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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
ही सूचक है।
हमारे पास ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर यह
कहा जा सके कि पार्श्व की परम्परा पूर्णत: महावीर की परम्परा में विलीन निर्ग्रन्थ परम्परा
हो गयी थी। फिर भी इतना निचित है कि पार्थापत्यों का एक बड़ा भाग लगभग ई०पू० सातवीं-छठी शताब्दी का युग एक ऐसा युग महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गया था और महावीर की परम्परा था जब जन समाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योग-साधकों एवं ने पार्श्व को अपनी ही परम्परा के पूर्व पुरुष के रूप में मान्य कर लिया चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को था। पार्श्व के लिए 'पुरुषादानीय' शब्द का प्रयोग इसका प्रमाण है। आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग- कालान्तर में ऋषभ,नमि और अरिष्टनेमि जैसे प्रागैतिहासिक काल के विशेष या व्यक्ति-विशेष से बंधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग महान् व्यक्तियों को स्वीकार करके निर्ग्रन्थ परम्परा ने अपने अस्तित्व को में, धर्म परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमश: अति प्राचीनकाल से जोड़ने का प्रयत्न किया। इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा ऋषभ आदि तीर्थकरों की ऐतिहासिकता का प्रश्न चली और उनकी अलग-अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्ग्रन्थ वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को रूप से सिद्ध होता है कि वातरशना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमण पार्थापत्य-निर्ग्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को धारा उस युग में भी जीवित थी जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ज्ञात्रपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्य ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक पुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा।
एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएं क्या थीं और वे वर्तमान जैन पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से जानी परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यास जाने लगी। जैन धर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता मार्ग के प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। ऋषभ, है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद नमि, अजित, अर, अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को छोड़कर अन्य अस्तित्व में आया है। अशोक (ई०पू० तृतीय शताब्दी), खारबेल तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य पूर्णत: मौन (ई०पू० द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैन धर्म का उल्लेख हैं और उनके प्रति हमारी आस्था का आधार परवर्ती काल के आगम और निर्ग्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है।
अन्य कथा ग्रन्थ ही हैं।
में भी जीविशना मुनियों पास इतना तो
पार्श्व एवं महावीर की परम्परा
महावीर और अजीवक परम्परा ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग आदि से ज्ञात होता है जैन धर्म के इस पूर्व-इतिहास की इस संक्षिप्त रूप रेखा देने कि पहले निर्ग्रन्थ धर्म में नमि, बाहुक, कपिल, नारायण (तारायण), के पश्चात् जब हम पुन: महावीर के काल की ओर आते हैं तो कल्पअंगिरस, भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी जो कि वस्तुत: उसकी सूत्र एवं भगवती में कुछ ऐसे सूचना सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पार्थापत्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व भी निकट सम्बन्धों की पुष्टि होती है। और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा तो इन्हें प्रत्येक-बुद्ध के रूप में जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है कि सम्मानजनक स्थान तो दिया गया किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा महावीर दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखली पुत्र गोशालक उनके निकट से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई०पू० पांचवीं सम्पर्क में आया था, कुछ वर्ष दोनों साथ भी रहे किन्तु नियतिवाद और या चौथी शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर तक सीमित हो गया। पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों अलग-अलग हो गये। हरमन यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारम्भ में महावीर और पार्श्व की जेकोबी ने तो यह कल्पना भी की है कि महावीर की निम्रन्थ परम्परा में परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवतीसूत्र की नग्नता आदि जो आचार्य मार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की सूचनानुसार महावीर के जीवन काल में पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण आजीवक परम्परा का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे किन्तु आजीवकों की एक परम्परा थी जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णत: ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर साधना एकीकृत नहीं हो सकी। उत्तराध्ययन में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या आजीवक कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा में आई। क्योंकि इस तथ्य का गौतम और पार्थापत्य परम्परा के तत्कालीन आचार्य केशी ने परस्पर कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक मिलकर दोनों संघों के एकीकरण की भूमिका तैयार की थी। यद्यपि आज आजीवक परम्परा से जुड़ा था या वह प्रारम्भ में ही आजीवक परम्परा
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