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जैन धर्म में नारी की भूमिका
५५५ विवाह किये जाने पर तुझे सुख-दु:ख हो सकता है अत: अच्छा हो कि स्थान महत्त्वपूर्ण हो गया और यह उद्घोष किया गया कि पुत्र के बिना तू अपना वर स्वयं ही चुन । यहाँ ग्रन्थकार के ये विचार वैवाहिक जीवन पूर्वजों की सुगति/मुक्ति सम्भव नहीं ।५ फलतः आगे चलकर हिन्दू के लिये नारी-स्वातन्त्र्य के समर्थक हैं । इसी प्रकार हम देखते हैं कि परम्परा में कन्या की उत्पत्ति को अत्यन्त हीनदृष्टि से देखा जाने उपासकदशांग में महाशतक अपनी पत्नी रेवती के धार्मिक विश्वास, लगा। इस प्रकार वैदिक हिन्दू परम्परा में पुत्र-पुत्री की समकक्षता को खान-पान और आचार-व्यवहार पर कोई जबरदस्ती नहीं करता है । जहाँ अस्वीकार कर पुत्र को अधिक महनीयता प्रदान की गई किन्तु इसके आनन्द आदि श्रावकों की पत्नियाँ अपने पति का अनुगमन करती हुई विपरीत जैन आगमों में हम देखते हैं कि उपासक और उपासिकाएँ पुत्रमहावीर से उपासक व्रतों को ग्रहण करती हैं और धर्मसाधना के क्षेत्र में पुत्री हेतु समान रूप से कामना करते हैं ।४६ चाहे अर्थोपार्जन और भी पति की सहभागी बनती हैं, वहीं रेवती अपने पति का अनुगमन नहीं पारिवारिक व्यवस्था की दृष्टि से जैनधर्मानुयायियों में भी पुत्र की प्रधानता करती है, मात्र यही नहीं, वह तो अपने मायके से मँगाकर मद्य-मांस का रही हो किन्तु जहाँ तक धार्मिक जीवन और साधना का प्रश्न था, जैन सेवन करती है और महाशतक के पूर्ण साधनात्मक जीवन में विध्न- धर्म में पुत्र की महत्ता का कोई स्थान नहीं था । जैन कर्म सिद्धान्त ने बाधाएँ भी उपस्थित करती है ।" इससे ऐसा लगता है कि आगम युग स्पष्ट रूप से यह उद्घोषित किया कि व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही तक नारी को अधिक स्वातन्त्र्य था किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में सुगति या दुर्गति में जाकर सुख-दुःख का भोग करता है । सन्तान के हम पाते हैं कि पति या पत्नी अपने धार्मिक विश्वासों को एक दूसरे पर द्वारा सम्पन्न किये गये कर्मकाण्ड पूर्वजों को किसी भी प्रकार प्रभावित लादने का प्रयास करते हैं। चूर्णि साहित्य में ऐसी अनेक कथाएँ हैं नहीं करते ७ इस प्रकार उसमें धार्मिक आधार पर पुत्र की महत्ता को जिनमें पुरुष स्त्री को अपने धार्मिक विश्वासों की स्वतन्त्रता नहीं देता अस्वीकार कर दिया गया । फलत: आगमिक युग में पुत्र-पुत्री के प्रति
समानता की भावना प्रदर्शित की गई किन्तु अर्थोपार्जन और पारिवारिक इसी प्रकार धर्मसंघ में भी आगम युग में भिक्षुणी संघ की व्यवस्था में पुरुष की प्रधानता के कारण पुत्रोत्पत्ति को ही अधिक सुखद व्यवस्था को भिक्षुसंघ से अधिक नियन्त्रित नहीं पाते हैं । भिक्षुणी संघ माना जाने लगा। यद्यपि ज्ञाताधर्मकथा में मल्लि आदि के जन्मोत्सव के अपने आन्तरिक मामलों में पूर्णतया आत्मनिर्भर था, गणधर अथवा उल्लेख उपलब्ध हैं, किन्तु इन उल्लेखों के आधार पर यह मान लेना आचार्य का उस पर बहुत अधिक अंकुश नहीं था, किन्तु छेदसूत्र एवं कि जैन संघ में पुत्र और पुत्री की स्थति सदैव ही समकक्षता की रही, आगमिक व्याख्या साहित्य के काल में यह नियन्त्रण क्रमश: बढ़ता उचित नहीं हेगा। आगमिक व्याख्या साहित्य एवं पौराणिक साहित्य में जाता है । इन ग्रंथों में चातुर्मास, प्रायश्चित्त, शिक्षा, सुरक्षा आदि सभी उपर्युक्त आगमिक अपवादों को छोड़ कर जैनसंघ में भी पुत्री की अपेक्षा क्षेत्रों में भिक्षुक वर्ग का प्रभुत्व बढ़ता हुआ प्रतीत होता है। फिर भी बौद्ध पुत्र को जो अधिक सम्मान मिला उसका आधार धार्मिक मान्यतायें न भिक्षुणी संघ की अपेक्षा जैन भिक्षुणी संघ में स्वायत्तता अधिक थी। होकर सामाजिक परिस्थितियाँ थीं । यद्यपि भिक्षुणी संघ की व्यवस्था के किन्हीं विशेष परिस्थितियों को छोड़कर वे दीक्षा, प्रयश्चित्त, शिक्षा और कारण पुत्री पिता के लिये उतनी अधिक भारस्वरूप कभी नहीं मानी गयी सुरक्षा की अपनी व्यवस्था करती थीं और भिक्षु संघ से स्वतन्त्र विचरण जितनी उसे हिन्दू परम्परा में माना गया था । करते हुए धर्मोपदेश देती थीं जबकि बौद्धधर्मसंघ में भिक्षुणी को उपोसथ, इस प्रकार जैन आगमों और आगमिक व्याख्या साहित्य से जो वर्षावास आदि भिक्षुसंघ के अधीन करने होते थे।
सूचनाएँ उपलब्ध हैं उनके आधार पर कहा जा सकता है कि यौगलिक यद्यपि जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न था जैनाचार्य काल अर्थात् पूर्व युग में और आगम युग में पुत्र और पुत्री दोनों की ही हिन्दु परम्परा के चिन्तन से प्रभावित हो रहे थे । मनुस्मृति के समान उत्पत्ति सुखद थी किन्तु आगमिक व्याख्याओं के युग में बाह्य सामाजिक व्यवहार भाष्य में भी कहा गया है
एवं आर्थिक प्रभावों के कारण स्थिति में परिवर्तन आया और पुत्री की जाया पितव्वसा नारी दत्ता नारी पतिव्वसा ।
अपेक्षा पुत्र को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा। विहवा पुत्तवसा नारी नत्यि नारी सयंवसा ।।३/२३३
अर्थात् जन्म के पश्चात् स्त्री पिता के अधीन, विवाहित होने पर विवाह संस्था और नर-नारी की समकक्षता का प्रश्न पति के अधीन और विधवा होने पर पुत्र के अधीन होती है अत: वह विवाह-व्यवस्था प्राचीन काल से लेकर आज तक मानवीय कभी स्वाधीन नहीं है । इस प्रकार आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की समाज व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण अंग रही है । यह सत्य है कि स्वाधीनता सीमित की गयी है ।
जैनधर्म के अनुयायियों में भी प्राचीनकाल से विवाह व्यवस्था प्रचलित
रही है किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि निवृत्तिप्रधान होने के पुत्र-पुत्री की समानता का प्रश्न
कारण जैनधर्म में विवाह-व्यवस्था को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया चाहे प्रारम्भिक वैदिक धर्म में पुत्र और पुत्री की समकक्षता गया । धार्मिक दृष्टि से वह स्वपत्नी या स्वपति सन्तोषव्रत की व्यवस्था स्वीकार की गई हो किन्तु परवर्ती हिन्दू धर्म में अर्थोपार्जन और धार्मिक करता है जिसका तात्पर्य है व्यक्ति को अपनी काम-वासना को स्वपति कर्मकाण्ड दोनों ही क्षेत्रों में पुरुष की प्रधानता के परिणामस्वरूप पुत्र का या स्वपत्नी तक ही सीमित रखना चाहिए । तात्पर्य यह है कि यदि
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