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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
स्वाभाविक ही था कि जैन-परम्परा की अनुष्ठान विधियों में ब्राह्मण लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने परम्परा का प्रभाव आया।
लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान
बनाये रखने के लिये हिन्दू वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को इस प्रकार हिन्दु वर्ण एवं जाति व्यवस्था का जैनधर्म पर प्रभाव
आत्मसात कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह मूलतः श्रमण-परम्परा और जैनधर्म वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध प्राय: समाप्त हो गया। जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा खड़े हुए थे किन्तु कालक्रम में बृहत् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों (क्षत्रिय, वैश्य, भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणाएँ प्रविष्ट हो गईं। जैन परम्परा में और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जाति और वर्ण-व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का विवरण जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र हैं। इनके दो भेद सर्वप्रथम आचारांगनियुक्ति (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में प्राप्त होता हैं-कारू और अकारू। पुनः कारू के भी दो भेद हैं-स्पृश्य और अस्पृश्य। है। उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। ऋषभ के द्वारा राज्य- धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये-१. शासक (स्वामी) रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र हैं (आदिपुराण, १६/१८४-१८६)। शूद्रों के एवं २. शासित (सेवक)। उसके पश्चात् शिल्प और वाणिज्य के विकास कारू और अकारू तथा स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद सर्वप्रथम केवल के साथ उसके तीन विभाग हुए-१. क्षत्रिय (शासक), २. वैश्य (कृषक पुराणकाल में जिनसेन ने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य और व्यवसायी) और ३. शूद्र (सेवक)। उसके पश्चात् श्रावक-धर्म की ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है। किन्तु हिन्दू समाज-व्यवस्था स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण से प्रभावित होने के बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्राय: मान्य किया। (माहण) कहा गया। इस प्रकार क्रमश: चार वर्ण अस्तित्व में आए। इन षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगों से की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात क्षुल्लकदीक्षा सोलह वर्ण बने जिनमें सात वर्ण और नौ अन्तर वर्ण कहलाए। सात वर्ण का अधिकार मान्य किया था किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष भी कमी कर दी और शूद्र की मुनि-दीक्षा एवं जिनमन्दिर में प्रवेश का एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य स्त्री के संयोग भी निषेध कर दिया। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (३/२०२) के से उत्पन्न और वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न, ऐसे अनुलोम मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुंसक की मुनि-दीक्षा का निषेध संयोग से उत्पन्न तीन वर्ण। आचारांगचूर्णि (ईसा की ७वीं शती) में इसे था किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति-जुंगित और व्याधादि स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग कर्मसुंगति लोगों को दीक्षा देने को निषेध कर दिया। यद्यपि यह सब जैनसे जो सन्तान उत्पन्न होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर धर्म की मूल परम्परा के तो विरूद्ध ही था फिर भी हिन्दू-परम्परा के प्रभाव क्षत्रिय कही जाती है, यह पाँचवाँ वर्ण है। इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और से इसे मान्य कर लिया गया। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि एक ही जैनधर्म वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही के अनुयायी जातीय भेद के आधार पर दूसरी जाति का छुआ हुआ खाने जाती है, यह छठाँ वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपत्ति करने लगे। शूद्र का जलउत्पन्न सन्तान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण त्याग एक आवश्यक कर्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन-मन्दिर में प्रवेश है। पुन: अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्नलिखित नौ निषिद्ध कर दिया गया। अन्तर-वर्ण बनोब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ इस प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर में जैन चारों ही वर्गों और सभी वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन हुआ, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से 'निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी हुआ, शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न माने गये थे, वहीं सातवीं-आठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को हुआ, क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ, शूद्र पुरुष मुनि-दीक्षा और मोक्ष-प्राप्ति हेतु अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं
और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खन्ना) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, वैश्य शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त और नपुंसक पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वेदेह' नामक पन्द्रहवाँ वर्ण उत्पन्न की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जुंगति जैसेहुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक चाण्डाल आदि और कर्म-जुंगित जैसे-कसाई आदि की दीक्षा का निषेध सोलहवाँ वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम कर दिया गया। किन्तु यह बृहत्तर हिन्दू-परम्परा का प्रभाव ही था जो कि एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में आयीं" जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी
उपरोक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया क्योंकि आगमों में ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू-परम्परा हरिकेशीबल, मेतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्कलों के मुनि होने और की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। मोक्ष प्राप्त करने के उल्लेख हैं।
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