________________
जैन धर्म और सामाजिक समता
५४३
कि 'चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर ही
इसी प्रकार आचार्य रविषेण भी पद्मचरित में लिखते हैं कि - किया गया है।९।' डॉ.राधाकृष्णन इसकी व्याख्या में लिखते हैं, यहाँ कोई भी जाति गर्हित नहीं है वस्तुत: गुण ही कल्याण कारक होते जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं । हम किस हैं । जाति से कोई व्यक्ति चाहे चाण्डाल कुल में ही उत्पन्न क्यों न हो, वर्ण के हैं, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है अपितु स्वभाव और व्रत में स्थित होने पर ऐसे चाण्डाल को भी तीर्थंकरों ने ब्राह्मण ही कहा व्यवसाय द्वारा निर्धारित होती है१२ ।' युधिष्ठिर कहते हैं 'तत्त्वज्ञानियों की है१७ । अत: ब्राह्मण जन्म पर नहीं, कर्म/सदाचार पर आधारित है। दृष्टि में केवल आचरण (सदाचार) ही जाति का निर्धारक तत्त्व है। जैन मुनि चौथमल जी निर्ग्रन्थप्रवचनभाष्य में लिखते हैं कि ब्राह्मण न जन्म से होता है, न संस्कार से, न कुल से और न वेद के एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी व प्रकृति से तमोगुणी होने पर भी अमुक अध्ययन से, ब्राह्मण केवल व्रत (आचरण) से होता है१३ ।' वर्ण में जन्म के कारण समाज में ऊँचा व आदरणीय समझा जाय व
प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, अपितु लचीली दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी व सतोगुणी होने पर भी केवल जन्म के थी। वर्ण परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था क्योंकि कारण नीच व तिरस्कृत समझा जाय, यह व्यवस्था समाज घातक है आचरण या कर्म के चयन द्वारा परिवर्तित हो जाता था । उपनिषदों में और मनुष्य की गरिमा व विवेकशीलता पर प्रश्न चिह्न लगाती है। इतना वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है । सत्यकाम ही नहीं ऐसा मानने से न केवल समाज के बहुसंख्यक भाग का अपमान जाबाल की सत्यवादिता के आधार पर ही उसे ब्राह्मण मान लिया गया होता है, प्रत्युत सदाचार व सद्गुण का भी अपमान होता है। इस था । मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का विधान है, उसमें लिखा है कि व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचारी, सदाचारी से ऊपर उठ जाता सदाचार के कारण शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और दुराचार के कारण है । अज्ञान-ज्ञान पर विजयी होता है तथा तमोगुण सतोगुण के सामने ब्राह्मण शूद्र हो जाता है । यही बात क्षत्रिय और वैश्य के सम्बन्ध में भी आदरास्पद बन जाता है । यह ऐसी स्थिति है जो गुण ग्राहक विवेकीजनों है ।१५ आध्यात्मिक दृष्टि से कोई एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ नहीं है, को सह्य नहीं हो सकती है१८ । वास्तविकता तो यह है कि किसी जाति क्योंकि आध्यात्मिक विकास वर्ण पर निर्भर नहीं होता है । व्यक्ति विशेष में जन्म ग्रहण करने का महत्त्व नहीं है, महत्त्व है व्यक्ति के नैतिक स्वभावानुकूल किसी भी वर्ण के नियत कर्मों का सम्पादन करते हुए सदाचरण और वासनाओं पर संयम का । जैन विचारणा यह तो स्वीकार आध्यात्मिक पूर्णता या सिद्धि को प्राप्त कर सकता है ।
करती है कि लोक व्यवहार या आजीविका हेतु प्रत्येक व्यक्ति को रुचि
व योग्यता के आधार पर किसी न किसी कार्य का चयन तो करना कोई भी कर्त्तव्य कर्म-हीन नहीं है
होगा । यह भी ठीक है कि विभिन्न प्रकार के व्यवसायों या कार्यों के समाज व्यवस्था में अपने कर्तव्य के निर्वाह हेतु और आजीविका आधार पर सामाजिक वर्गीकरण भी होगा । इस व्यावसायिक या के उपार्जन हेतु व्यक्ति को कौन सा व्यवसाय या कर्म चुनना चाहिए यह सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में होने वाले वर्गीकरण में न किसी को श्रेष्ठ, बात उसकी योग्यता अथवा स्वभाव पर ही निर्भर करती है। यदि व्यक्ति न किसी को हीन कहा जा सकता है । जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्य अपने गुणों या योग्यताओं के प्रतिकूल व्यवसाय या सामाजिक कर्त्तव्य प्राणीवर्ग की सेवा का कोई भी हीन कार्य नहीं हैं । यहाँ तक की मलको चुनता है, तो उसके इस चयन से जहाँ उसके जीवन की सफलता मूत्र की सफाई करने वाला कहीं अधिक श्रेष्ठ है । जैन परम्परा में धूमिल होती है वहीं समाज-व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त होती है। नन्दिषेणमुनि के सेवाभाव की गौरव गाथा लोक-विश्रुत है । जैन परम्परा आध्यात्मिक श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं है कि व्यक्ति क्या कर रहा में किसी व्यवसाय या कर्म को तभी हीन माना गया है, जब वह है या किन सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर रहा है, वरन् इस बात पर व्यवसाय या कर्म हिंसक या क्रूरतापूर्ण कार्यों से युक्त हो । जैनाचार्यों निर्भर है कि वह उनका पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर ने जिन जातियों या व्यवसायों को हीन कहा है वे हैं -- शिकारी बधिक, रहा है। यदि एक शूद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा और कुशलता चिड़ीमार, मच्छीमार आदि । किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार से करता है तो वह अनैष्ठिक और अकुशल ब्राह्मण की अपेक्षा आजीविका हेतु चुना गया व्यवसाय न होकर उसका आध्यात्मिक आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ है । गीता भी स्पष्टतया यह स्वीकार करती विकास या सद्गुणों का विकास है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि है कि व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का साक्षात् तप (साधना) का ही महत्त्व दिखायी देता है जाति का कुछ भी सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से उँचाइयों पर नहीं । चाण्डाल-पुत्र हरकेशी मुनि को देखो जिनकी प्रभावशाली ऋद्धि पहुँच सकता है । विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति है। मानवीय समता जैनधर्म का मुख्य आधार है । उसमें हरकेशीबल श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनता का सम्बन्ध जैसे चाण्डाल, अर्जुनमाली जैसे मालाकार, पूनिया जैसे धूनिया और तो उसके सदाचरण एवं आध्यात्मिक विकास से है । दिगम्बर जैन शकडाल पुत्र जैसे कुम्भकार का भी वही स्थान है, जो स्थान उसमें आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं-- सम्यक्-दर्शन इन्द्रभूति जैसे वेदपाठी ब्राह्मण पुत्र, दशार्णभद्र एवं श्रेणिक जैसे क्षत्रिय से युक्त चाण्डाल शरीर में उत्पन्न व्यक्ति भी तीर्थंकरों के द्वारा ब्राह्मण ही नरेश, धन्ना व शालिभद्र जैसे समृद्ध श्रेष्ठी रत्नों का है। कहा गया है।
आत्मदर्शी साधक जैसे पुण्यवान् व्यक्ति को धर्म उपदेश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org