुए उसमें उन्होंने जिनकल्प को विच्छिन्न न मानकर समर्थ के लिए अचेलता और उन्होंने यापनीयों का भी उल्लेख किया है - गोपुच्छिक श्वेतवासा, पाणीतल भोजी होना आवश्यक माना । आपवादिक स्थिति में वस्त्र-पात्र द्रविड़, यापनीय और नि:पिच्छक २ ।
से उनका विरोध नहीं था । भगवतीआराधना में हमें उनके इसी दृष्टिकोण इन्द्रनन्दी के उपर्युक्त कथन से मात्र इतना ही फलित होता है का समर्थन मिलता है । यद्यपि यह कहना अत्यन्त कठिन है कि उनके कि यापनीय परम्परा इन्द्रनन्दी की मूलसंघीय दिगम्बर परम्परा से भिन्न द्वारा अचेलकत्व के पुनर्स्थापन के इस प्रयास से स्पष्ट रूप से संघ भेद थी, वे उन्हें जैनाभास मानते थे अर्थात् उनकी दृष्टि में यापनीय जैनधर्म हो गया था क्योंकि कल्पसूत्र की पट्टावली में जो अन्तिम परिवर्धन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं । वस्तुत: यापनीय संघ की उत्पत्ति और देवर्द्धिगणि के समय पाँचवीं शताब्दी में हुआ उसकी पहली गाथा में स्वरूप सम्बन्धी जो कथानक मिलते हैं वे सभी विरोधियों द्वारा प्रस्तुत गौतम गोत्रीय फल्गुमित्र, वशिष्ठ गोत्रीय धनगिरि, कोत्स गोत्रीय शिवभूति हैं और संघ की यथार्थ स्थिति से अवगत नहीं कराते हैं । यापनीय संघ और कौशिक गोत्रीय दोष्यन्त या दुर्जयन्त कृष्ण का नामोल्लेख है । की उत्पत्ति के सम्बन्ध में मेरा चिन्तन इस प्रकार है -मथुरा के अङ्कनों यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि इसमें शिवभूति के पश्चात् आर्यकृष्ण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यकृष्ण के समय अर्थात् विक्रम की का उल्लेख है जबकि आवश्यकमूलभाष्य में शिवभूति को आर्यकृष्ण
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