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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
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इस लेख के अंत में मैं विद्वानों से अपेक्षा करूँगा कि श्वेताम्बर ४. जैन शिलालेख संग्रह, भाग-२, मणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला माथुर संघ के सम्बन्ध में यदि उन्हें कोई जानकारी हो तो मुझे अवगत समिति, सं० ४५, हीराबाग, बम्बई ४, प्र०सं० १९५२ करायें ताकि हम इस लेख को और अधिक प्रमाण पुरस्सर बना सकें। लेखक्रमांक
१८०। संदर्भ
५. जैन शिलालेख संग्रह, भाग २, लेखक्रमांक १७८। १. (अ) सं० प्रो० ढाकी, प्रो० सागरमल जैन, ऐस्पेक्ट्स आव ६. वही, " " २५०।
जैनालाजी, खण्ड-२, (पं० बेचरदास स्मृति ग्रन्थ) हिन्दी विभाग, ७. वही, जैनसाहित्य में स्तूप- प्रो० सागरमल, पृ० १३७-८। ८. वही, भाग ३, भूमिका, पृ० २६ व ३२।
(ब) विविधतीर्थकल्प- जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्प। ९. जैन शिलालेख सं, भाग २, लेखक्रमांक ९० व ९४। २. अर्हत् वचन, वर्ष ४, अंक १, जनवरी ९२, पृ० १० १०. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, भूमिका, पृ० २३। ३. (अ) विविधतीर्थकल्प- जिनप्रभसूरि, मथुरापुरी कल्प। ११. वही, भाग २, लेखक्रमांक ७९१।
(ब) प्रभावकचरित, प्रभाचन्द्र, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, पृ० सं० १२. वही, लेखक्रमांक १२२ एवं १२३ (मन्ने का ताम्रपत्र)। १३, कलकत्ता, प्र०सं० १९४०, पृ० ८८-१११।
ऋग्वेद में अर्हत् और ऋषभवाची ऋचायें : एक अध्ययन
भारतीय संस्कृति श्रमण और ब्राह्मण संस्कृतियों का है। साथ ही मोहनजोदड़ो के उत्खनन् से वृषभ युक्त ध्यान मुद्रा में योगियों समन्वित रूप है। जहाँ श्रमण संस्कृति तप-त्याग एवं ध्यान साधना की सीलें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण है कि ऋग्वेद के रचनाकाल के पूर्व प्रधान रही है, वहाँ ब्राह्मण संस्कृति यज्ञ-याग मूलक एवं कर्मकाण्डात्मक भी भारत में श्रमण धारा का न केवल अस्तित्व था, अपितु वही एक मात्र रही है। हम श्रमण संस्कृति को आध्यात्मिक एवं निवृत्तिपरक अर्थात् प्रमुख धारा थी। क्योंकि मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में कहीं संन्यासमूलक भी कह सकते हैं, जबकि ब्राह्मण संस्कृति को सामाजिक भी यज्ञवेदी उपलब्ध नहीं हुई है, इससे यही सिद्ध होता है कि भारत एवं प्रवृत्तिमूलक कहा जा सकता है। इन दोनों संस्कृतियों के मूल में तप एवं ध्यान प्रधान आहेत परम्परा का अस्तित्व अति प्राचीन काल आधार तो मानव-प्रकृति में निहित वासना और विवेक अथवा भोग से ही रहा है। और योग (संयम) के तत्त्व ही हैं जिनकी स्वतन्त्र चर्चा हमने अपने यदि हम जैन धर्म के प्राचीन नामों के सन्दर्भ में विचार करें ग्रन्थ 'जैन, बौद्ध एवं गीता का साधना मार्ग' की भूमिका में की है। तो यह सुस्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह आर्हत धर्म के नाम से ही प्रसिद्ध यहाँ पर इन दोनों संस्कृतियों के विकास के मूल उपादानों एवं उनके रहा है। वास्तविकता तो यह है कि जैन धर्म का पूर्व रूप आर्हत धर्म था। क्रम तथा वैशिष्टय की चर्चा में न जाकर उनके ऐतिहासिक अस्तित्व ज्ञातव्य है कि जैन-शब्द महावीर के निर्वाण के लगभग १००० वर्ष पश्चात् को ही अपनी विवेचना का मूल आधार बनायेंगे।
ही कभी अस्तित्व में आया है। सातवीं शती से पूर्व हमें कहीं भी जैन भारतीय संस्कृति के इतिहास को जानने के लिये प्राचीनतम शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि इसकी अपेक्षा 'जिन' व 'जिनसाहित्यिक स्त्रोत के रूप में वेद और प्राचीनतम पुरातात्विक स्त्रोत के रूप धम्म' के उल्लेख प्राचीन हैं। किन्तु अर्हत्, श्रमण, जिन आदि शब्द बौद्धों में मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा के अवशेष ही हमारे आधार हैं। संयोग से एवं अन्य श्रमण धाराओं में भी सामान्यरूप से प्रचलित रहे हैं। अत: जैन इन दोनों ही आधारों या साक्ष्यों से भारतीय श्रमण धारा के अति प्राचीन परम्परा की उनसे पृथकता की दृष्टि से पार्श्व के काल में यह धर्म निर्ग्रन्थधर्म काल में भी उपस्थित होने के संकेत मिलते हैं। ऋग्वेद भारतीय साहित्य के नाम से जाना जाता था। जैन आगमों से यह ज्ञात होता है कि ई.पू. का प्राचीनतम ग्रन्थ है। यद्यपि इसकी अति प्राचीनता के अनेक दावे किये पाचवीं शती में श्रमण धारा मुख्य रूप से ५ भागों में विभक्त थीं-१. जाते हैं और मीमांसक दर्शनधारा के विद्वान तो इसे अनादि और निर्ग्रन्थ, २. शाक्य, ३. तापस ४. गैरूक और ५. आजीवकर। वस्तुत: अपौरुषेय भी मानते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि ईस्वी पूर्व १५०० जब श्रमण धारा विभिन्न वर्गों में विभाजित होने लगी तो जैन धारा के वर्ष पहले यह अपने वर्तमान स्वरूप में अस्तित्व में आ चुका था। इस लिए पहले 'निर्ग्रन्थ' और बाद में 'ज्ञातपुत्रीय श्रमण' शब्द का प्रयोग होने प्राचीनतम ग्रन्थ में हमें श्रमण संस्कृति के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध लगा। न केवल पाली त्रिपिटक एवं जैन आगमों में अपितु अशोक (ई.पू.होते हैं। वैदिक साहित्य में भारतीय संस्कृति की इन श्रमण और ब्राह्मण ३ शती) के शिलालेखों में भी जैनधर्म का उल्लेख निर्ग्रन्थ धर्म के रूप धाराओं का निर्देश क्रमश: आर्हत और बार्हत धाराओं के रूप में मिलता में ही मिलता है।
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