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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ नेता है, उन पूज्य वीर-मरूतों के लिए यज्ञ करो और उनकी पूजा करो। तीर्थंकर ऋषभदेव का वाची मानते हैं। जैन विद्वानों ने ऋषभदेव की चर्चा
हम प्रस्तुत ऋचा की भी जैन दृष्टि से निम्न व्याख्या कर के सन्दर्भ में ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद आदि की अनेक ऋचाएँ प्रस्तुत सकते हैं
भी की हैं और उनका जैन संस्कृति अनुसारी अर्थ करने का भी प्रयत्न जो दानवीर, तेजस्वी, सम्पूर्ण वीर्य से युक्त, नर श्रेष्ठ किया है। प्रस्तुत निबन्ध में मैंने भी एक ऐसा ही प्रयत्न किया है। किन्तु अर्हन्त हैं, वे याज्ञिकों के लिए यजन के और मरुतों के लिए अर्चना ऐसा दावा मैं नही करता हूँ कि यही एक मात्र विकल्प है। मेरा कथ्य मात्र के विषय हैं।
यह है कि उन ऋचाओं के अनेक सम्भावित अर्थों में यह भी एक अर्थ इसी प्रकार से अर्हन् शब्द वाची अन्य ऋचाओं की भी जैन हो सकता है, इससे अधिक सुनिश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता दृष्टि से व्याख्या की जा सकती है। वैदिक ऋचाओं की व्याख्याओं के है। ऋग्वेद में प्रयुक्त शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में हमें पर्याप्त सतर्कता एवं साथ कठिनाई यह है कि उनकी शब्दानुसारी सरल व्याख्या सम्भव नहीं सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि जहाँ तक वैदिक ऋचाओं का प्रश्न है होती है, लक्षणा प्रधान व्याख्या ही करनी होती है। अत: उन्हें अनेक उनका अर्थ करना एक कठिन कार्य है। अधिक क्या कहें, सायण जैसे द्रष्टियों से व्याख्यायित किया जा सकता है।
भाष्यकारों ने भी ऋग्वेद के १० वें मण्डल के १०६ वें सूक्त के ग्यारह ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप से श्रमण परम्परा और विशेष मन्त्रों की व्याख्या करने में असमर्थता प्रकट की है। मात्र इतना ही नहीं, रूप से जैन परम्परा से सम्बन्धित अर्हन, अर्हन्त, व्रात्य, वातरशनामुनि, कुछ अन्य मन्त्रों के सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि इन मन्त्रों से कुछ भी श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, अपितु उसमें आर्हत परम्परा अर्थ बोध नहीं होता है। कठिनाई यह है कि सायण एवं महिधर के भाष्यों के उपास्य वृषभ का भी शताधिक बार उल्लेख हुआ है। मुझे ऋग्वेद में और ऋग्वेद के रचना काल में पर्याप्त अन्तर है। जो ग्रन्थ ईसा से १५०० वृषभ वाची ११२ ऋचाएँ उपलब्ध हुई हैं। सम्भवत: कुछ और ऋचाएँ वर्ष पूर्व कभी बना हो, उसका ईसा की १५ वीं शती में अर्थ करना कठिन भी मिल सकती हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि इन समस्त ऋचाओं कार्य है क्योंकि इसमें न केवल भाषा की कठिनाई होती है, अपितु शब्दों में प्रयुक्त 'बृषभ' शब्द ऋषभदेव का ही वाची है। फिर भी कुछ ऋचाएँ के रूढ़ अर्थ भी पर्याप्त रूप से बदल चुके होते हैं। वस्तुत: वैदिक ऋचाओं तो अवश्य ही ऋषभदेव से सम्बन्धित मानी सकती हैं। डॉ. राधाकृष्णन, को उनके भौगोलिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझे बिना उनका जो प्रो. जीमर, प्रो. वीरपाक्ष वाडियर आदि कुछ जैनेतर विद्वान भी इस मत अर्थ किया जाता है, वह ऋचाओं में प्रकट मूल भावों के कितना निकट के प्रतिपादक हैं कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से होगा, यह कहना कठिन है। स्कन्दस्वामी, सायण एवं महिधर के बाद सम्बन्धित निर्देश उपलब्ध होते हैं१°। आर्हत धारा के आदि पुरुष के रूप स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक मन्त्रों की अपनी दृष्टि से व्याख्या में ऋषभ का नाम सामान्य रूप से स्वीकृत रहा है, क्योंकि हिन्दू पुराणों करने का प्रयत्न किया है। यदि हम सायण और दयानन्द की व्याख्याओं एवं बौद्ध ग्रन्थों से भी इसकी पुष्टि होती है। जैनों ने उन्हें अपना आदि को देखें, तो यह स्पष्ट होता है कि सायण एवं दयानन्द की व्याख्याओं तीर्थकर माना है। इतना सुनिश्चित है कि ऋषभदेव भारतीय संस्कृति की में बहुत अन्तर है। ऋग्वेद में जिन-जिन ऋचाओं में वृषभ शब्द आया निवृत्तिप्रधान धारा के प्रथम पुरुष हैं। हिन्दू परम्परा में जो अवतारों की है, वे सभी ऋचाएँ ऐसी हैं कि उन्हें अनेक दृष्टियों से व्याख्यायित चर्चा है, उसमें ऋषभ का क्रम ८वाँ है, किन्तु यदि मानवीय रूप में अवतार किया जा सकता है। की दृष्टि से विचार करें तो लगता है कि वे ही प्रथम मानवावतार थे। यद्यपि मूल समस्या तो यह है कि वैदिक ऋचाओं का शब्दिक अर्थ ऋषभ की अवतार रूप में स्वीकृति हमें सर्वप्रथम पुराण साहित्य में ग्रहण करें या लाक्षणिक अर्थ। जहाँ तक वृषभ सम्बन्धी ऋचाओं के अर्थ विशेषत: भागवत पुराण में मिलती है जो कि परवर्ती ग्रन्थ है। किन्तु इतना का प्रश्न है, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि उनका शब्दानुसारी अर्थ निश्चित है कि श्रीमद्भागवत में श्रषभ का जिस रूप में प्रस्तुतिकरण है, करने पर न तो जैन मन्तव्य की पुष्टि होती है और न आर्यसमाज के मन्तव्यों वह उन्हें निवृत्तिप्रधान श्रमण संस्कृति का आदि पुरुष सिद्ध करता है११॥ की पुष्टि होगी, न ही उनसे किसी विशिष्ट दार्शनिक चिन्तन का अवबोध श्रीमद्भागवत पुराण के अतिरिक्त लिंगपुराण, शिवपुरण, आग्नेयपुराण, होता है। यद्यपि वैदिक मन्त्रों के अर्थ के लिए सर्वप्रथम यास्क ने एक ब्रह्मांडपुराण, विष्णुपुराण, कूर्मपुराण, वराहपुराण और स्कन्ध पुराण में प्रयत्न किया था किन्तु उसके निरुक्त में ही यह भी स्पष्ट रूप से उल्लिखित भी ऋषभ का उल्लेख एक धर्म प्रवर्तक के रूप में हुआ है,१२ यद्यपि है कि उस समय भी कोत्स आदि आचार्य ऐसे थे, जो मानते थे कि वेदों प्रस्तुत निबन्ध में हम ऋग्वेद में उपलब्ध वृषभ वाची ऋचाओं की ही चर्चा के मन्त्र निरर्थक हैं१८। यद्यपि हम इस मत से सहमत नहीं हो सकते। तक अपने को सीमित करेंगे।
वस्तुत: वैदिक मन्त्र एक सहज स्वाभाविक मानवीय भावनाओं की ऋग्वेद में 'वृषभ' शब्द का प्रयोग किन-किन सन्दर्भो में हुआ अभिव्यक्ति हैं किन्तु ऐसा मानने पर वेदों के प्रति जिस आदर भाव या है, यह अभी भी एक गहन शोध का विषय है। जहाँ एक ओर अधिकांश उनकी महत्ता की बात है वह क्षीण हो जाती है। यही कारण है कि स्वामी वैदिक विद्वान व भाष्यकार ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ (ऋषभ) शब्द का अर्थ दयानन्द आदि ने वेदों में रहस्यात्मकता व लाक्षणिकता को प्रमुख माना बैल१३, बलवान१४, उत्तम् श्रेष्ठ १५ वर्षा करने वाला१६, कामनाओं की और उसी आधार पर मन्त्रों की व्याख्यायें की। अत: सबसे प्रथम यह पूर्ति करने वाला१७ आदि करते हैं, वहीं जैन विद्वान उसे अपने प्रथम विचारणीय है कि क्या वेद मन्त्रों की व्याख्या उन्हें रहस्यात्मक व लाक्षणिक
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