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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ का विनाश करके मानव के अस्तित्व को बचाने के प्रयत्न होते रहे हैं। के उत्सर्ग के परिणामस्वरूप जो विजातीय तत्त्व जल में मिलते हैं, किन्तु अब विज्ञान यह बताता है कि जीवन के दूसरे रूपों का अनवरत उनसे बहुतायत से जलीय जीवों की हिंसा होती है और जल प्रदूषित विनाश करके हम मानव का अस्तित्व भी नहीं बचा सकते हैं । इस होता है । जैन परम्परा में आज भी यह लोकक्ति है कि पानी का उपयोग सम्बन्ध में दूसरी जीवन-दृष्टि यह रही कि एक जीवन, जीवन के दूसरे घी से भी अधिक सावधानी से करना चाहिये । मुझे स्वयं वे दिन याद रूपों के सहयोग पर आधारित है -- जैनाचार्यों ने इसी जीवन-दृष्टि का हैं, जब घी के गिरने पर उतनी प्रताड़ना नहीं मिलती थी, जितनी एक उद्घोष किया था । आज से लगभग अठारह सौ वर्ष पूर्व आचार्य गिलास पानी के गिर जाने पर । आज से २०-२५ वर्ष पूर्व तक जैन उमास्वाति ने एक सूत्र प्रस्तुत किया -- 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् मुनि यह नियम या प्रतिज्ञा दिलाते थे कि नदी, कुएँ आदि में प्रवेश करके अर्थात् जीवन एक दूसरे के सहयोग पर आधरित है । विकास का मार्ग स्नान नहीं करना, स्नान में एक घड़े से अधिक जल का व्यय नहीं करना हिंसा या विनाश नहीं परस्पर सहकार है । एक-दूसरे के पारस्परिक आदि । उनके ये उपदेश हमारी आज की उपभोक्ता संस्कृति को सहकार या सहयोग पर जीवन-यात्रा चलती है । जीवन के दूसरे रूपों हास्यास्पद लगते हों किन्तु भविष्य में जो पीने योग्य पानी का संकट के सहकारी बनकर ही हम अपना जीवन जी सकते हैं । प्राणी-जगत् आने वाला है उसे देखते हुए, ये नियम कितने उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण पारस्परिक सहयोग पर आश्रित है। हमें अपना जीवन जीने के लिये दूसरे हैं, इसे कोई भी व्यक्ति सरलता से समझ सकता है । जैन परम्परा में प्राणियों के सहयोग की और दूसरे प्राणियों को अपना जीवन जीने के मुनियों के लिये तो सचित्तजल (जीवन युक्त जल) के प्रयोग का ही लिये हमारे सहयोग की आवश्यकता है । हमें जीवन जीने (भोजन, निषेध है । जैन मुनि केवल उबला हुआ गर्म पानी या अन्य किन्हीं साधनों प्राणवायु आदि) के लिये वनस्पति जगत् की आवश्यकता है तो से जीवाणु रहित हुआ जल ही ग्रहण कर सकता है । सामान्य उपयोग वनस्पति को अपना जीवन जीने के लिये जल, वायु, खाद आदि की के लिये वह ऐसा जल भी ले सकता है जिसका उपयोग गृहस्थ कर आवश्यकता है । वनस्पति से प्राप्त आक्सीजन, फल, अन्न आदि से चुका हो और उसे बेकार मानकर फेंक रहा हो । गृहस्थ उपासक के लिये हमारा जीवन चलता है तो हमारे द्वारा प्राप्त कार्बनडाईआक्साईड एवं भी जल के उपयोग से पूर्व उसका छानना और सीमित मात्रा में ही उसका मल-मूत्र आदि से उनका जीवन चलता है । अत: जीवन जीने के लिये उपयोग करना आवश्यक माना गया है। बिना छना पानी पीना जैनों के जीवन के दूसरे रूपों का सहयोग तो हम ले सकते हैं किन्तु उनके लिए पापाचरण माना गया है । जल को छानना अपने को प्रदूषित जल विनाश का हमें अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके विनाश में हमारा भी ग्रहण से बचाना है और इस प्रकार वह स्वास्थ्य के संरक्षण का भी विनाश निहित है। दूसरे की हिंसा वस्तुत: हमारी ही हिंसा है, इसलिये अनुपम साधन है । जल के अपव्यय का मुख्य कारण आज हमारी आचारांग में कहा गया था - जिसे तू मारना चाहता है, वह तो तू ही उपभोक्ता संस्कृति है । जल का मूल्य हमें इस लिये पता नहीं लगता है -- क्योंकि यह तो तेरे अस्तित्व का आधार है" । सहयोग लेना और है, कि प्रथम तो वह प्रकृति का नि:शुल्क उपहार है, दूसरे आज नल दूसरों को सहयोग करना यही प्राणी जगत् की आदर्श स्थिति है । जीवन में टोटी खोलकर हम उसे बिना परश्रिम के पा लेते हैं । यदि कुओं से कभी भी दूसरों के सहयोग के बिना नहीं चलता है । जिसे हम दूसरों स्वयं जल निकाल कर और उसे दूरी से घर पर लाकर इसका उपयोग के सन्दर्भ में अपना अधिकार मानते हैं, वहीं दूसरों के प्रति हमारा कर्तव्य करना हो तो जल का मूल्य क्या है, इसका हमें पता लगे । चाहे इस भी है । इसे हमें नहीं भूलना है। सर्वत्र जीवन की उपस्थिति की कल्पना, युग में जीवनोपयोगी सब वस्तुओं के मूल्य बढ़े हों किन्तु जल तो सस्ता उसके प्रति अहिंसक दृष्टि का परिणाम यह हुआ कि जैन आचार्यों ने ही हुआ है । जल का अपव्यय न हो इसलिये प्रथम आवश्यकता यह जीवन के विविध रूपों की हिंसा और उनके दुरूपयोग को रोकने हेतु है कि हम उपभोक्ता संस्कृति से विमुख हो । जहाँ पूर्व काल में जंगल आचार के अनेक विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया । आगे हम जल में जाकर मल विसर्जन, दातौन, स्नान आदि किया जाता था, वहाँ जल प्रदूषण, वायुप्रदूषण, खाद्य-सामग्री के प्रदूषण से बचने के लिये जैनाचार्यों का कितना कम उपयोग होता था यह किसी से छिपा नहीं है । पन: वह ने किन आचार नियमों का प्रतिपादन किया है, इसकी चर्चा करेंगे। मल एवं जल भी जंगल के छोटे पौधों के लिये खाद व पानी के रूप
में उपयोगी होता था । आज की पाँच सितारा होटलों की संस्कृति में जल प्रदूषण और जल-संरक्षण
प्रत्येक व्यक्ति पहले से पचास गुना अधिक जल का उपयोग करता है। जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये एवं उसके सीमित जो लोग जंगल में मल-मूत्र विसर्जन एवं नदी किनारे स्नान करते थे उपयोग के लिये जैन ग्रन्थों में अनेक निर्देश उपलब्ध हैं । यद्यपि प्राचीन उनका जल का वास्तविक व्यय दो लिटर से अधिक नहीं था और काल में ऐसे बड़े उद्योग नहीं थे, जिनसे बड़ी मात्रा में जल प्रदूषण हो, उपयोग किया गया जल भी या तो पौधों के उपयोग में आता था या फिर फिर भी जल में अल्प मात्रा में भी प्रदूषण न हो इसका ध्यान जैन परम्परा मिट्टी और रेत से छनकर नदी में मिलता था किन्तु आज पाँच सितारा में रखा गया है । जैन परम्परा में प्राचीन काल से अवधारणा रही है कि होटल में एक व्यक्ति कम से कम पाँच सौ लिटर जल का अपव्यय कर नदी, तालाब, कुएँ आदि में प्रवेश करके स्नान, दातौन तथा मलमूत्र देता है । यह अपव्यय हमें कहाँ ले जायेगा, यह विचारणीय है। आदि का विसर्जन नहीं करना चाहिये, क्योंकि जल में शारीरिक-मलों
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