Book Title: Sagarmal Jain Abhinandan Granth
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 693
________________ ५६४ जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ में कैद कर दिया गया । हिन्दू धर्म में नारी की यह दुर्दशा मुस्लिम उत्पीड़न का शिकार नहीं बनीं । जैनधर्म का भिक्षुणी- संघ ऐसी नारियों आक्रान्ताओं के आगमन के साथ क्रमश: बढ़ती ही गयी । रामचरितमानस के लिए एक शरण-स्थल रहा और उसने उन्हें सम्मानपूर्ण और स्वावलम्बी के रचयिता युग-कवि तुलसीदास को भी कहना पड़ा कि 'ढोल गँवार जीवन जीना सीखाया । यही कारण था कि उसमें सतीप्रथा जैसी वीभत्स शूद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी' । हिन्दू धर्म का मध्ययुग का प्रथाएँ भी अपनी जड़ें नहीं जमा सकीं। जैनधर्म में वे स्त्रियाँ जो सामाजिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि बहुपत्नीप्रथा और सतीप्रथा जैसी क्रूर क्षेत्र में पुरुष के अधीन होकर जीवन जीती थीं भिक्षुणी बनकर पुरुषों के और नृशंस प्रथाओं ने जन्म लेकर उसमें नारी के महत्त्व और मूल्य को लिए वन्दनीय और मार्गदर्शक बन जाती थीं । इस प्रकार तुलनात्मक प्राय: समाप्त ही कर दिया था। वर्तमान समाज व्यवस्था में भी हिन्दू दृष्टि से निश्चय ही हम यह कह सकते हैं कि हिन्दूधर्म की तुलना में धर्म में नारी को पुरुष के समकक्ष गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है यह कहना जैनधर्म में नारी की स्थिति बहुत कुछ सम्मानपूर्ण रही है। कठिन है, यद्यपि नारी चेतना का पुन: जागरण हुआ है किन्तु यह भी भय है कि पश्चिम के अन्धानुकरण में वह कहीं गलत दिशा में मोड़ न (२) बौद्धधर्म और जैनधर्म ले ले। बौद्धधर्म और जैनधर्म दोनों ही श्रमण परम्परा के धर्म रहे हैं हिन्दूधर्म में यद्यपि संन्यास की अवधारणा को स्थान मिला और दोनों में भिक्षुणी संस्था की उपस्थिति रही है, फिर भी नारी के प्रति हुआ है और प्राचीनकाल से ही हिन्दू संन्यासिनियों के भी उल्लेख मिलने जैनधर्म की अपेक्षा बौद्धधर्म का दृष्टिकोण अधिक अनुदार रहा है। प्रथम लगते हैं, फिर भी संन्यासिनियों के आचार-व्यवहार के सम्बन्ध में तो भगवान् बुद्ध भिक्षुणी-संघ की स्थापना के लिए सहमत ही नहीं हुए हिन्दूधर्मग्रन्थ प्राय: मौन ही हैं। हिन्दूधर्म में प्राचीनकाल से लेकर आज थे किन्तु जब अपनी क्षीरदायिका मौसी गौतमी और अन्तेवासी आनन्द तक यत्र-तत्र किन्हीं संन्यासिनियों की उपस्थिति के उल्लेख को छोड़कर ने किसी प्रकार अपने प्रभाव का उपयोग करके बुद्ध को सहमत करने संन्यासिनियों का एक सुव्यवस्थित वर्ग बना हो ऐसा नहीं देखा जाता का प्रयत्न किया तो बुद्ध ने भिक्षुणी-संघ की स्थापना की स्वीकृति कुछ है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में विधवाओं, परित्यक्ताओं और शर्तों के साथ प्रदान की। जबकि जैनधर्म में महावीर के पूर्व में भी पार्श्व अविवाहित स्त्रियों के लिए सम्मान पूर्ण जीवन जीने के लिये कोई का भिक्षुणी-संघ सुव्यवस्थित ढंग से कार्यरत था और महावीर को भी आश्रयस्थल नहीं बन सका और वे सदैव ही पुरुष के अत्याचारों और इस सम्बन्ध में किसी प्रकार का संकोच नहीं हुआ था। इस प्रकार जैनधर्म प्रताड़नाओं का शिकार बनीं । चाहे सिद्धान्तरूप में स्त्रियों के संदर्भ में का भिक्षुणी-संघ बौद्धधर्म के भिक्षुणी-संघ से पूर्ववर्ती था । पुनः बुद्ध ने हिन्दू धर्म में कुछ आदर्शवादी उद्घोष हमें मिल जाएँ किन्तु व्यावहारिक भिक्षुणी-संघ की स्थापना के समय ही जिन अष्ट-गुरुधर्मों (अष्ट पुरुष की जीवन में हिन्दू धर्म में स्त्रियाँ उपेक्षा का ही विषय बनी रहीं। श्रेष्ठता सम्बन्धी नियमों) के पालन के लिए स्त्रियों को बाध्य किया, वे तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि हिन्दू धर्म स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि बुद्ध की दृष्टि नारियों के प्रति अपेक्षाकृत की अपेक्षा जैन धर्म में नारी की स्थिति और भूमिका दोनों ही अधिक अनुदार थी। इन अष्ट गुरुधर्मों के अनुसार भिक्षुणी संघ प्रत्येक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण रहीं। यों तो जैनधर्म हिन्दूधर्म के सहवर्ती धर्म के रूप में ही भिक्षु-संघ के अधीन था । चिर प्रव्रजिता और वयोवृद्ध भिक्षुणी के लिए विकसित हुआ है और इसीलिए प्रत्येक काल में वह हिन्दूधर्म से सद्यः प्रव्रजित भिक्षु न केवल वन्दनीय था अपितु वह उनका अनुशास्ता प्रभावित रहा है । हिन्दूधर्म के नारी सम्बन्धी दृष्टिकोण और उसके भी हो सकता था । भिक्षुणी को उपदेश देने का अधिकार भी नहीं था । दुष्परिणामों का शिकार वह भी बना है । जिस प्रकार हिन्दूधर्म में वेद- यद्यपि यहाँ यह कहा जा सकता है कि बौद्धधर्म के समान ही जैनधर्म ऋचाओं की रचयिता स्त्री को उनके अध्ययन से वंचित कर दिया गया, में भी तो चिरकाल की दीक्षित एवं वयोवृद्ध भिक्षुणी के लिए सद्यः उसी प्रकार जैन धर्म में भी स्त्री के लिए न केवल दृष्टिवाद के अध्ययन दीक्षित भिक्षु वन्दनीय होता है, किन्तु मेरी दृष्टि में जैनधर्म में यह नियम को अपितु आगमों के अध्ययन को भी वर्जित मान लिया गया, यद्यपि बौद्धधर्म के प्रभाव अथवा इस देश की पुरुष प्रधान संस्कृति के कारण प्राचीन आगम साहित्य में स्त्रियों के अंग-आगम के अध्ययन के उल्लेख कालांतर में ही आया होगा। प्राचीनतम आगम आचारांग भिक्षु-भिक्षुणी एवं निर्देश उपलब्ध हैं । यह सत्य है कि इस सम्बन्ध में जैनधर्म ने के नियमों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्धों के निर्देश तो करता है, किन्तु हिन्दूधर्म का अनुसरण ही किया । बृहत्तर हिन्दू समाज का एक अंग बने कहीं यह उल्लेख नहीं करता है कि चिरप्रव्रजित भिक्षुणी सद्यः दीक्षित रहने के कारण जैनों के सामाजिक जीवन में स्त्रियों की स्थिति हिन्दूधर्म भिक्षु को वंदन करे । परवर्ती आगम में भी मात्र ज्येष्ठ-कल्प का उल्लेख के समान ही रही है, फिर भी जैनधर्म की सामाजिक व्यवस्था में हिन्दूधर्म है। की भाँति बहुपत्नीप्रथा इतनी अधिक हावी नहीं हुई कि पुरुष की दृष्टि में ज्येष्ठ-कल्प का तात्पर्य है कि कनिष्ठ अपने से प्रव्रज्या में स्त्री मात्र भोग्या बनकर रह गयी हो। इसके पीछे जैनधर्म का सन्यासमार्गीय ज्येष्ठ को वंदन करे । यह टीकाकारों की अपनी कल्पना है कि उन्होंने दृष्टिकोण ही प्रमुख रहा है। दूसरे जैनधर्म में प्रारम्भ से लेकर आज तक ज्येष्ठ कल्प को पुरुषज्येष्ठ के रूप में व्याख्यायित किया । मूल-आगमों भिक्षुणीसंघ की जो एक सुदृढ़ व्यवस्था रही है, उसके कारण उसमें नारी में ऐसी कोई भी व्यवस्था उपलब्ध नहीं है, जिसके आधार पर जैनधर्म विशेषरूप से विधवा, परित्यक्ता और कमारियाँ पुरुष के अत्याचार और में स्त्री को पुरुष की अपेक्षा निम्न माना गया हो । आगमों में स्त्री को न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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