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जैन एकता का प्रश्न के अनेक कारण होते हैं जिनमें से कुछ उचित कारण और कुछ अनुचित कारण होते हैं ।
उचित कारण निम्न हैं - १.सत्य सम्बन्धी दृष्टिकोण - विशेष या विचार भेद, २. देशकालगत भिन्नता के आधार पर आचार सम्बन्धी नियमों की भिन्नता, ३. पूर्वप्रचलित धर्म या सम्प्रदाय में युग की आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन या संशोधन । जबकि अनुचित कारण ये हैं - १. वैचारिक दुराग्रह, २. पूर्व सम्प्रदाय या धर्म में किसी व्यक्ति का अपमानित होना, ३. किसी व्यक्ति को प्रसिद्धि पाने की महत्वाकांक्षा, ४. पूर्व सम्प्रदाय के लोगों से अनबन हो जाना ।
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यदि हम उपर्युक्त कारणों का विश्लेषण करें, तो हमारे सामने दो बातें स्पष्टतः आ जाती है। प्रथम यह कि देशकालगत तथ्यों की विभिन्नता, वैचारिक विभिन्नता अथवा प्रचलित परम्पराओं में आयी हुई विकृतियों के संशोधन के निमित्त विविध धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव होता है, किन्तु ये कारण ऐसे नहीं हैं जो साम्प्रदायिक वैमनस्य के आधार कहे जा सकें। वस्तुतः जब भी इनके साथ मनुष्य के स्वार्थ दुराग्रह अहंकार, महत्वाकांक्षा और पारस्परिक ईर्ष्या के तत्त्व प्रमुख बनते हैं, तभी धार्मिक उन्मादों का अथवा साम्प्रदायिक कटुता का जन्म होता है और शान्ति प्रदाता धर्म ही अशान्ति का कारण बन जाता है। आज के वैज्ञानिक युग में जब व्यक्ति धर्म के नाम पर यह सब देखता है तो उसके मन में धार्मिक अनास्था बढ़ती है और वह धर्म का विरोधी बन जाता है। यद्यपि धर्म के विविध सम्प्रदायों में बाह्य नियमों की भिन्नता हो सकती है, तथापि यदि हमारी दृष्टि व्यापक और अनाग्रही हो तो इसमें भी एकता और समन्वय के सूत्र खोजे जा सकते हैं।
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साम्प्रदायिक वैमनस्य का अन्त कैसे हो ?.
धर्म के क्षेत्र में असहिष्णुता का जन्म तब होता है जब हम यह मान लेते हैं कि हम जिस आचार्य को अपनी आस्था या श्रद्धा का केन्द्र मान रहे हैं, उसका पक्ष ही एकमात्र सत्य है और उसके अतिरिक्त अन्य सभी मिथ्यात्वी और शिथिलाचारी है 'हम सच्चे और दूसरे झूठे की भ्रान्त धारणा धार्मिक असहिष्णुता को जन्म देती है। यह मान लेना कि सत्य का सूर्य केवल हमारे घर को ही आलोकित करता है, एक मिथ्या धारणा ही है। जबकि जैनधर्म का अनेकान्तवाद यह मानता है कि सत्य का बोध और प्रकाशन दूसरों के द्वारा भी सम्भव है, सत्य हमारे विपक्ष में हो सकता है । हम ही सदाचारी और शुद्धाचारी हैं दूसरे सब शिथिलाचारी और असंयती हैं - यह कहना क्या उन लोगों को शोभा देता है जिनके शास्त्र 'अन्यलिंगसिद्धा' का उद्घोष करते हैं। आज दुर्भाग्य तो यह है कि जो दर्शन अनेकांत के सिद्धान्त के द्वारा विश्व के विभिन्न धर्म और दर्शनों में समन्वय की बात कहता है ओर जो 'षट्दरसण जिन अंग भणीजे' की व्यापक दृष्टि प्रस्तुत करता है, वह स्वयं अपने ही सम्प्रदायों के बीच समन्वय सूत्र नहीं खोज पा रहा है।
एक ओर अनेकांतवाद का उद्घोष और दूसरी ओर सम्प्रदायों का व्यामोह - दोनों एक साथ सत्य नहीं हो सकते । वस्तुतः कोई व्यक्ति
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जैन हो और उसमें साम्प्रदायिक दुराग्रह भी हो, यह नहीं हो सकता। यदि हम साम्प्रदायों में आस्था रखते हैं, तो इतना सुनिश्चित है कि हम जैन नहीं हैं। जैनधर्म की परिभाषा है
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन, पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्य पीडनं किञ्चित् जैनधर्मः स उच्यते ।।
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जो स्याद्वाद में आस्था रखता है तथा पक्षपात से दूर है और जो किसी को पीड़ा नहीं देता, वही जैनधर्म का सच्चा अनुयायी है । अहिंसा और अनेकान्त के सच्चे अनुयायियों में साम्प्रदायिक वैमनस्य पनपे यह सम्भव नहीं है। यहाँ हमारे जीवन के विरोधाभास स्पष्ट हैं। हम अहिंसा की दुहाई देते हैं ओर अपने ही सहधर्मी भाईयों को पीटने या पिटवाने का उपक्रम करते हैं हमारी साम्प्रदायिक वैमनस्यता ने अहिंसा की पवित्र चादर पर खून की छीटें डाली हैं अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ और केसरियाजी की घटनाएँ आज भी इसकी साक्षी हैं। हम अनेकांत का नाम लेते हैं और साम्प्रदायिक क्षुद्रताओं से बुरी तरह जकड़े हुए अपने सम्प्रदाय के अलावा हमें सभी मिथ्यात्वी नजर आते हैं। अपरिग्रह की दुहाई देते हैं किन्तु देवद्रव्य के नाम पर धन का संग्रह करते हैं, मन्दिरों की सम्पत्तियों के लिए न्यायालयों में वाद प्रस्तुत करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि वादी के नाम में परम अपरिग्रही भगवान् का नाम भी जुड़ता है। जिस प्रभु ने अपनी समस्त धन सम्पत्ति का दान करके जीवनपर्यन्त अपरिग्रह की साधना की, उसके अनुयायी होने का दम्भ भरनेवाले हम क्या उसी प्रभु की एक प्रतिमा या मन्दिर भी अपने दूसरे भाई को प्रदान नहीं कर सकते ? वस्तुतः हमारे जीवन व्यवहार का जैनत्व से दूर का भी रिश्ता नहीं दिखाई देता है।
हमारे अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त मात्र दिखावा है-छलना हैं - वे हमारे जीवन के साथ जुड़ नहीं पाये हैं तभी तो आध्यात्मिक सन्त आनन्दघन जी को वेदना के दो आँसू बहाते हुए कहना पड़ा था
गच्छना भेद बहू नयने निहालतां तत्त्वनी बात करतां न लाजे । उदरभरणादि निज काज करतां धकां मोह नडिया कलिकाल राजे ।
गच्छों और सम्प्रदायों के विविध भेदों को अपने समक्ष देखते हुए भी हमें अनेकांत के सिद्धान्त की दुहाई देने में शर्म क्यों नहीं आती ? वस्तुत: इस कलिकाल में व्यामोहों (दुराग्रहों) से ग्रस्त होकर सभी केवल अपना पेट भरने के लिए अर्थात् वैयक्तिक पूजा और प्रतिष्ठा पाने के लिए प्रयत्नशील हैं। भावार्थ यही है कि सम्प्रदायों और गच्छों के नाम पर हम अपनी-अपनी दुकानें चला रहे हैं। जिनप्रणीत धर्म और सिद्धान्तों का उपदेश तो केवल दूसरों के लिए है तुम हिंसा मत करो, तुम दुराग्रही मत बनो, तुम परिग्रह का संचय मत करो आदि । किन्तु हमारे अपने में कहाँ हिंसा, आग्रह और आसक्ति (स्वार्थ वृत्ति) के तत्त्व छिपे हुए है, इसे नहीं देखते हैं। वस्तुतः साम्प्रदायिक वैमनस्य इसीलिए है कि अहिंसा, अनाग्रह और जनासक्ति के धार्मिक आदर्श हमारे जीवन
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