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जैन एकता का प्रश्न
५८५ महावीर के संघ में निर्वस्त्र और सवस्त्र दोनों ही प्रकार के मुनि थे। समर्थक पद्य मिले हैं । यद्यपि इस समस्या का हल इन ग्रन्थों के आधारों श्वेताम्बर आगम तो जिनकल्प और स्थविर कल्प के नाम से दो विभाग पर नहीं खोजा जा सकता क्योंकि उत्तराध्ययन के एक अपवाद को स्वीकार करते ही है । दिगम्बर परम्परा को भी यह मानने में कोई आपत्ति छोड़कर श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य के प्राचीनतम अंश प्राय: इस नहीं होगी कि महावीर के संघ में दिगम्बर मुनियों के अतिरिक्त ऐलक सम्बन्ध में स्पष्टरूप से कुछ भी प्रकाश नहीं डालते हैं जबकि सम्प्रदाय
और क्षुल्लक भी थे । मात्र वस्त्रधारी होने से ऐलक और क्षुल्लक गृहस्थ भेद के बाद रचित परवर्ती साहित्य में दोनों अपने पक्ष की पुष्टि करते नहीं कहे जा सकते । गृहस्थ तो घर में निवास करता है । जिसने घर, हैं। ज्ञाताधर्मकथा जिसमें मल्ली का स्त्री तीर्थंकर के रूप में चित्रण है परिवार आदि का परित्याग कर दिया है वह तो अनगार है, प्रव्रजित है, तथा अन्तकृतदशा जिसमें अनेक स्त्रियों की मुक्ति के उल्लेख हैं, विद्वानों मुनि है । अत: ऐलक,क्षुल्लक ये मुनियों के वर्ग हैं, गृहस्थों के नहीं। की दृष्टि में संघ-भेद के बाद की रचनाएँ हैं । निष्पक्ष रूप से यदि विचार ऐसा लगता है कि महावीर ने सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीयचारित्र किया जाये तो बात स्पष्ट है कि बंधन और मुक्ति का प्रश्न आत्मा से का जो भेद किया था, उसका सम्बन्ध मुनियों के दो वर्गो से होगा। सम्बन्धित है, न कि शरीर से । बन्धन और मुक्ति दोनों आत्मा की होती जैनेतर साहित्य भी इस बात की पुष्टि करता है कि महावीर के समय में है, शरीर की नहीं । पुनः श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएँ इस विषय में ही निर्ग्रन्थों में सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों वर्ग था । बौद्ध पिटक साहित्य भी एकमत हैं कि आत्मा स्वरूपत: न स्त्री है और न पुरूष । साथ ही में 'निग्गंथा- एक साटका' के रूप में एक वस्त्र धारण करने वाले आत्मा का बन्धन और मुक्ति राग-द्वेष या कषाय की उपस्थिति और निर्ग्रन्थों का उल्लेख है। आचारांग और उत्तराध्ययन में मुनि के वस्त्रों के अनुपस्थिति पर निर्भर है- उसका स्त्रीपर्याय और पुरुषपर्याय से कोई सीधा प्रसंग में 'सान्तरोत्तर' शब्द का प्रयोग हुआ है जो इस बात का प्रमाण सम्बन्ध नहीं है । वस्तुत: जो भी राग-द्वेष की ग्रन्थियों से मुक्त होंगे, जो है कि कुछ निर्ग्रन्थ मुनि - एक अधोवस्त्र (कटिवस्त्र) या अन्तरवासक वीतराग और क्षीण कषाय होंगे और जो निर्वेद अर्थात् स्त्रीत्व-पुरुषत्व के साथ उत्तरीय रखते थे। श्वे० परम्परा द्वारा 'सान्तरोत्तर' का अर्थ रंगीन की वासना से रहित होंगे, वही मुक्त होंगे। मुक्ति का निकटतम कारण या बहुमूल्य वस्त्र करना उचित नहीं । ऐसा लगता है कि जहाँ महावीर राग-द्वेष रूपी कर्म-बीज का नष्ट होना और वीतरागता का प्रकट होना के मुनि या तो नग्न रहते थे या कटिवस्त्र धारण करते थे, वहाँ पार्श्वनाथ है। अत: यही मानना उपयुक्त होगा कि जो भी वीतराग हो सकेगा वही की परम्परा के साधू कटिवस्त्र के साथ उत्तरीय भी धारण करते थे। मुक्त होगा- यहाँ स्त्री का, सवस्त्र मुनि या गृहस्थ का या अन्य परम्पराओं आचारांग की वस्त्र सम्बन्धी यह व्यवस्था ऐलक और क्षुल्लक की वस्त्र- के वेश धारण करने वाला का राग समाप्त होगा या नहीं, इस विवाद मर्यादाओं के रूप में दिगम्बर समाज में आज भी मान्य है। में पड़ना न तो उचित है और न आवश्यक है - जो भी वीतराग एवं
इन सब चर्चाओं के आधार पर हम मुनि के वस्त्र सम्बन्धी इस निर्कषाय हो सकेगा वह मुक्त हो सकेगा - यदि स्त्री पर्यायधारी आत्मा विवाद को इस प्रकार हल कर सकते हैं कि प्राचीन परम्परा के अनुरूप के कषाय क्षीण हो जायेंगे तो वह मुक्त हो जायेगी, यदि नहीं हो सकेंगे मुनियों के दो वर्ग हों-एक निर्वस्त्र और दूसरा सवस्त्र । दिगम्बर परम्परा तो नहीं हो सकेगी। इससे बढ़कर यह कहना कि उसके कषाय समाप्त यह आग्रह छोड़े कि वस्त्रधारी मुनि नहीं है और श्वेताम्बर परम्परा निर्वस्त्र ही नहीं होंगे, हमें कोई चेष्टा नहीं करना चाहिए । पुनः श्वेताम्बर और मुनियों की आचारगत श्रेष्ठता को स्वीकार करे । जहाँ तक मुनि आचार दिगम्बर दोनों परम्पराएँ आज यह मानती हैं कि अभी ८२ हजार वर्ष तक के दूसरे नियमों के प्रश्न हैं - यह सत्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर तो इस भरतक्षेत्र से कोई मुक्त होनेवाला नहीं है । साथ ही दोनों के दोनों की परम्पराओं में मूलभूत आगमिक मान्यताओं से काफी स्खलन अनुसार उन्नीस हजार वर्ष बाद जिनशासन का विच्छेद हो जाना है - हुआ है । आज कोई भी पूरी तरह से आगम के नियमों का पालन नहीं अर्थात् दोनों सम्प्रदायों को भी समाप्त हो जाना है । इसका अर्थ यह हुआ कर कर रहा है । अत: निष्पक्ष विद्वान् आगम ग्रन्थ और युगीन कि दोनों सम्प्रदायों के जीवनकाल में यह विवादास्पद घटना घटित ही परिस्थितियों को दृष्टिगत रखकर वस्त्र-पात्र सम्बन्धी एक आचार-संहिता नहीं होना है तो फिर उस सम्बन्ध में व्यर्थ विवाद क्यों किया जाये । क्या प्रस्तुत करे जिसे मान्य कर लिया जाये ।
इतना मान लेना पर्याप्त नहीं है- जो भी राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर
उठ सकेगा क्रोध, मान, माया और लोभ रूपी कषायों को जीत सकेगा, स्त्रीमुक्ति का प्रश्न और समाधान
वही मुक्ति का अधिकारी होगा। कहा भी है-कषायमुक्ति मुक्तिकिलरेव । श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं का दूसरे विवाद का मुद्दा स्त्रीमुक्ति का है। जहाँ तक इस सम्बन्ध में आगमिक मान्यता का प्रश्न केवली कवलाहार का प्रश्न और समाधान है श्वेताम्बर आगम साहित्य और यापनीय संघ का साहित्य जो मुनि के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्पराओं में विवाद का तीसरा मुद्दा दिगम्बरत्व का समर्थक है, इस बात को स्वीकार करता है कि स्त्री और केवली के आहार-विहार से सम्बन्धित है। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक और सवस्त्र की मुक्ति सम्भव है । यद्यपि कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों और तत्त्वार्थ व्यावहारिक दृष्टि से श्वे० परम्परा का मत अधिक युक्तिसंगत लगता है, की दिगम्बर आचायों की टीकाओं में स्त्रीमुक्ति का निषेध है किन्तु कुछ यद्यपि केवली या सर्वज्ञ को अलौकिक व्यक्तित्व से युक्त मान लेने पर विद्वानों के अनुसार दिगम्बर ग्रन्थ मूलाचार और धवला टीका में इसके यह बात भी तर्कगम्य लगती है कि उसमें आहार आदि की प्रवृत्ति नहीं
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