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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ धारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण ही ये दोनों धाराएँ परस्पर एक दूसरे से प्रभावित होती रही हैं। अपनीईशावास्योपनिषद् और भगवद्गीता हैं। भगवद्गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलगमार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। इसी प्रकार श्रमण-धारा में अलग देख लें किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं भी परवर्ती काल में प्रवर्तक धर्म के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। श्रमण-परम्परा कर सकते। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें की एक अन्य धारा के रूप में विकसित बौद्ध धर्म में तो प्रवर्तक धारा जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों का उल्लेख है, के तत्त्वों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं अर्हतों की उपस्थिति तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया। भारतीय धर्मों के के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि जो जैन परम्परा ऐतिहासिक विकास-क्रम में हम कालक्रम में हुए इस आदान-प्रदान की में तीर्थङ्कर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। इसी आदान-प्रदान के कारण ये परम्पराएँ एक- है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ से ही भारत दूसरे के काफी निकट आ गई हैं।
में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रही हैं। हिन्दूधर्म की शैव इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट धारा और सांख्ययोग आदि की परम्पराएँ मूलत: निवर्तक या श्रमण रही संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चहारदीवारियों में अवरूद्ध कर कभी भी हैं जो कालक्रम में बृहद् हिन्दूधर्म में आत्मसात् कर ली गई हैं। सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन भारतीय करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्ड- संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा थी जिसमें ध्यान आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ को नहीं समझ जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला आदि का न मिलना यही से समझ सकते हैं, जब उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं ध्यान-प्रधान व्रात्य या हिन्दू धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाय। श्रमण-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी। यह निश्चित है कि आर्यों के बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान से उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से ये दोनों ही धाराएँ साथ-साथ ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के प्रभावित हो रही हैं और उन्होंने एक-दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित लिये न केवल उसके विभिन्न घटकों को अर्थात् कल-पुों का ज्ञान भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना में समादार भाव में बदल जाता है जो दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक होता है। अत: हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिये कि है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती अवधारणाएँ जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी ग्रन्थों में अनुपलब्धं थीं, वे आरण्यक आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में शोध परिपूर्ण नहीं हो सकती है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गयी हैं। इससे लगता नहीं होते, वे अपने देश, काल और सहवर्ती परम्परओं से प्रभावित होकर है कि ये अवधारणाएँ संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य धारा में प्रविष्ट हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नए प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन विद्या के शोध मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या का, हमें उसकी वैदिक एवं श्रमणधारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक दूसरी परम्परओं को अवश्य ही जानना होगा और यह देखना होगा कि हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत जिसका एक वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक प्रभाव के अध्ययन है। वे निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिकधारा के समन्वय के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है।
का परिणाम हैं। उपनिषदों में, महाभारत और गीता में जहाँ एक ओर यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्ति-प्रधान तत्त्वों को स्थान दिया गया से ही हम उसमे श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते है, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमणपरम्परा के हैं किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं, उसमें स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब उन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा हो गया। अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल से हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा आज का हिन्दूधर्म वैदिक और
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