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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
(जी) विज्ञप्ति पत्र
प्राकृत भाषा के अभिलेखों में अजमेर से ३२ मील दूर बारली एक अन्य विधा जिसमें इतिहास संबंधी सामग्री व नगर- (बड़ली) नामक स्थान से प्राप्त एक जैन लेख जो एक पाषाण स्तम्भ पर वर्णन दोनों ही होते हैं वे विज्ञप्ति पत्र कहे जाते हैं। विज्ञप्ति पत्र वस्तुतः ४ पक्तियों में खुदा हैं, सबसे प्राचीन बताया गया है। इस लेख की लिपि एक प्रकार के विनति पत्र हैं जिसमें किसी आचार्य विशेष से उनके को स्व गौरी शंकर हीराचन्द ओझा ने अशोक से पूर्व का माना है। ई०पू० नगर में चार्तुमास करने का अनुरोध किया जाता है। ये पत्र इतिहास ३-२ शती से जैन अभिलेख बहुतायत से मिलते हैं। मात्र मथुरा से ही के साथ ही साथ कला के भी अनुपम भंडार होते हैं। इसमें जहाँ एक लगभग ई०पू० २शती से लेकर १२वीं शती तक के २०० से भी अधिक ओर आचार्य की प्रशंसा और महत्त्व का वर्णन होता है, वहीं दूसरी अभिलेख मिले हैं। मथुरा से प्राप्त ये अभिलेख प्राकत, संस्कृत मिश्रित ओर उस नगर की विशेषताओं के साथ-साथ नगर निवासियों के चरित्र प्राकृत में तथा संस्कृत में हैं। इन अभिलेखों का विशेष महत्त्व इसलिए का भी उल्लेख होता है। लगभग १५वीं शती से प्रारम्भ होकर १६- भी है क्योंकि इनकी पुष्टि कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावलियों से १७वीं शती तक अनेक विज्ञप्ति पत्र आज भी उपलब्ध हैं। ये विज्ञाप्ति भी होता है। इससे पूर्व कलिंग नरेश खारवेल का उड़ीसा के हाथी गुंफा पत्र जन्मपत्री के समान लम्बे आकार के होते हैं जिसमें नगर के से प्राप्त शिलालेख एक ऐसा अभिलेख है जो खारवेल के राजनीतिक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के सुन्दर चित्र भी होते हैं, जिससे इनका कलात्मक क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालने वाला एक मात्र स्त्रोत है। यह अभिलेख महत्त्व भी बढ़ जाता है।
न केवल ई०पू० प्रथम-द्वितीय शती के जैन संघ के इतिहास को प्रस्तुत इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं कि आगम, आगमिक करता है, अपितु खारवेल के राज्यकाल व उसके प्रत्येक वर्ष के कार्यों व्याख्यायें, स्वतंत्र ग्रंथों की प्रशस्तियाँ, धार्मिक कथानक, चरित ग्रंथ, का भी विवरण देता है। अत: यह सामान्य रूप से भारतीय इतिहास और प्रबंध साहित्य, पट्टावलियाँ, स्थविरावलियाँ, चैत्य परिपाटियाँ, विशेष रूप से जैन इतिहास की महत्त्वपूर्ण थाती है। तीर्थमालाएँ, नगर वर्णन और विज्ञप्ति पत्र आदि सब मिलकर सामान्य परवर्ती अभिलेख विशेषत: ५-६वीं शती के दक्षिण से प्राप्त रूप से भारतीय इतिहास विशेषत: जैन इतिहास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में चालुक्य-पुलकेशी द्वितीय का रविकीर्ति रचित शिलालेख योगदान प्रदान करते हैं।
(६३४ ई०), हथुडी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुर लेख (९९७ ई०)
आदि प्रमुख हैं। दक्षिण से प्राप्त अभिलेखों की विशेषता यह है कि उनमें (एच) अभिलेख
आचार्यों की गुरु परम्परा, कुल, गच्छ आदि का विवरण तो मिलता ही इन साहित्यिक स्त्रोतों के अतिरिक्त अभिलेखीय स्त्रोत भी जैन है साथ ही अभिलेख लिखवाने वाले व्यक्तियों व राजाओं के संबंध में इतिहास के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें परिवर्तन-संशोधन की गुंजाईश कम भी सूचना मिलती है। होने तथा प्राय: समकालीन घटनाओं का उल्लेख होने से उनकी अन्य प्रमुख अभिलेख कक्क का घटियाल प्रस्तर लेख प्रामाणिकता में भी सन्देह का अवसर कम होता है। जैन अभिलेख विभिन्न (वि०सं० ९१८), कुमारपाल की बडनगर प्रशस्ति (वि०सं० उपादानों पर उत्कीर्ण मिलते हैं जैसे-शिला, स्तम्भ, गुफा, धातु प्रतिमा, १२०८), विक्रमसिंह कछवाहा का दूबकुण्ड लेख (१०८८ ई०), स्मारक, शय्यापट्ट, ताम्रपट्ट आदि पर। ये अभिलेख मुख्यतया दो प्रकार जयमंगलसूरि रचित चाचिंग-चाहमान का सुन्धा पर्वत अभिलेख आदि के हैं- १. राजनीतिक और २. धार्मिक। राजनीतिक या शासन पत्रों के हैं जिनसे धार्मिक इतिहास के साथ ही साथ राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप में जो अभिलेख हैं वे प्रायः प्रशस्तियों के रूप में हैं जिसमें राजाओं इतिहास भी ज्ञात होता है। की विरूदावलियाँ, सामरिक विजय, वंश परिचय आदि होता है। धार्मिक इस प्रकार जैन साहित्यिक व अभिलेखीय दोनों ही स्त्रोतों से अभिलखों में अनेक जैन जातियों के सामाजिक इतिहास, जैनाचार्यों के महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। हमें यह समझ लेना चाहिये कि जैन संघ, गण, गच्छ आदि से संबंधित उल्लेख होते हैं।
विद्वानों, रचनाकारों ने जैन इतिहास के लिए हमें महत्त्वपूर्ण अवदान किया जैन अभिलेखों की भाषा प्राकृत, संस्कृत, कन्नड़ मिश्रित है, जिसका सम्यक मूल्यांकन और उपयोग अपेक्षित है। हम इतिहासविदों संस्कृत, कन्नड़, तमिल, गुजराती और पुरानी हिन्दी हैं। दक्षिण के कुछ से अनुरोध करते हैं कि वे अपने अध्ययन व भारतीय इतिहास की नवीन लेख तमिल में तथा अधिकांश कन्नड़ मिश्रित संस्कृत में हैं जिनमें ऐहोल व्याख्या के लिए इन स्रोतों का भरपूर उपयोग करें ताकि कुछ नवीन तथ्य प्रशस्ति, राष्ट्रकूट गोविन्द का मन्ने से प्राप्त लेख, अमोघवर्ष का कोन्नर सामने आ सकें। शिलालेख आदि मुख्य हैं।
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