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श्रमण एवं वैदिक धारा का विकास एवं पारस्परिक प्रभाव
भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। इसकी संरचना में चैतसिक स्तर पर स्वतन्त्र है, मुक्त है। मनोविज्ञान की भाषा में जहाँ एक वैदिकधारा और श्रमणधारा का महत्त्वपूर्ण अवदान है। वैदिकधारा मूलतः ओर वह वासनात्मक अहं (ID) से अनुशासित है, तो दूसरी ओर प्रवृत्तिप्रधान और श्रमणधारा निवृत्तिप्रधान रही है। वैदिकधारा का आदर्शात्मा (Super Ego) से प्रभावित भी है। वासनात्मक अहं उसकी प्रतिनिधित्व वर्तमान में हिन्दूधर्म करता है जबकि श्रमणधारा का शारीरिक माँगों की अभिव्यक्ति का प्रयास है तो आदर्शात्मा उसका प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धर्म करते हैं। किन्तु यह समझना भ्रान्तिपूर्ण आध्यात्मिक स्वभाव है, उसक निज स्वरूप है जो निर्द्वन्द्व एवं निराकुल होगा कि वर्तमान हिन्दूधर्म अपने शुद्ध रूप में मात्र वैदिक परम्परा का चैतसिक समत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिये इन दोनों में से किसी अनुयायी है। आज उसने श्रमणधारा के अनेक तत्त्वों को अपने में समाविष्ट की भी पूर्ण अपेक्षा सम्भव है। उसके जीवन की सफलता इनके बीच के कर लिया है। अत: वर्तमान हिन्दूधर्म वैदिकधारा और श्रमणधारा का एक सन्तुलन बनाने में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्व के ये दो छोर हैं। समन्वित रूप है और उसमें इन दोनों परम्पराओं के तत्त्व सन्निहित हैं। उसकी जीवन-धारा इन दोनों का स्पर्श करते हुए इनके बीच बहती है। इसी प्रकार यह कहना भी उचित नहीं होगा कि जैन धर्म और बौद्धधर्म मूलतः श्रमण-परम्परा के धर्म होते हुए भी वैदिकधारा या हिन्दूधर्म से प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का मनोवैज्ञानिक कारण पूर्णत: अप्रभावित रहे हैं। इन दोनों धर्मों ने भी वैदिक धारा के विकसित मानव-जीवन में शारीरिक विकास वासना को और चैतसिक धर्म से कालक्रम में बहुत कुछ ग्रहण किया है।
विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त-वासना अपनी सन्तुष्टि के लिये यह सत्य है कि हिन्दूधर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा है। उसमें भी यज्ञ-याग 'भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध-विवेक अपने अस्तित्व के लिये और कर्मकाण्ड की प्रधानता है, फिर भी उसमें संन्यास, मोक्ष और वैराग्य 'संयम' या विराग की अपेक्षा करता है। क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय का अभाव नहीं है। अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के तत्त्वों को उसने श्रमण- देने में अक्षम होता है वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर। परम्परा से न केवल ग्रहण किया है अपितु उन्हें आत्मसात भी कर लिया यहीं दो अलग-अलग जीवनदृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार है। यद्यपि वेदकाल के प्रारम्भ में ये तत्त्व उसमें पूर्णत: अनुपस्थित थे, किन्तु वासना और भोग होते हैं तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण
औपनिषदिक काल में उसमें श्रमण-परपरा के इन अनेक तत्त्वों को मान्यता परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या-दृष्टि और दूसरी को सम्यक्-दृष्टि प्राप्त हो चुकी थी। ईशावास्योपनिषद् सर्वप्रथम वैदिकधारा और श्रमणधारा के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषद् में इन्हें क्रमश: प्रेय और के समन्वय का प्रयास है। आज हिन्दूधर्म में संन्यास, वैराग्य, तप-त्याग, श्रेय कहा गया है। कठोपनिषद् में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ध्यान और मोक्ष की जो अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, वे सभी इस तथ्य ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं। उसमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योगका प्रमाण हैं कि वर्तमान हिन्दूधर्म ने भारत की श्रमणधारा से बहुत कुछ क्षेम अर्थात् प्रेय को और विवेकी पुरुष श्रेय को चुनता है। वासना की ग्रहण किया है। उपनिषद् वैदिक और श्रमणधारा के समन्वयस्थल हैं-उनमें तुष्टि के लिये भोग और भोगों के साधनों की उपलब्धि के लिये कर्म वैदिक हिन्दू धर्म एक नया स्वरूप लेता प्रतीत होता है।
अपेक्षित है। इसी भोगप्रधान जीवन-दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ इसी प्रकार श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिकधारा से बहुत है। दूसरी ओर विवेक के लिये विराग (संयम) और विराग के लिये कुछ ग्रहण किया है। श्रमणधारा में कर्मकाण्ड और पूजा-पद्धति तो वैदिकधारा आध्यात्मिक मूल्य-बोध (शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) से आयी ही है, अपितु अनेक हिन्दू देवी-देवता भी श्रमण-परम्परा में मान्य अपेक्षित है। इसी आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि से तप मार्ग का विकास हुआ। कर लिये गए हैं। भारतीय संस्कृति की ये विभिन्न धाराएँ किस रूप में एक- इनमें पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और दूसरी से निवर्तक दूसरे से समन्वित हुई हैं, इसकी चर्चा करने के पूर्व हमें यह देखना होगा धर्म का उद्भव हुआ। प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा, अत: उसने कि इन दोनों धाराओं का स्वतन्त्र विकास किन मनोवैज्ञानिक और पारिस्थितिक अपनी साधना का लक्ष्य-सुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया। जहाँ कारणों से हुआ है, तथा क्यों और कैसे इनका परस्पर समन्वय हुआ? ऐहिक जीवन में उसने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की, प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों का उद्भव
वहीं पारलौकिक जीवन में स्वर्ग (भौतिक सुख-सुविधाओं की उच्चतम मानव-अस्तित्व द्वि-आयामी एवं विरोधाभास पूर्ण है। यह अवस्था) की प्राप्ति को ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। स्वभावत: परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रों पर स्थित है। वह न केवल शरीर पुनः आनुभविक जीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलौकिक एवं है और न केवल चेतना, अपितु दोनों की एक विलक्षण एकता है। यही प्राकृतिक शक्तियाँ उसके सुख-सुविधाओं की उपलब्धि के प्रयासों को कारण है कि उसे दो भिन्न स्तरों पर जीवन जीना होता है। शारीरिक स्तर सफल या विफल बना सकती हैं एवं उसकी सुख-सुविधाएँ उसके अपने पर वह वासनाओं से चालित है और वहाँ उन पर यान्त्रिक नियमों का पुरुषार्थ पर नहीं, अपितु इन शक्तियों की कृपा पर निर्भर हैं, तो वह इन्हें आधिपत्य है किन्तु चैतसिक स्तर पर वह विवेक से शासित है, यहाँ उसमें प्रसन्न करने के लिये एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो संकल्प-स्वातन्त्र्य है। शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतन्त्र है किन्तु दूसरी ओर उन्हें बलि और यज्ञों के माध्यम से सन्तुष्ट करने लगा। इस
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