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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ उसे हम किस अर्थ में अहिंसक कहेंगे।
मंगल कामना हैसमाज को एक आगिक संरचना माना गया है। शरीर में हम सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु । सर्वे सन्तु निरामयाः। स्वाभाविक रूप से यह प्रक्रिया देखते हैं कि किसी अंग की पीड़ा सर्वे भद्राणि पश्यतु। मा कश्चिद् दुःखमाप्नुयात्।। को देखकर दूसरा अंग उसकी सहायता के लिए तत्काल आगे आता लोकमंगल की उसकी सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य है। जब शरीर का कोई भी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय नहीं शान्तिदेव के शिक्षा समुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है। अतः मैं रहता तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि समाज रूपी शरीर में उसकी हिन्दी में अनुदित निम्न पंक्तियों से अपने इस लेख का समापन व्यक्ति रूपी अंग दूसरे अंग की पीड़ा में निष्क्रिय बना रहे। अतः हमें करना चाहूँगा। यह मानकर चलना होगा कि अहिंसा मात्र नकारात्मक नहीं है, उसमें इस दु:खमय नरलोक में, करुणा और सेवा का सकारात्मक पहलू भी है। यदि हम अहिंसा को जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं; साधना का आवश्यक अंग मानते हैं तो हमें सेवा को भी साधना के जितने बहुधन्धी विवेक विहीन है। एक अंग के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा और इससे यही सिद्ध जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदी है, होता है कि सेवा और साधना में एक सम्बन्ध है। सेवा के अभाव वे मुक्त हो निजबन्ध से, स्वच्छन्द हो सब द्वन्द्व से, में साधना सम्भव नहीं है। पुन: जहाँ सेवा है वहाँ साधना है वस्तुतः छुटे दलन के फनद से, वे व्यक्ति ही महान् साधक हैं जो लोकमंगल के लिए अपने को हो ऐसा जग में, दुःख से विचले न कोई, समर्पित कर देते हैं। उनका निष्काम समपर्ण-भाव साधना का सर्वोकृष्ट वेदनार्थ हिले न कोई, पाप कर्म करे न कोई, रूप है।
असन्मार्ग धरे न कोई, अन्त में हम कह सकते हैं कि भारतीय जीवन दर्शन की दृष्टि हो सभी सुखशील, पुण्याचार धर्मव्रती, पूर्णतया लोकमंगल के लिए प्रयत्नशील बने रहने की है। उसकी एकमात्र सबका ही परम कल्याण। सन्दर्भ:
अध्यात्म और विज्ञान, विनोबा भावे, पृ०७१। १. बोधिचर्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका० मिथिला ३. बोधिचार्यावतार, संपा०- श्री परशुराम शर्मा, प्रका०- मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, १९६०, ३/२१।
विद्यापीठ, दरभंगा, १९६०, ३/११।
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