Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 726
________________ श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव ५९५ श्रमणधाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन और कृष्ण को शलाका पुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दानों धाराएँ अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना एक दूसरे से समन्वित हुईं। चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई आज हमें उनकी इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ पैदा कर दी गयी हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता आदि वैदिक कर्मकाण्डों की नवीन आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या करने को भी सम्यक् रूप से समझा जा सके। का कार्य औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। महावीर एवं दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू बुद्धकालीन जैन और बौद्ध परम्पराएँ तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा और मुसलमानों के बीच अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू और सिक्खों जो कि प्रशस्त किये गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदिक कर्मकाण्ड, जन्मना बृहद् भारतीय परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य जातिवाद और मिथ्या विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा के स्वर का ही मुखरित रूप हैं। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक हैं कि जैन और बौद्ध धर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म हैं, अपितु वे वैदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषियों के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है। हिन्दू-परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्ध धर्म को वैदिक यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्ण- धर्म के प्रति एक विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सत्य है व्यवस्था और वेदों के प्रामाण्य से इन्कार किया और इस प्रकार वे भारतीय कि वैदिक और श्रमण-परम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर स्पष्ट संस्कृति के समुद्धारक के रूप में ही सामने आये किन्तु हमें यह भी नहीं मतभेद हैं। यह भी सत्य है कि जैन-बौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कृति में आई इन विकृतियों के परिमार्जन उन विकृतियों का जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के धार्मिक शोषण के रूप में उभर रही थी, खुलकर हो गए हैं। वैदिक कर्मकाण्ड अब पूजा-विधानों एवं तन्त्र-साधना के नये विरोध किया, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं अपितु भारतीय रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण-परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया है और संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन ओर बौद्ध धर्मों उनकी साधना-पद्धति का एक अंग बन गया है। आध्यात्मिक विशुद्धि ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ के लिये किया जाने वाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया है। किन्तु स्मरण रखना होगा जान लगा है। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण-परम्परा ने वैदिक परम्परा कि चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं होता, मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष पाश्चात्य चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर इसकी तीसरी-चौथी-शती कुछ जैन और बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैनधर्म और वैदिक से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है। और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्ट हो गईं। अनेक हिन्दू देव-देवियाँ प्रकारान्तर चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में यक्ष-यक्षिणियों धर्म-परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हों किन्तु आज न तो हिन्दूएवं शासन-देवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णत: वैदिक है और न ही जैन-बौद्ध परम्परा हैं। अनेक हिन्दू देवियाँ जैसे- काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, पूर्णत: श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थंकरों की शासन-रक्षक ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित देवियों के रूप में जैनधर्म का अंग बन गई। इसी प्रकार श्रुत-देवता के रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक रूप में सरस्वती और दम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की उपासना भी पक्ष अभी भी प्रमुख है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैनधर्म में होने लगी और हिन्दू-परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में जैन धर्म आज भी निवृत्तिप्रधान है वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्ति-प्रधान। फिर भी लोक-मंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों यह मानना उचित होगा कि ये दोनों धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा-विधान में हिन्दू देवताओं की तरह से ही निर्मित हुए हैं। तीर्थङ्करों का भी आवाहान एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की हम पूर्व में यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इस समन्वय का प्रथम पूजा-विधि को भी मन्त्रों में कुछ शब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार प्रयत्न हमें ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अतः कर लिया। इस सबकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। इस प्रकार जैन आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने और बौद्ध परम्पराओं में तप, ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर की आवश्कता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक पूजा-विधि-विधान प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्कता है। जिस प्रकार वासना यह भी हुआ कि जहाँ हिन्दू परम्पराओं में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के और विवेक, प्रेय और श्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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