________________
सन्दर्भ
१.
२.
३.
४.
उत्तराध्ययन, २५ / २७, २१.
धम्मपद, ४०१-४०३.
श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
उत्तराध्ययन, १२ / ४४.
८.
अंगुत्तरनिकाय, सुत्तनिपात उधृत भगवान् बुद्ध ( धर्मानन्द ९. कौसाम्बी), पृ० २६.
यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैन धर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गंभीरता, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत निबन्ध में हम इस धर्म परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे।
श्रमण परम्परा
विश्व के धर्मों की मुख्यतः सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और मुसलमान आते हैं जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैन धर्म की गणना की जाती है। इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ धर्म कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं आर्य धर्मों में जहाँ हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म श्रमण परम्परा के धर्म हैं। श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दुःखमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है। इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने अपनी तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य योग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दू धर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धाराएं भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं।
Jain Education International
५.
६.
७.
पारस्परिक सौहार्द की प्राचीन स्थिति
प्राकृत साहित्य में ऋषिभाषित (इसिभासियाई) और पालि साहित्य में थेरगाथा ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति
भगवान बुद्ध (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृ०, २३६-२३९. गीता, ४ / ३३, २६-२८.
जैन धर्म की परम्परा, इतिहास के झरोखे से
उत्तराध्ययन, १२ / ४६.
उत्तराध्ययन, ९ / ४० देखिये- गीता ( शा० ) ४ / २६-२७. धम्मपद, १०६.
१०. सम्बोध प्रकरण, गुर्वाधिकार
६०३
प्राचीन काल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी इन ऋषियों में पारस्परिक सौहार्द था ।
ऋषिभाषित जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के इस पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग
प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई० पू० लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्मन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमण धारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनाग्रही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो ऋषिभासित (इसिभासियाई) के सभी ऋषि जैन परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थावर) बौद्ध परम्परा के हैं। जहाँ ऋषिभाषित में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित है, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं। इसी प्रकार बेरगाथा में वर्द्धमान आदि जैन धारा की, तो नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिक धारा की प्रतिक्रिया के रूप में 'हुआ किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिक धारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमण धारा निवृत्तिमार्गी और इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था। किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो भ्रमण धारा का उद्भव मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। ऋषिभाषित में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और सूत्रकृतांग में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना, प्राचीन काल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.