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जैन एकता का प्रश्न
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अपने इतिहास और संस्कृति को ही अस्वीकार करना होगा। पत्थर का चुम्बन, हजरत मुहम्मद के पवित्र बाल के प्रति मुस्लिम
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि जैनधर्म की श्वेताम्बर और सम्प्रदाय की आस्था, कब्र-पूजा और मुहर्रम ये सब प्रतीकपूजा के ही तो दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मूर्तिपूजा का विरोध सोलहवीं शताब्दी से रूप हैं। अधिक क्या मूर्तिपूजा के विरोधी जैनधर्म के स्थानकवासी, प्रारम्भ हुआ। मूर्तिपूजा-विरोधी यह आन्दोलन इस्लामधर्म से प्रभावित तेरापंथी और तारणपंथी सम्प्रदायों के अनुयायियों के घरों में भी अपने है । इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जैनधर्म में मूर्तिपूजा पूज्य माता-पिताओं, धर्म-गुरूओं और साधु-साध्वियों के चित्रों को का विरोध करने वाले लोंकाशाह और तारण स्वामी दोनों ही मुस्लिम सुविधा से देखा जा सकता है । स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा के शासकों के राज्याधिकारी थे। किन्तु यह मानना भी कि केवल मुसलमानों अधिकांश घर अब अपने आचार्यों के चित्रों से मंडित हैं और उन चित्रों के प्रभाव के कारण जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध प्रारम्भ हुआ पूरी तरह के प्रति उनके मन में श्रद्धा और आदर का भाव है । लेखक ने स्वयं सत्य नहीं होगा । जैनधर्म में मूर्तिपूजा के विरोध के कुछ आन्तरिक अनेक स्थानों पर स्थानकवासी और तेरापंथी आचार्यों के चित्रों के समीप कारण भी थे। मूर्तिपूजा के नाम बढ़ता हुआ आडम्बर, हिंसा का समर्थन उनके अनुयायियों को धूप-दीपदान करते देखा है । अनेक स्थानकवासी, और जटिल कर्मकाण्ड भी इस विरोध में सहायक बने हैं। तेरापंथी और तारणपंथी तीर्थयात्रा करते हुए आसानी से देखे जा सकते
मूर्तिपूजा सम्बन्धी जो विवाद आज जैन सम्प्रदायों में है, हैं। यद्यपि निर्गुणोपासना या भावाराधना एक उच्च स्थिति है किन्तु मूर्ति उसका निर्णय यदि शास्त्र की अपेक्षा सामान्य बुद्धि के आधार पर करें का पूर्ण विरोध समुचित नहीं है । मूर्तियों और चित्रों के प्रति मनुष्य का तो किसी एक समन्वयात्मक निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है । उस आकर्षण और श्रद्धाभाव स्वाभाविक है। सम्बन्ध में उसकी उपयोगिता को ही आधार बनाकर चलना होगा। यह सही है कि मनुष्यों की भावनाओं के पवित्रीकरण एवं निष्पक्ष शोधों से यह बात स्पष्टरूप से प्रमाणित हो चुकी है कि जैनधर्म वीतराग के गुणों का स्मरण दिलाने में मूर्ति निमित्त कारण अवश्य है। में मूर्ति और मूर्ति-पूजा का विकास क्रमिकरूप से हुआ है । पुरातात्त्विक वह ध्यान का आलम्बन है तथा हमारे हृदयों को पवित्र भावनाओं और और साहित्यिक साक्ष्य इसके प्रमाण हैं । दूसरे यह भी सत्य है कि श्रद्धा से आपूरित करती है । अत: मूर्ति का ऐकान्तिक विरोध भी उचित मर्तिपूजा को लेकर परवर्तीयुग में जितने आडम्बर और कर्मकाण्ड खड़े नहीं है । यद्यपि मूर्ति को मूर्तिरूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वह किये गये हैं, उन्होंने जैनधर्म की मूलात्मा पर कुठाराघात किया है। वीतराग-प्रभु या भगवान् नहीं । मूर्ति भगवान् है-यह मानने के कारण उन्होंने एक सहज एवं सरल साधना पद्धति को जटिल बनाया है। अनेक अन्धविश्वासों को बढ़ावा मिलता है। मूर्तियों के सम्बन्ध में अनेक मूर्तिपूजा के साथ जुड़नेवाले इस कर्मकाण्ड पर ब्राह्मण संस्कृति और चमत्कारिक घटनाएँ प्रचलित हैं, वे चाहे एक बार हमारी श्रद्धा को भक्तिमार्ग का प्रभाव है । चक्रेश्वरी, मणिभद्र एवं यक्ष-यक्षी, भैरव आदि आन्दोलित करती हों किन्तु जैनधर्म की साधना और उपासना से उसका की पूजा एवं यज्ञ जैन-सिद्धान्तों की मूलात्मा के साथ मेल नहीं खाते कोई सम्बन्ध नहीं है कि जिसकी वे प्रतिमाएँ हैं, वह तो वीतराग है - हैं । यद्यपि जैनों की आस्था को दूसरी ओर केन्द्रित होता देखकर उसका इस चमत्कार प्रदर्शन आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि यह जैनाचायों को यह सब करना पड़ा था।
कहा जाए कि जिन शासन के रक्षक देव ऐसा करते हैं तो वे उन यह निर्विवाद तथ्य है कि मानव जाति के इतिहास में प्रारम्भ अतिशय क्षेत्रों की प्रतिमाओं जिन्हें लेकर दोनों पक्ष न केवल झगड़ते हैं, से ही मूर्तियों और प्रतिकृतियों का महत्व रहा है। आदि-युग के शैलचित्र अपितु उस प्रतिमा के साथ भी अशोभनीय कृत्य करते हैं सम्बन्ध में
और गुहाचित्र इस बात के प्रमाण हैं कि मानवीय सभ्यता के प्रारम्भ से कोई ऐसा चमत्कार क्यों नहीं दिखाते, जिससे विवाद शांत हो जाये ओर ही प्रतिकृतियों के निर्माण ने मनुष्य को आकर्षित किया है। प्रतीक पूजा सही स्थिति प्रकट हो जाये । क्या जिन और जिनशासन की इस फजीहत का इतिहास बहुत पुराना है । वस्तुत: मानवीय सभ्यता प्रतीकात्मक को देखकर उन्हें तरस नहीं आता ? अत: मूर्ति को चमत्कार से नहीं, कला के सहारे ही विकसित हुई है। हमारी भाषा और हमारे शब्द-संकेत साधना से जोड़ें। जिनके आधार पर हमारे धर्मशास्त्र रचे गये हैं, मानवीय भावनाओं और जहाँ तक श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मूर्तियों की विचारों की अभिव्यक्ति की प्रतीकात्मक शैली हैं। चाहे हम वृक्षों की भिन्नता के समाधान का प्रश्न है, यह सत्य है कि प्रारम्भ में श्वेताम्बर जैन पूजा करें, स्तूपों की पूजा करें, चाहे शास्त्रों की पूजा करें या मूर्तियों की भी नग्न मूर्तियों की ही पूजा करते हैं । मथुरा की दिगम्बर मूर्तियाँपूजा करें, सभी प्रतीक पूजा के रूप हैं । वास्तविकता यह है कि मानव श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा ही प्रतिष्ठित थीं। उनके गच्छ और शाखाओं अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकों, चित्रों और प्रतिकृतियों के नाम नन्दी और कल्पसूत्र की पट्टावलियों के अनुरूप ही हैं । वहाँ जो (मूर्तियों) का उपयोग करता रहा है । मात्र यही नहीं, वह अपने पूज्यजनों कण्ह नामक जैन मुनि की मूर्ति मिली है, कटिवस्त्र के चिह्न से युक्त नहीं के प्रतीक चिह्नों और उनकी प्रतिकृतियों के प्रति प्राचीनकाल से ही श्रद्धा है, अत: श्वेताम्बर और दिगम्बर मूर्तियों की यह भिन्नता संघभेद के बहुत
और सम्मान का भाव रखता आया है। आदिम जातियों में तथा हिन्दू बाद की घटना है । आभूषण, अलंकरण और स्फटिक नेत्र आदि का धर्म में प्रतीकपूजा प्रचलित है ही, किन्तु मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी प्रयोग और भी बाद में हुआ है । निष्पक्ष दृष्टि से विचार करने पर यह इस्लाम धर्म में भी किसी रूप में प्रतीकपूजा प्रचलित है । काबे के पवित्र लगता है कि वीतराग प्रतिमा पर यह अंग प्रशोभन उचित नहीं है । मूर्ति
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