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भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप
भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न आदि जो जैन परम्परा में तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर चहारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड करके देखने में उसकी आत्मा ही मर युग के प्रारम्भ से ही भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित जाती है । जैसे शरीर को खण्ड-खण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया- होती रही हैं। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है; उससे सिद्ध होता खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप से समझ सकते हैं, जब रखती थी जिसमें ध्यान, साधना आदि पर बल दिया जाता था । उस उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा यज्ञशाला समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लिया जाय । बिना उसके आदि का न मिलना यही सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं संयोजित घटकों के ज्ञान के उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं ध्यान प्रधान व्रात्य संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी । किन्तु इतना है । एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिए निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से दोनों न केवल उसके विभिन्न घटकों अर्थात् कल-पुों का ज्ञान आवश्यक ही धाराएँ साथ-साथ प्रवाहित हो रही हैं और उन्होंने एक दूसरे को होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है। पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है । ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो अत: हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिए कि भारतीय तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है जो संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवती परम्पराओं और दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक है । तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणायें जो प्रारम्भिक वैदिक नहीं हो सकता है । धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्यक अपने देशकाल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में स्वरूप ग्रहण करते हैं । यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य किसी अस्तित्व में आ गयी हैं । इससे लगता है कि ये अवधारणाएँ भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार संन्यासमार्गीय श्रमणधारा के प्रभाव से ही वैदिक धारा में प्रविष्ट हुयी हैं। से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की प्रामाणिकता पूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा । चाहे जैन विद्या के समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नये रूप में शोध एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या का, हमें परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और मुक्ति उसकी दूसरी सहवर्ती परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और यह आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ श्रमण देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार और वैदिक धारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत जिसका एक पारस्परिक प्रभावकता के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं होता है।
हैं। वे निवृत्ति प्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिक धारा के समन्वय यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल का परिणाम हैं । उपनिषदों में और महाभारत, गीता आदि में जहाँ एक से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्ति प्रधान तत्त्वों को स्थान दिया पाते हैं; किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में गया, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमण परम्परा इन दोनों स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है और अब इन्हें एक दूसरे के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गईं, से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता । भारतीय इतिहास के उनमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा प्रारम्भिक काल से ही ये दोनों धारायें परस्पर एक दूसरे से प्रभावित होती हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा हिन्दू धर्म वैदिक और रहीं। अपनी-अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे श्रमण धाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध उन्हें अलग-अलग देख लें, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक दूसरे में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषि-मुनियों ने उठाई थी, जैन, बौद्ध से पृथक नहीं कर सकते । भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है । हमें यह जाता है। उसमें जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रिया-काण्डों नहीं भूलना चाहिए कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं आवाज उठाई तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले अर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकायें अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम
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