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जैन एवं बौद्ध धर्म में स्वहित और लोकहित का प्रश्न
५७३ शरण के समान है, पक्षियों के लिए आकाश-गमन के समान निर्बाध रूप सामान्यतया विश्व-कल्याण और वैयक्तिक कल्याण की भावनाओं से हितकारिणी है प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, के आधार पर साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं। समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी इसमें तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान इसलिए दिया जाता है कि वह लोकमें सहायक के समान है११ । तीर्थंकर नमस्कार सूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर कल्याण के आदर्श को अपनाता है। जिस प्रकार बौद्ध धर्म में बोधिसत्व के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन और अर्हत् के आदर्शों में भिन्नता है उसी प्रकार जैन धर्म में तीर्थंकर विशेषणों का उपयोग हुआ है वे भी जैन दृष्टि की लोक मंगलकारी और सामान्य केवली के आदर्शों में तारतम्यात्मक भिन्नता है । भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म प्रवर्तन प्राणियों इन सबके अतिरिक्त जैन धर्म में संघ (समाज) को सर्वोपरि के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए१२ । यदि माना गया है । संघहित समस्त वैयक्तिक साधनाओं से भी ऊपर है; ऐसा माना जाए कि जैन साधना केवल आत्महित, आत्मकल्याण की परिस्थिति विशेष में संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक साधना का बात कहती है तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन या संघ संचालन का परित्याग भी आवश्यक माना गया है। जैन साहित्य में आचार्य कालक कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें की कथा इसका सबल उदाहरण है। अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता । अत: मानना स्थानांग सूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों)१७ का निर्देश किया पड़ेगा कि जैन साधना का आदर्श मात्र आत्म-कल्याण ही नहीं वरन् गया है उसमें संघधर्म, गणधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और लोक-कल्याण भी है।
कुलधर्म की उपस्थिति इस बात का सबल प्रमाण है कि जैन दृष्टि न जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही केवल आत्महित या वैयक्तिक विकास तक सीमित है, वरन् उसमें महत्त्व दिया है । जैन विचारणा के अनुसार साधना की सर्वोच्च ऊँचाई लोकहित या लोक-कल्याण का अजस्त्र प्रवाह भी प्रवाहित हो रहा है। पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से यद्यपि समान यद्यपि जैनदर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, ही होते हैं फिर भी जैन विचारकों ने उनकी आत्महितकारिणी और लेकिन उसकी एक शर्त है, वह यह कि परार्थ के लिए स्वार्थ का लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर उनमें विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं । उसके अनुसार उच्चावच्च क्रम को स्वीकार किया है । एक सामान्य केवली (जीवन्मुक्त) वैयक्तिक भौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिए समर्पित
और तीर्थकर में आध्यात्मिक पूर्णताएँ समान ही होती हैं, फिर भी किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् तीर्थंकर की लोकहित की दृष्टि के कारण ही तीर्थंकर को सामान्य केवली से ही मिली हैं, वे वस्तुत: संसार की हैं, हमारी नहीं । सांसारिक की अपेक्षा उच्च स्थान दिया गया है।
उपलब्धियाँ संसार के लिए हैं, अत: उनका लोकहित के लिए विसर्जन जैन धर्म के अनुसार जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त कर लेने किया जाना चाहिए । लेकिन आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक वाले व्यक्तियों के भी लोकहित के आधार पर तीन वर्ग होते हैं - नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुण्ठित किया जाना, उसे स्वीकार १. तीर्थंकर २. गणधर ३. मुण्डकेवली ।
नहीं है । ऐसा लोकहित जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक
कुण्ठन से फलित होता हो उसे स्वीकार नहीं है । लोकहित और १. तीर्थंकर - तीर्थंकर वह है जो सर्वहित के संकल्प को आत्महित के सन्दर्भ में उसका स्वर्णसूत्र है आत्महित करो और यथाशक्य लेकर साधना मार्ग में आता है और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त लोकहित भी करो लेकिन जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय आत्महित के कुण्ठन पर ही लोकहित फलित होता हो तो वहाँ आत्मऔर लोक-कल्याण ही उसके जीवन का ध्येय होता है। कल्याण ही श्रेष्ठ है।
२. गणधर - सहवर्गीय हित के संकल्प को लेकर साधना आत्महित स्वार्थ नहीं है - आत्महित स्वार्थवाद नहीं है । क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाला और अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर आत्मकाम वस्तुत: निष्काम होता है क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं लेने पर भी सहवर्गीयों के हित एवं कल्याण के लिए प्रयत्नशील रहने होती है, उसका कोई स्वार्थ नहीं होता । स्वार्थी तो वह है, जो यह वाला साधक गणधर कहलाता है । वर्गहित या गण कल्याण गणधर चाहता है कि सभी लोग उसके हित के लिए कार्य करें । आत्मार्थी स्वार्थी के जीवन का ध्येय होता है।
नहीं है, उसकी दृष्टि तो यह होती है कि सभी अपने हित के लिए कार्य
करें । स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की ३. सामान्य केवली या मुण्डकेवली • आत्म कल्याण साधना में राग-द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं जबकि आत्महित या को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया होता है और जो इसी आत्म-कल्याण के लिए राग-द्वेष से युक्त होकर आत्मकल्याण की आधार पर साधना मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक पूर्णता की सम्भावना ही नहीं रहती । यथार्थ आत्महित में राग-द्वेष का अभाव उपलब्धि करता है, वह मुण्डकेवली कहलाता है।५ ।
होता है । स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी तक है जबकि
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