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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्रयोग करने लगे। यापनीय पुन्नागवृक्ष मूलगण के सन् ११०८ के ऐसा लगता है कि दक्षिण में इनमें से निर्ग्रन्थ संघ प्राचीन है और यापनीय, अभिलेख में '... श्रीमूलसंघद पो (पु) नाग वृक्षमूल गणद..' ऐसा कुर्चक, श्वेतपट आदि संघ परवर्ती हैं, फिर भी मेरी दृष्टि में निम्रन्थ संघ उल्लेख है। इसी प्रकार यापनीय संघ के काणूर गण के ई. सन् को मूलसंघ नहीं कहा जा सकता है। दक्षिण भारत का यह निर्ग्रन्थ १०७४ के बन्दलिके के तथा ई. सन् १०७५ के कुप्पटू के अभिलेख महाश्रमण संघ भद्रबाहु (प्रथम) की परम्परा के उन अचेल श्रमणों का संघ में 'श्री मूलसंघान्वय क्राणूरग्गण' ऐसा उल्लेख है। इस सब से भी था जो ईसा पूर्व तीसरी शती में बिहार से उड़ीसा के रास्ते लंका और यही फलित होता है कि इस काल में यापनीय भी अपने को मूलसंघीय तमिल प्रदेश में पहुंचे थे। उस समय उत्तर भारत में जैन संघ इसी नाम कहने लगे थे।
से जाना जाता था और उसमें गण, शाखा का विभाजन नहीं हुआ था, यापनीय गणों के साथ मूलसंघ के इन उल्लेखों को देखकर अत: ये श्रमण भी अपने को इसी 'निर्ग्रन्थ' नाम से अभिहित करते रहे। डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी आदि दिगम्बर विद्वान यह कल्पना कर बैठे कि पुन: उन्हें अपने को मूलसंघी कहने की कोई आवश्यकता भी नहीं थी ये गण यापनीय संघ से अलग होकर मूलसंघ द्वारा आत्मसात कर लिये क्योंकि वहां तब उनका कोई प्रतिद्वन्द्वी भी नहीं था। यह निर्ग्रन्थसंघ गये थे। किन्तु उनकी यह अवधारणा समुचित नहीं है क्योंकि इन यापनीय, कूर्चक और श्वेतपट्ट संघ से पृथक था, यह तथ्य भी हल्सी और अभिलेखों के समकालीन और परवर्ती अनेक ऐसे अभिलेख हैं जिनमें देवगिरि के अभिलेखों से सिद्ध है क्योंकि इनमें उसे इनसे पृथक दिखलाया इन गणों का यापनीय संघ के गण के रूप में स्पष्ट उल्लेख है। सत्य तो गया है और तब तक इसका निर्ग्रन्थ संघ नाम सुप्रचलित था। पुन: जब यह है कि जब कुन्दकुन्दान्वय ने मूलसंघ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर लगभग १०० वर्ष के पश्चात् के अभिलेखों में भी यह निर्ग्रन्थसंघ के नाम अन्य संघों को जैनाभास और मिथ्यात्वी घोषित किया, (इन्द्रनन्दिकृत से ही सुप्रसिद्ध है तो पूर्व में यह अपने को 'मूलसंघ' कहता होगा। यह श्रुतावतार से इस तथ्य की पुष्टि होती है) तो प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरों कल्पना निराधार है। ने भी अपने को मूलसंघी कहना प्रारम्भ कर दिया। ग्यारहवीं शती के अपने को मूलसंघ कहने की आवश्यकता उसी परम्परा को हो उत्तरार्ध में अचेल परम्परा के यापनीय, द्राविड आदि अनेक संघ अपने सकती है जिसमें कोई विभाजन हुआ हो, जो दूसरे को निर्मूल या निराधार साथ मूलसंघ का उल्लेख करने लगे थे जबकि इन्द्रनन्दि ने इन सभी को बताना चाहती हो; यह बात पं० नाथुराम जी प्रेमी ने भी स्वीकार की है। जैनाभास कहा था।
यह विभाजन की घटना उत्तर भारत में तब घटित हुई जब लगभग ईसा इसका तात्पर्य यही है कि ग्यारहवीं शताब्दी में अपने को की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ अचेल और मूलसंघी कहने की एक होड लगी हुई थी। यदि इन तथ्यों के प्रकाश में सचेल धारा में विभक्त हुआ। साथ ही उसकी अचेल धारा को अपने लिये हम मथुरा के उक्त श्वेताम्बर मूलसंघ का उल्लेख करने वाले अभिलेख एक नये नाम की आवश्यकता प्रतीत हुई। उस समय तक उत्तर भारत पर विचार करें तो यह पाते है कि उक्त अभिलेख भी अचेल परम्परा के का निम्रन्थ संघ अनेक गुणों, शाखाओं और कुलों में विभक्त था- यह विविध सम्प्रदायों के साथ मूलसंघ का उल्लेख होने के लगभग ६० वर्ष तथ्य मथुरा के अनेक अभिलेखों से और कल्पसूत्र की स्थविरावली से पूर्व का है अर्थात् उसी काल का है। अतः सम्भव है कि उस युग के विविध सिद्ध है। अत: सम्भावना यही है कि उत्तर भारत की इस अचेल धारा अचेल परम्पराओं के समान ही सचेलपरम्परा भी अपने को मूलसंघ से ने अपनी पहचान के लिये 'मूलगण' नाम चुना हो क्योंकि इस धारा को जोड़ती हो।
बोटिक और यापनीय-ये दोनों ही नाम दूसरों के द्वारा ही दिये गये हैं, मूलसंघ प्रारम्भ में किस प्ररम्परा से सम्बद्ध था और कब दूसरी जहाँ श्वेताम्बरों अर्थात् उत्तर भारत की सचेल धारा ने उन्हें बोटिक कहा, परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोड़ना प्रारम्भ किया-इसे समझने के वहीं दिगम्बरों अर्थात् दक्षिण भारत की निर्ग्रन्थ अचेल धारा ने उन्हें लिये हमें सर्वप्रथम मूलसंघ के इतिहास को जानना होगा। सर्वप्रथम हमें यापनीय कहा। डॉ गुलाब चन्द चौधरी ने जो यह कल्पना की कि दक्षिण दक्षिण भारत में नोणमंगल की ताम्रपट्टिाकाओं पर 'मूलसंघानुष्ठिताय' एवं में निर्ग्रन्थ संघ की स्थापना भद्रबाहु द्वितीय की, मुझे निराधार प्रतीत होती 'मूलसंघेनानुष्ठिताय' ऐसे उल्लेख मिलते हैं। ये दोनों ताम्रपट्टिकायें है१०। दक्षिण भारत का निर्ग्रन्थ संघ तो भद्रबाहु प्रथम की परम्परा का क्रमश: लगभग ईस्वी सन् ३७० और ई. सन् ४२५ की मानी जाती प्रतिनिधि है- चाहे भद्रबाहु प्रथम दक्षिण गये हों या नहीं गये हों किन्तु हैं। किन्तु इनमें निर्ग्रन्थ, कूर्चक, यापनीय या श्वेतपट आदि के नामों का उनकी परम्परा ईसा पू० तीसरी शती में दक्षिण भारत में पहुंच चुकी थी, उल्लेख नहीं होने से प्रथम दृष्टि में यह कह पाना कठिन है कि इस मूलसंघ इसके अनेक प्रमाण भी हैं। भद्रबाहु प्रथम के पश्चात् लगभग द्वितीय शती का सम्बन्ध उनमें से किस धारा से था। दक्षिण भारत के देवगिरि और में एक आर्य भद्र हुए हैं जो नियुक्तियों के कर्ता थे और सम्भवतः ये उत्तर हल्सी के अभिलेखों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि ईसा की पांचवी भारत के अचेल पक्ष के समर्थक रहे थे, उनके नाम से भद्रान्वय प्रचलित शती के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत में निर्ग्रन्थ, यापनीय, कूर्चक और श्वेतपट हुई जिसका उल्लेख उदयगिरि (विदिशा) में मिलता है११। मेरी दृष्टि में महाश्रमण संघ का अस्तित्व था। किन्तु मूलसंघ का उल्लेख तो हमें ईसा मूलगण भद्रान्वय, आर्यकुल आदि का सम्बन्ध इसी उत्तर भारत की अचेल की चतुर्थशती के उत्तरार्ध में मिल जाता है अत: अभिलेखीय आधार पर धारा से है जो आगे चलकर यापनीय नाम से प्रसिद्ध हुई। दक्षिण में पहुंचने मूलसंघ का अस्तित्व यापनीय, कूर्चक आदि नामों के पूर्व का है। मुझे पर यह धारा अपने को मूलगण या मूलसंघ कहने लगी। यह आगे चलकर
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