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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
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गया कि वे अपने उपासकों की जैनधर्म में श्रद्धा बनाये रखने के लिये मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च। जैनधर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें जो अपने उपासकों तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर।।२।। के भौतिक कल्याण में सहायक हो। निवृत्तिप्रधान, अध्यात्मवादी एवं
. -विसर्जनपाठ कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखने वाले जैनधर्म के लिये यह न्यायसंगत इसके स्थान में ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैंतो नहीं था फिर भी यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह प्रवृत्ति आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्। विकसित हुई है।
पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।१।। जैनधर्म का तीर्थङ्कर व्यक्ति के भौतिक कल्याण में साधक या मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन। बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन अनुष्ठानों में जिनपूजा के यक्ष-यक्षियों यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे।।२।। के रूप में शासनदेवता तथा देवी की कल्पना विकसित हुई और यह माना। - इसी प्रकार पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यज्ञ का विधान, जाने लगा कि तीर्थङ्कर की अथवा अपनी उपासना से शासनदेवता (यक्ष- विनायक-यन्त्र-स्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन-परम्परा के यक्षी) प्रसन्न होकर उपासक का कल्याण करते हैं। शासनरक्षक देवी- अनुकूल नहीं हैं। किन्तु जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा, तो देवताओं के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, अग्निका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, पंचोरपचारपूजा आदि विधियों का प्रवेश हुआ। दसवीं शती के अनन्तर काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, पार्श्वयक्ष इन विधियों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ जिससे पूर्व प्रचलित विधि गौण आदि यक्षों, दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) को जैन-परम्परा में हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान, सत्रिधिकरण, पूजन और स्थान मिला। इन सबकी पूजा के लिये जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को विसर्जन क्रमश: पंचकल्याणकों की स्मृति के लिये व्यवहृत होने लगे। किंचित् परिवर्तन के साथ वैदिक परम्परा से ग्रहण कर लिया। भैरव पूजा को वैयावृत्य का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे पद्मावतीकल्प आदि ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जैन-पूजा और प्रतिष्ठा ‘आहारदान' के तुल्य महत्त्व प्राप्त हुआ। इस प्रकार पूजा के समय की विधि में वैदिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन- सामायिक या ध्यान की मूल भावना में परिवर्तन हुआ और पूजा को परम्परा के मूलभूत मन्तव्यों से भिन्न हैं। हम यह देखते हैं कि जैन-परम्परा अतिथिसंविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। यह सभी ब्राह्मण परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा भैरव, की अनुकृति ही है, यद्यपि इस सम्बन्ध में बोले जाने वाले मन्त्रों को निश्चिय भेमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आदि की उपासना प्रमुख होती जा रही ही जैन रूप दे दिया गया है। जिस परम्परा में एक वर्ग ऐसा हो जो तीर्थङ्कर है। जैनधर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष जो हमारे सामने के कवलाहार का भी निषेध करता हो वही तीर्थङ्कर की सेवा में नैवेद्य आया, वह मूलत: वैदिक या ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव ही है। जिनपूजा अर्पित करे, यह क्या सिद्धान्त की विडम्बना नहीं कही जायेगी? जैनएवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिन्हें ब्राह्मण-परम्परा परम्परा ने पूजा-विधान के अतिरिक्त संस्कार-विधि में भी हिन्दू-परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के का अनुसरण किया है। सर्वप्रथम आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में हिन्दू रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण-परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका संस्कारों को जैन दृष्टि से संशोधित करके जैनों के लिये भी एक पूरी आह्वान और विसर्जन किया जाता है, उसी प्रकार जैन-परम्परा में भी पूजा संस्कार-विधि तैयार की है। सामान्यतया हिन्दुओं में जो सोलह संस्कारों के समय जिन के आह्वान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं। यथा- की परम्परा है, उसमें निवृत्तिमूलक परम्परा की दृष्टि से दीक्षा ॐ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट्। (संन्यासग्रहण) आदि कुछ संस्कारों की वृद्धि करके यह संस्कार-विधि ऊँ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। तैयार की गयी है। इसमें गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और क्रियान्वय ॐ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भवभव वषट्। क्रिया ऐसे तीन विभाग किये गए हैं। इनमें गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त ऊँ ह्रीं णमों सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः। क्रियाएँ बताई गई हैं। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जो संस्कार
ये मन्त्रं जैनदर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं। विधि प्रचलित हुई वह बृहद् हिन्दू-परम्परा से प्रभावित है। श्वेताम्बर परम्परा क्योंकि जहाँ ब्राह्मण-परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर देवता में किसी संस्कार-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है किन्तु व्यवहार में वे आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं। वहाँ जैन-परम्परा में भी हिन्दू-परम्परा में प्रचलित संस्कारों को यथावत् रूप में अपनाते हैं। सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थङ्कर न तो आह्वान करने पर उपस्थित हो सकते उनमें आज भी विवाहादि संस्कार हिन्दू परम्परानुसार ही ब्राह्मण पण्डित हैं और न विसर्जन करने पर जा ही सकते हैं। पं० फूलचन्दजी ने “ज्ञानपीठ के द्वारा सम्पन्न कराए जाते हैं। अत: स्पष्ट है कि विवाहादि संस्कारों के पूजांजलि" की भूमिका में विस्तार से इसकी चर्चा की है तथा आह्वान सम्बन्ध में भी जैन परम्परा पर हिन्दू परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है। एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन मन्त्रों की ब्राह्मण मन्त्रों में समानता भी दिखाई वस्तुत: मन्दिर एवं जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित है। तुलना कीजिये
अधिकांश अनुष्ठान ब्राह्मण परम्परा की देन हैं और उसकी मूलभूत आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम्।
प्रकृति कहे जा सकते हैं। किसी भी परम्परा के लिये अपनी सहवर्ती विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर।।१।।
परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित रह पाना कठिन है और इसलिये यह
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