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जैन धर्म में नारी की भूमिका
आवश्यक सभी पक्षों की सम्पूर्ण शिक्षा दी जाती थी। यद्यपि यह सत्य था। किन्तु निषेध का यह क्रम आगे बढ़ता ही गया । बारहवीं-तेरहवीं है कि उस युग में स्त्री और पुरुष दोनों के लिए कर्म प्रधान शिक्षा का शती के पश्चात् एक युग ऐसा भी आया जब उसमें आगमों के अध्ययन ही विशेष प्रचलन था।
का मात्र अधिकार ही नहीं छीना गया, अपितु उपदेश देने का अधिकार जहाँ तक धार्मिक-आध्यात्मिक शिक्षा का प्रश्न है वह उन्हें भी समाप्त कर दिया गया । आज भी श्वेताम्बर मूर्ति-पूजक परम्परा के भिक्षुणियों के द्वारा प्रदान की जाती थी। सूत्रकृतांग से ज्ञात होता है कि तपागच्छ में भिक्षुणियों को इस अधिकार से वंचित ही रखा गया है । जैन-परम्परा में भिक्षु को स्त्रियों को शिक्षा देने का अधिकार नहीं था ।७७ यद्यपि पुनर्जागृति के प्रभाव से आज अधिकांश जैन सम्प्रदायों में वह केवल स्त्रियों और पुरुषों की संयुक्त सभा में उपदेश दे सकता था। साध्वियाँ आगमों के अध्ययन और प्रवचन का कार्य कर रही हैं । सामान्यतया भिक्षुणियों और गृहस्थ उपासिकाओं दोनों को ही स्थविरा निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्राचीन काल भिक्षुणियों के द्वारा ही शिक्षा दी जाती थी । यद्यपि आगमों एवं आगमिक और आगम युग की अपेक्षा आगमिक व्याख्या युग में किसी सीमा तक व्याख्याओं में हमें कछ सचनायें उपलब्ध होती हैं जिनके आधार पर यह नारी के शिक्षा के अधिकार को सीमित किया गया था। तुलनात्मक दृष्टि कहा जा सकता है कि आचार्य और उपाध्याय भी कभी-कभी उन्हें शिक्षा से यहाँ यह भी द्रष्टव्य है कि नारी-शिक्षा के प्रश्न पर वैदिक और जैन पानातील परम्परा में किस प्रकार समानान्तर परिवर्तन होता गया । आगमिक निर्ग्रन्थ, तीस वर्ष की पर्याय वाली भिक्षणी का उपाध्याय तथा पाँच वर्ष
व्याख्या साहित्य के युग में न केवल शिक्षा के क्षेत्र में अपितु धर्मसंघ की पर्याय वाला निम्रन्थ साठ वर्ष की पर्याय वाली श्रमणी का आचार्य
__ में और सामाजिक जीवन में भी स्त्री की गरिमा और अधिकार सीमित होते
गये। इसका मुख्य कारण तो अपनी सहगामी हिन्दू परम्परा का प्रभाव हो सकता था । जहाँ तक स्त्रियों के द्वारा धर्मग्रन्थों के अध्ययन का
ही था किन्तु इसके साथ ही अचेलता के अति आग्रह ने भी एक प्रश्न है अति प्राचीनकाल में इस प्रकार का कोई बन्धन रहा हो, हमें ज्ञात
महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा अपेक्षाकृत उदार नहीं होता। अन्तकृद्दशा आदि आगम ग्रन्थों में ऐसे अनेक उल्लेख रही
नक उल्लख रही किन्तु समय के प्रभाव से वह भी नहीं बच सकी और उसमें भी मिलते हैं जहाँ भिक्षुणियों के द्वारा सामायिक आदि ११ अंगों का शिक्षा, समाज और धर्मसाधना के क्षेत्र में आगम यग की अपेक्षा अध्ययन किया जाता था । यद्यपि आगमों में न कहीं ऐसा कोई स्पष्ट आगमिक व्याख्या यग में नारी के अधिकार सीमित किये गये । उल्लेख है कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं कर सकती थी और न इस प्रकार काल-क्रम में जैन धर्म में भी भारतीय हिन्दू समाज ही ऐसा कोई विधायक सन्दर्भ उपलब्ध होता है, जिसके आधार पर यह के प्रभाव के कारण नारी को उसके अधिकारों से वंचित किया गया था, कहा जा सके कि स्त्री दृष्टिवाद का अध्ययन करती थी। किन्तु आगमिक फिर भी भिक्षुणी के रूप में उसकी गरिमा को किसी सीमा तक सुरक्षित व्याख्याओं में स्पष्ट रूप से दृष्टिवाद का अध्ययन स्त्रियों के लिए निषिद्ध रखा गया था । मान लिया गया । भिक्षुणियों के लिए दृष्टिवाद का निषेध करते हुए कहा गया कि स्वभाव की चंचलता एवं बुद्धि-प्रकर्ष में कमी के कारण उसके भिक्षुणी-संघ और नारी की गरिमा १ लिए दृष्टिवाद का अध्ययन निषिद्ध बताया गया है। जब एक ओर यह
जैन भिक्षुणी-संघ में नारी की गरिमा को किस प्रकार सुरक्षित मान लिया गया कि स्त्री को सर्वोच्च केवलज्ञान की प्राप्ति हो सकती रखा गया इस सम्बन्ध में यहाँ किंचित् चर्चा कर लेना उपयोगी होगा । है, तो यह कहना गलत होगा कि उनमें बुद्धि-प्रकर्ष की कमी है। मुझे जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं जैनधर्म के भिक्षुणी-संघ के द्वार ऐसा लगता है कि जब हिन्दू परम्परा में उसी नारी को जो वैदिक ऋचाओं बिना किसी भेदभाव के सभी जाति, वर्ण एवं वर्ग की स्त्रियों के लिए की निर्मात्री थी, वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया तो उसी के खुले हुए थे । जैन भिक्षुणी-संघ में प्रवेश के लिए सामान्य रूप से वे प्रभाव में आकर उस नारी को जो तीर्थंकर के रूप में अंग और मूल ही स्त्रियाँ अयोग्य मानी जाती थीं, जो बालिका अथवा अतिवृद्ध हों साहित्य का मूलस्रोत थी, दृष्टिवाद के अध्ययन से वंचित कर दिया अथवा मूर्ख या पागल हों या किसी संक्रामक और असाध्य रोग से गया । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि दृष्टिवाद का मुख्य पीड़ित हों अथवा जो इन्द्रियों या अंग से हीन हों, जैसे अंधी, पंगु, लूली विषय मूलत: दार्शनिक और तार्किक था और ऐसे जटिल विषय के आदि । किन्तु स्त्रियों के लिए भिक्षुणी-संघ में प्रवेश उस अवस्था में भी अध्ययन को उनके लिए उपयुक्त न समझकर उनका अध्ययन निषिद्ध वर्जित था - जब वे गर्भिणी हों अथवा उनकी गोद में अति अल्पवय कर दिया गया हो । बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य की पीठिका में का दूध पीता हुआ शिशु हो । इसके अतिरिक्त संरक्षक अर्थात् माताउनके लिए महापरिज्ञा, अरुणोपपात और दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध पिता, पति, पुत्र की अनुज्ञा न मिलने पर भी उन्हें संघ में प्रवेश नहीं दिया किया गया है । किन्तु आगे चलकर निशीथ आदि अपराध और प्रायश्चित्त जाता था । किन्तु सुरक्षा प्रदान करने के लिए विशेष परिस्थितियों में ऐसी सम्बन्धी ग्रन्थों के अध्ययन से भी उसे वंचित कर दिया गया । यद्यपि स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश की अनुमति दे दी जाती थी। निरवायलिकासूत्र निशीथ आदि के अध्ययन के निषेध करने का मूल कारण यह था कि के अनुसार सुभद्रा ने अपने पति की आज्ञा के विरुद्ध ही भिक्षुणी संघ अपराधों की जानकारी से या तो वह अपराधों की ओर प्रवृत्त हो सकती में प्रवेश कर लिया था । यद्यपि स्थानांग के अनुसार गर्भिणी स्त्री का थी या दण्ड देने का अधिकार पुरुष अपने पास सुरक्षित रखना चाहता भिक्षुणी संघ में प्रवेश वर्जित था, किन्तु उत्तराध्ययननियुक्ति,
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