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जैन धर्म का एक विलुप्त सम्प्रदाय यापनीय
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इसी प्रकार मोरब जिला धारवाड के एक लेख में यापनीय संघ के जय कीर्तिदेव के शिष्य नागचन्द्र के समाधिमरण का उल्लेख है। इसमें नागचन्द्र के शिष्य कनकशक्ति को मन्त्रचूडामणि बताया गया है । ६° सन् १०९६ में त्रिभुवनमल्ल के शासनकाल में यापनीय संघ के पुन्नागवृक्ष मूलगण के मुनिचन्द्र त्रैविद्य भट्टारक के शिष्य चारुकीर्ति पंडित को सोविसेट्टि द्वारा एक उपवन दान दिये जाने का उल्लेख है । ११ इस दानपत्र में यह भी उल्लेख है कि इसे मुनिचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य दायियय्य ने लिपिबद्ध किया था। धर्मपुरी जिला बीड़, महाराष्ट्र के एक लेख में यापनीय संघ और वन्दियूर गण के महावीर पंडित को कुछ नगरों से विविधकरों द्वारा प्राप्त आय का कुछ भाग भगवान् की पूजा और साधुओं के भरण-पोषण हेतु दान दिये जाने का उल्लेख है।" इसी प्रकार ११ वीं शताब्दी के एक अन्य अभिलेख में यापनीय संघ की माइलायान्वय एवं कोरेयगण के देवकीर्ति को गन्धवंशी शिवकुमार द्वारा जैन मन्दिर निर्मित करवाने और उसकी व्यवस्था हेतु कुमुदवाड नामक ग्राम दान में देने का उल्लेख है । इस अभिलेख में देवकीर्ति के पूर्वज गुरुओं में शुभकीर्ति, जिनचन्द्र, नागचन्द्र, गुणकीर्ति आदि आचार्यों का भी उल्लेख है । इसी प्रकार बल्लाल देव, गणधरादित्य के समय में ईसवी सन् १९०८ में मूलसंघ पुन्नागवृक्ष मूलगण की आर्यिका रात्रिमती कन्ति की शिष्या बम्मगवुड़ द्वारा मन्दिर बनवाने का उल्लेख है। यहाँ मूलसंघ का उल्लेख कुछ प्रान्ति उत्पन्न करता है, यद्यपि पुत्रागवृक्षमूल गण के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि वह आर्यिका यापनीय संघ से ही सम्बन्धित थी क्योंकि पुन्नागवृक्षमूलगण यापनीय संघ का ही एक गण था ।
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बइलमोंगल जिला बेलगाँव से चालुक्यवंशी त्रिभुवन मल्लदेव के काल का अभिलेख६५ प्राप्त है इसमें यापनीय संघ मइलायान्वय कारेय गण के मूल भट्टारक और जिनदेव सूरि का विशेष रूप से उल्लेख है । इसी प्रकार विक्रमादित्य षष्ठ के शासन काल का हूलि जिला बेलगाँव का एक अभिलेख है जिसमें यापनीय संघ के कण्डुरगण के बहुबली शुभचन्द्र, मौनिदेव, माघनंदि आदि आचार्यों का उल्लेख है। एकसम्बि जिला बेलगाँव से प्राप्त एक अभिलेख में विजयादित्य के सेनापति कालण द्वारा निर्मित नेमिनाथ बसति के लिए यापनीय संघ पुन्नागवृक्षमूलगण के महामण्डलाचार्य विजयकीर्ति को भूमिदान दिये जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख में इन विजयकीर्ति की गुरुपरम्परा के रूप में मुनिचन्द्र विजयकीर्ति प्रथम कुमारकीर्ति और त्रैविद्य विजयकीर्ति का भी उल्लेख हुआ है।
अर्सिकेरे, मैसूर के एक अभिलेख" में यापनीय संघ के मडुवगण की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। इस मन्दिर की मूर्ति प्रतिष्ठा पुन्नागवृक्ष - मूलगण और संघ ( यापनीय के शिष्य भाणकसेली) द्वारा कराई गई थी। प्रतिष्ठाचार्य यापनीय संघ के मडुवगण के कुमारकीर्ति सिद्धान्त थे । इस अभिलेख में यापनीय शब्द को मिटाकर काष्ठामुख शब्द को जोड़ने की घटना की सूचना भी सम्पादक से मिलती है। इनके अतिरिक्त १२वीं शताब्दी में लोकापुर जिला बेलगाँव के एक
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अभिलेख में उभय सिद्धान्त चक्रवर्ती यापनीय संघ के कण्डूंरगण के गुरु सकलेन्दु सैद्धान्तिक का उल्लेख है। इसी क्षेत्र के मनोलि जिला बेलगाँव के एक अभिलेख में यापनीय संघ के गुरु मुनिचन्द्रदेव के शिष्य पाल्य कीर्ति के समाधिमरण का उल्लेख है७० - ये पाल्यकीर्ति सम्भवतः सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाल्यकीर्ति शाकाटायन ही हैं, जिनके द्वारा लिखित शब्दानुमान एवं उसकी अमोघवृत्ति प्रसिद्ध है । इनके द्वारा लिखित स्त्री निर्वाण और केवली मुक्ति प्रकरण भी शाकटायन-व्याकरण के साथ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हुए हैं। इससे स्पष्ट है कि ये यापनीय परम्परा के आचार्य थे । इसी प्रकार १३वीं शदी के हुकेरि जिला बेलगांव के एक अभिलेख में त्रैकीर्ति का नामोल्लेख मिलता है। यापनीय संघ का अन्तिम अभिलेख ईसवी सन् १३९४ का कगवाड जिला बेलगाँव में उपलब्ध हुआ है। यह अभिलेख तलघर में स्थित भगवान् नेमिनाथ की पीठिका पर अंकित है। इस पर वापनीय संघ और पुन्नागवृक्षमूलगण के नेमिचन्द्र, धर्मकीर्ति और नागचन्द्र का उल्लेख हुआ I
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यापनीय संघ के अवान्तर गण और अन्वय
अभिलेखीय एवं साहित्यिक आधारों से हमें यापनीय संघ के अवान्तर गणों और अन्वयों की सूचना मिलती है । इन्द्रनंदि के नीतिसार के आधार पर प्रो० उपाध्ये लिखते हैं कि यापनीयों में सिंह, नन्दि सेन और देवसंघ आदि नाम से सबसे पहले संघ व्यवस्था थी, बाद में गण, गच्छ आदि की व्यवस्था बनीं |७३ किन्तु अभिलेखीय सूचनाओं से यह ज्ञात होता है कि गण ही आगे चलकर संघ में परिवर्तित हो गए । कदम्ब नरेश रविवर्मा के हल्सी अभिलेख में यापनीय संघेभ्यः ऐसा बहुवचनात्मक प्रयोग है । ७४ इससे यह सिद्ध होता है कि यापनीय संघ के अन्तर्गत भी कुछ संघ या गण थे। यापनीय संघ के एक अभिलेख में 'यापनीय नन्दीसंघ" ऐसा उल्लेख मिलता है । ७५ ऐसा प्रतीत होता है कि नंदि संघ यापनीय परम्परा का ही एक संघ था। कुछ अभिलेखों में यापनीयों के नंदिगच्छ का भी उल्लेख उपलब्ध होता है। दिगम्बर परम्परा के अभिलेखों में गच्छ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता, सामान्यतया उनमें संघ, गण और अन्वय के प्रयोग पाये जाते हैं। जबकि श्वेताम्बर परम्परा के अभिलेखों में गण, गच्छ, शाखा, कुल और संभोग के प्रयोग हुए हैं। यापनीय संघ के अभिलेखों में भी केवल उपर्युक्त अभिलेख में गच्छ शब्द का प्रयोग मिला है।
यापनीयसंघ के जिन गणों, अन्वयों का उल्लेख मिला हैउनमें पुन्नागवृक्षमूलगण, कुमिलि अथवा कुमुदिगण मडुवगण, कण्डूरगण, या काणूरगण, बन्दियूर गण, कोरेय गण का उल्लेख प्रमुख रूप से हुआ है । ७७ सामान्यतया यापनीय संघ से सम्बन्धित अभिलेखों में अन्वयों का उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु ११वीं शताब्दी के कुछ अभिलेखों में कोरेयगण के साथ मइलायान्वय अथवा मैलान्वय के उल्लेख मिलते हैं।
इन गणों और अन्वयों का अवान्तर भेद किन-किन सैद्धान्तिक
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