________________
५५०
जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
के रूप में मान्य ग्रन्थों तथा प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक व्याख्याओं का आदि से युक्त शारीरिक संरचना स्त्रीलिंग है, यही द्रव्य-स्त्री है, जबकि काल लगभग एक सहस्राब्दी अर्थात् ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी से पुरुष के साथ सहवास की कामना को अर्थात् स्त्रीयोचित काम-वासना लेकर ईसा की बारहवीं शताब्दी तक व्याप्त है। पुनः कालविशेष में भी को वेद कहा गया है । वही वासना की वृत्ति भाव-स्त्री है । जैन जैन विचारकों का नारी के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण नहीं है । प्रथम तो आगमिक व्याख्या साहित्य में स्त्री की काम-वासना के स्वरूप को उत्तर और दक्षिण भारत की सामाजिक परिस्थिति की भिन्नता के कारण चित्रित करते हुए उसे उपलअग्निवत् बताया गया है। जिस प्रकार
और दूसरे श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं के भेद के कारण इस युग उपल-अग्नि के प्रज्वलित होने में समय लगता है किन्तु प्रज्वलित होने के जैन आचार्यों का दृष्टिकोण नारी के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न रहा है। पर चालना करने पर बढ़ती जाती है, अधिक काल तक स्थायी रहती जहाँ उत्तर भारत के यापनीय एवं श्वेताम्बर जैन आचार्य नारी के सम्बन्ध है उसी प्रकार स्त्री की काम-वासना जागृत होने में समय लगता है, में अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण रखते हैं, वहीं दक्षिण भारत के दिगम्बर किन्तु जागृत होने पर चालना करने से बढ़ती जाती है और अधिक स्थायी जैन आचार्यों का दृष्टिकोण अपेक्षाकृत अनुदार प्रतीत होता है । इसके होती है। जैनाचार्यों का यह कथन एक मनोवैज्ञानिक सत्य लिए हुए लिए अचेलता का आग्रह और देशकालगत परिस्थितियाँ दोनों ही है। यद्यपि लिंग और वेद अर्थात् शारीरिक संरचना और तत्सम्बन्धी उत्तरदायी रही हैं, अत: आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर नारी कामवासना सहगामी माने गये हैं, फिर भी सामान्यतया जहाँ लिंग शरीर की स्थिति का चित्रण करते समय हमें बहुत ही सावधानीपूर्वक तथ्यों पर्यन्त रहता है, वहाँ वेद (कामवासना) आध्यात्मिक विकास की एक का विश्लेषण करना होगा । पुन: आगमिक व्याख्या साहित्य और जैन विशेष अवस्था में समाप्त हो जाता है। जैन कर्मसिद्धान्त में लिंग का पौराणिक कथा साहित्य दोनों में ही नारी सम्बन्ध में जो सन्दर्भ उपलब्ध कारण नामकर्म (शारीरिक संरचना के कारक तत्त्व) और वेद का कारण हैं, वे सब जैन आचार्यों द्वारा अनुशंसित थे, यह मान लेना भी भ्रान्त मोहनीयकर्म (मनोवृत्तियाँ) माना गया है। इस प्रकार लिंग, शारीरिक धारणा होगी । जैन आचार्यों ने अनेक ऐसे तथ्यों को भी प्रस्तुत किया संरचना का और वेद मनोवैज्ञानिक स्वभाव और वासना का सूचक है है जो यद्यपि उस युग में प्रचलित रहे हैं, किन्तु वे जैन धर्म की धार्मिक तथा शारीरिक परिवर्तन से लिंग में और मनोभावों के परिवर्तन से वेद मान्यताओं के विरोधी हैं । उदाहरण के रूप में बहु-विवाह प्रथा, में परिवर्तन सम्भव है । निशीथचूर्णि (गाथा ३५९) के अनुसार लिंग वेश्यावृत्ति, सतीप्रथा, स्त्री के द्वारा मांस भक्षण एवं मद्यपान आदि के परिवर्तन से वेद (वासना) में भी परिवर्तन हो जाता है इस सम्बन्ध में उल्लेख हमें आगमों एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं, सम्पूर्ण कथा द्रष्टव्य है । जिसमें शारीरिक संरचना और स्वभाव की दृष्टि किन्तु वे जैनधर्मसम्मत थे, यह नहीं कहा जा सकता । वस्तुत: इस से स्त्रीत्व हो, उसे ही स्त्री कहा जाता है । सूत्रकृतांग नियुक्ति में स्त्रीत्व साहित्य में लौकिक एवं धार्मिक दोनों ही प्रकार के सन्दर्भ हैं जिन्हें के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, प्रजनन, कर्म, भोग, गुण और भाव अलग-अलग रूपों में समझना आवश्यक है।
ये दस निक्षेप या आधार माने गये हैं, अर्थात् किसी वस्तु के स्त्री कहे अत: नारी के सम्बन्ध में जो विवरण हमें आगमों और जाने के लिए उसे निम्न या एकाधिक लक्षणों से युक्त होना आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होते हैं, उन्हें विभिन्न काल खण्डों आवश्यक है, में विभाजित करके और उनके परम्परासम्मत और लौकिक स्वरूप का विश्लेषण करके ही विचार करना होगा । तथापि उनके गम्भीर विश्लेषण यथा - से हमें जैनधर्म में और भारतीय समाज में विभिन्न कालों में नारी की क्या (१) स्त्रीवाचक नाम से युक्त होना जैसे - रमा, श्यामा आदि। स्थिति थी, इसका एक ऐतिहासिक परिचय प्राप्त हो जाता है। (२) स्त्री रूप में स्थापित होना जैसे - शीतला आदि की स्त्री आकृति
से युक्त या रहित प्रतिमा । नारी लक्षण
(३) द्रव्य - अर्थात् शारीरिक संरचना का स्त्री रूप होना । नारी की सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति की चर्चा के (४) क्षेत्र - देश-विदेश की परम्परानुसार स्त्री की वेशभूषा से युक्त होने पूर्व हमें यह भी विचार कर लेना है कि आगमिक व्याख्याकारों की दृष्टि पर उस देश में उसे स्त्रीरूप में समझा जाता है। में नारी शब्द का तात्पर्य क्या रहा है । सर्वप्रथम सूत्रकृतांग नियुक्ति और (५) काल- जिसने भूत, भविष्य या वर्तमान में से किसी भी काल चूर्णि में नारी शब्द के तात्पर्य को स्पष्ट किया गया है । स्त्री को द्रव्य में स्त्री-पर्याय धारण की हो, उसे उस काल की अपेक्षा से स्त्री स्त्री और भावस्त्री ऐसे दो विभागों में वर्गीकृत किया गया है ।। कहा जा सकता है। द्रव्य-स्त्री से जैनाचार्यों का तात्पर्य स्त्री की शारीरिक संरचना (शारीरिक (६) प्रजनन क्षमता से युक्त होना । चिह्न) से है, जबकि भाव-स्त्री का तात्पर्य नारी स्वभाव (भेद) से है। (७) स्त्रियोचित कार्य करना । आगम और आगमिक व्याख्याओं दोनों में ही स्त्री-पुरुष के वर्गीकरण का (८) स्त्री रूप में भोगी जाने में समर्थ होना । आधार लिंग और वेद माने जाते रहे हैं। जैन परम्परा में स्त्री की शारीरिक (९) स्त्रियोचित गुण होना और संरचना को लिंग कहा गया है । रोमरहित मुख, स्तन, योनि, गर्भाशय (१०) स्त्री सम्बन्धी वासना का होना ।६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org