________________
जैन एवं बौद्ध धर्म में स्वहित और लोकहित का प्रश्न
स्वार्थ और परार्थ की समस्या बहुत पुरानी है। नैतिक चिन्तन के प्रारम्भ से ही स्वहित और लोकहित का प्रश्न महत्त्वपूर्ण रहा है। एक ओर चाणक्य कहते हैं - 'स्त्री, धन आदि से बढ़कर अपनी रक्षा का प्रयत्न करना चाहिए।' विदुर ने भी कहा है जो स्वार्थ को छोड़कर परार्थ करता है, जो मित्रों अर्थात् दूसरे लोगों के लिए व्यर्थ ही श्रम करता है वह मूर्ख ही है।' किन्तु दूसरी ओर यह भी कहा जाता है, स्वहित के लिए तो सभी जीते हैं जो लोक हित के लिए, परार्थ के लिए जीता है, वस्तुतः उसका जीवन ही सफल है। जिस जीवन में परोपकार वृत्ति नहीं हो उससे तो मरण ही अच्छा है।
Jain Education International
स्वार्थवाद और परार्थवाद के अर्थ पर भी विचार कर लेना होगा ।
स्वार्थवाद 'आत्मरक्षण' है और परार्थवाद 'आत्मत्याग' है। मैकेन्जी लिखते हैं- 'जब हम केवल अपने ही व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि चाहते हैं तब इसे स्वार्थवाद कहा जाता है; परार्थवाद है दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास करना' ।' दूसरे शब्दों में स्वार्थवाद को स्वहितवादी दृष्टिकोण और परार्थवाद को लोकहितवादी दृष्टिकोण भी कह सकते हैं ।
जैन दर्शन में स्वार्थ और परार्थ की समस्या
यदि स्वार्थ और परार्थ की उपरोक्त परिभाषा स्वीकार की जाए तो जैन दर्शन को न स्वार्थवादी कहा जा सकता है, न परार्थवादी ही । जैन दर्शन आत्मा के स्वगुणों के रक्षण एवं स्वाध्याय की बात कहता हैं, इस अर्थ में वह स्वार्थवादी है, लेकिन इसके साथ ही वह कषायात्मा के विसर्जन, वासनात्मक आत्मा के त्याग को भी आवश्यक मानता है और इस अर्थ में वह परार्थवादी भी कहा जा सकता है। यदि हम मैकेन्जी की परिभाषा को स्वीकार करें और यह मानें कि व्यक्तिगत साध्य की सिद्धि स्वार्थवाद और दूसरे के साध्य की सिद्धि का प्रयास परार्थवाद है, तो भी जैन दर्शन स्वार्थवादी और परार्थवादी दोनों ही सिद्ध होता है । वह व्यक्तिगत आत्मा से मोक्ष या सिद्धि का समर्थन करने के कारण स्वार्थवादी तो होगा ही लेकिन दूसरे की मुक्ति के हेतु प्रयासशील होने के कारण परार्थवादी भी कहा जा सकेगा। यद्यपि आत्म कल्याण, वैयक्तिक बंधन एवं दुःख से निवृत्ति के दृष्टिकोण से तो जैन साधना का प्राण आत्महित ही है तथापि जिस लोक करुणा एवं लोकहित की अनुपम भावना से अर्हत् प्रवचन का प्रस्फुटन होता है उसे भी नहीं झुठलाया जा सकता ।
1
पाश्चात्य विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने तो स्वार्थ और परार्थ के इस प्रश्न को नैतिकता की वास्तविक समस्या कहा है। यहाँ तक कि पाश्चात्य आचारशास्त्रीय विचारणा में तो स्वार्थ की समस्या को लेकर दो दल बन गये । स्वार्थवादी विचारक जिनमें हाब्स, नीत्शे प्रभृति प्रमुख हैं, यह मानते हैं कि मनुष्य प्रकृत्या केवल स्वार्थ या अपने लाभ से प्रेरित होकर कार्य करता है। वे मानते हैं कि नैतिकता का वही सिद्धान्त समुचित है जो मानव प्रकृति की इस धारणा के अनुकूल हो । उनकी दृष्टि में अपने हित के कार्य करने में ही मनुष्य का श्रेय है। दूसरी ओर बेन्थम, मिल प्रभृति विचारक मानव की स्वसुखवादी मनोवैज्ञानिक प्रकृति को स्वीकार करते हुए भी बौद्धिक आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि परहित की भावना ही नैतिक दृष्टि से उचित है। नैतिक जीवन का साध्य परार्थ है प्रो० मिल केवल परार्थ को स्वार्थ के बौद्धिक आधार पर सिद्ध कर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते वरन् आंतरिक अंकुश (Internal Sanition) के द्वारा उसे स्वाभाविक भी सिद्ध करते हैं, उनके अनुसार यह आंतरिक अंकुश सजातीयता की भावना है जो कि मानव में यद्यपि जन्मजात नहीं है, फिर भी अस्वाभाविक या अनैसर्गिक भी नहीं हैं। दूसरे अन्य विचारक भी जिनमें बटलर, कोंत, शॉपनहॉवर एवं टालस्टाय आदि प्रमुख हैं, मानव की मनोवैज्ञानिक प्रकृति में सहानुभूति, प्रेम आदि जैन साधना में लोकहित के तत्त्वों की उपस्थिति दिखाकर परार्थवादी या लोक मंगलकारी आचारदर्शन का सर्मथन करते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर से लेकर ब्रेडले, ग्रीन, अरबन आदि समकालीन विचारकों तक की एक लम्बी परम्परा ने मानव जीवन के विभिन्न पक्षों को उभारते हुए स्वार्थवाद और परार्थवाद में सामान्य शुभ (Common Good) के रूप में समन्वय साधने का प्रयास किया है। मानव प्रकृति में विविधताएँ हैं, उसमें स्वार्थ और परार्थ के तत्त्व आवश्यक रूप से उपस्थित हैं । आचारदर्शन का कार्य यह नहीं है कि वह स्वार्थवाद या परार्थवाद में से किसी एक सिद्धान्त का समर्थन या विरोध करे। उसका कार्य तो यह है कि 'स्व' और 'पर' के मध्य संघर्षों की सम्भावना का निराकरण किया जा सके। भारतीय आचारदर्शन कहाँ तक और किस रूप में स्व और पर के मध्य संघर्ष की सम्भावना को समाप्त करते हैं, इस बात की विवेचना के पूर्व हमें
आचार्य समन्तभद्र जिनस्तुति करते हुए कहते हैं - हे भगवान् ! आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है। इससे बढ़कर लोक आदर्श और लोक मंगल की कामना क्या हो सकती है ? प्रश्नव्याकरण सूत्र नामक आगम ग्रन्थ में कहा गया है- भगवान् का यह सुकधित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए हैं। जैन साधना लोक मंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। आगे उसी सूत्र में बताया गया है कि जैन साधना की पांचों महाव्रत सब प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं । अहिंसा की विवेचना करते हुए प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है । यह भगवती अहिंसा प्राणियों में भयभीतों के लिए
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.