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जैन एकता का प्रश्न
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विश्व के प्रमुख धर्मों में जैनधर्म एक अल्पसंख्यक धर्म है लगभग ३ अरब की जनसंख्या वाले इस भूमण्डल पर जैनों की जनसंख्या ५० लाख से अधिक नहीं है अर्थात विश्व के ६०० व्यक्तियों में केवल १ व्यक्ति जैन हैं दुर्भाग्य यह है कि एक अल्पसंख्यक धर्म होते हुए भी वह आज अनेक सम्प्रदायों और उपसम्प्रदायों में बँटा हुआ है । दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो मूल शाखाएँ तो हैं ही, किन्तु वे शाखाएँ भी अवान्तर सम्प्रदायों में और सम्प्रदाय गच्छों में विभाजित हैं । दिगम्बर परम्परा के बीसपंथ, तेरापंथ और तारणंपथ ये तीन उपविभाग हैं । वर्तमान में कानजी स्वामी के अनुयायियों का नया सम्प्रदाय भी बन गया है। श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजक, स्थानकवासी, तेरापंथी ये तीन सम्प्रदाय हैं। इनमें मूर्तिपूजक और स्थानकवासी अनेक गच्छों में विभाजित हैं । तेरापंथी सम्प्रदाय में भी अब नवतेरापंथ का उदय हुआ है। इनके अतिरिक्त भी जैनधर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं की मध्यवर्ती योजक कड़ी के रूप 'वापनीय' नामक एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर १५ वीं शताब्दी तक अस्तित्व में रहा। किन्तु आज यह विलुप्त हो गया है। वर्तमान में श्रीमद्राजचन्द्र के कविपंथ का भी एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय के रूप में अस्तित्व है, यद्यपि इसके अनुयायी बहुत ही कम हैं। जैनधर्म के ये सभी सम्प्रदाय आज परस्पर बिखरे हुए हैं और कोई भी ऐसा सूत्र तैयार नहीं हो पाया है जो इन बिखरी हुई कड़ियों को एक दूसरे से जोड़ सके भारत जैन महामण्डल नामक संस्था के माध्यम से इन्हें जोड़ने का प्रयास किया गया किन्तु उसमें उल्लेखनीय सफलता प्राप्त नहीं हुई ।
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जैन समाज न केवल धार्मिक दृष्टि से विभिन्न सम्प्रदायों में बँटा हुआ है अपितु सामाजिक दृष्टि से अनेक जातियों और उपजातियों में विभाजित है। इसमें अग्रवाल, खण्डेवाल, बघेरवाल, मोड़ आदि कुछ जातियों की स्थिति तो ऐसी है जिनके कुछ परिवार जैनधर्म के अनुयायी हैं तो कुछ वैष्णव एक ही जाति में विभिन्न जैन उपसम्प्रदायों के अनुयायी भी पाये जाते हैं जैसे ओसवालों में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक स्थानकवासी और तेरापंथी इन तीनों सम्प्रदायों के अनुयायी तो प्रचुरता से पाये ही जाते हैं किन्तु क्वचित् दिगम्बर जैन और वैष्णव धर्म के अनुयायी भी मिलते हैं ।
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जातिवाद का विष
डा० विलास आदिनाथ संगवे ने अपनी पुस्तक 'जैन कम्युनिटी' में उत्तर भारत की ८४ तथा दक्षिण भारत की ९१ जैन जातियों का उल्लेख किया है। पुराने समय में तो इन जातियों में पारस्परिक भोजनव्यवहार सम्बन्धी कठोर प्रतिबन्ध थे। विवाह सम्बन्ध तो पूर्णतया वर्जित थे आज खान-पान (रोटी व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध तो शिथिल । हो गये हैं किन्तु विवाह (बेटी व्यवहार) सम्बन्धी प्रतिबन्ध अभी भी
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यथावत् हैं। आश्चर्य तो यह है कि आज भी एक जाति का जैन परिवार अपनी जाति के वैष्णव परिवार में तो विवाह सम्बन्ध कर लेगा किन्तु इतर जाति के जैन परिवार में विवाह सम्बन्ध करना उचित नहीं समझेगा। विगत दो दशकों में हिन्दू खटिक एवं गुजराती बलाईयों के द्वारा जैनधर्म अपनाने के फलस्वरुप वीरवाल और धर्मपाल नामक जो दो नवीन जैन जातियां अस्तित्व में आई हैं किन्तु उनके साथ भी पारस्परिक सामाजिक एकात्मकता का अभाव ही है। जैन जातियों में पास्परिक अलगाव की यह स्थिति उनकी भावनात्मक एकता में बाधक है । हमारा बिखराव दोहरा है- जातिगत और दूसरा सम्प्रदायगत | जब तक इन जातियों में परस्पर विवाह सम्बन्ध और समानस्तर की सामाजिक एकात्मकता स्थापित नहीं होगी तब तक भावनात्मक एकता को स्थायी आधार नहीं मिलेगा। अनेक जातियों में जो दसा और बीसा का भेद है और उस आधार पर या सामान्यरूप में भी जातियों को एक दूसरे से ऊँचा-नीचा समझने की जो प्रवृत्ति है, उसे भी समाप्त करना होगा। वर्तमान परिस्थितियों में चाहे इन जातिगत विभिन्नताओं को मिटा पाना सम्भव नहीं हो, किन्तु उन्हें समान स्तर की सामाजिकता तो प्रदान की जा सकती है। यदि समान स्तर की सामाजिकता और पारस्परिक विवाह सम्बन्ध स्थापित हो जायें तो जातिवाद की ये दीवारें अगली दोचार पीढ़ियों तक स्वतः ही उह जायेंगी जैनधर्म मूलतः जातिवाद का समर्थक नहीं रहा है, यह सब उस पर ब्राह्मण संस्कृति का प्रभाव है। यदि हम अन्तरात्मा से जैनत्व के हामी हैं तो हमें ऊँच नीच और जातिवाद की इन विभाजक दीवारों को समाप्त करना होगा, तभी भावनात्मक सामाजिक एकता का विकास हो सकेगा ।
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साम्प्रदायिकता का विष
आज जैन समाज का श्रम, शक्ति और धन किन्हीं रचनात्मक कार्यों में लगने के बजाय पारस्परिक संघर्षो तीर्थों और मन्दिरों के विवादों, ईर्ष्यायुक्त प्रदर्शनी और आडम्बरों तथा थोथी प्रतिष्ठा की प्रतिस्पर्धा में किये जाने वाले आयोजनों में व्यय हो रहा है। इस नग्न सत्य को कौन नहीं जानता है कि हमने एक-एक तीर्थ और मंदिर के झगड़ों में इतना पैसा बहाया है और बहा रहे हैं कि उस धन से उसी स्थान पर दस-दस भव्य और विशाल मन्दिर खड़े किये जा सकते थे। अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्सी केसरियाजी जैसे अनेक तीर्थ स्थलों पर आज भी क्या हो रहा है? जिस जिन प्रतिमा को हम पूज्य मान रहे हैं, उसके साथ क्या-क्या कुकर्म हम नहीं कर रहे हैं ? उस पर उबलता पानी डाला जाता है, नित्यप्रति गरम शलाखों से उसकी आँखे निकाली और लगायी जाती हैं। अनेक बार लंगोट आदि के चिह्न बनाये और मिटाये गये हैं। क्या यह सब हमारी अन्तरात्मा को कचोटता नहीं है ? पारस्परिक संघर्षो में वहाँ जो घटनाएं घटित हुई हैं, वे क्या
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