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जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन
जैनधर्म निवृत्तिमार्गी श्रमण-परम्परा का धर्म है । सामान्यतया की गई है । उसमें अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति पर इसे सामाजिक न मानकर व्यक्तिवादी धर्म माना जाता है, किन्तु जैनधर्म अपना अधिकार मानने वाले को स्पष्टत: चोर कहा गया । इस प्रकार को एकान्त रूप से व्यक्तिवादी धर्म नहीं कहा जा सकता। यह सत्य है हम देखते हैं कि वैदिक और औपनिषदिक युग में सामाजिकता के लिये कि उसका विकास निवृत्तिमार्गी संन्यास प्रधान श्रमण-परम्परा में ही हुआ न केवल प्रेरणा दी गई अपितु एक दार्शनिक आधार भी प्रस्तुत किया है किन्तु मात्र इस आधार पर उसे असामाजिक या व्यक्तिवादी धर्म गया है। मानना, एक भ्रांति ही होगी । जीवन में दुःख की यथार्थता और दुःखविमुक्ति का जीवनादर्श, यह जैन परम्परा का अथ और इति है। जैनधर्म में सामाजिक चेतना किन्तु दुःख और दुःखविमुक्ति के ये सम्प्रत्यय मात्र वैयक्तिक नहीं है, जहाँ तक जैन और बौद्ध परम्पराओं का प्रश्न है उनमें उनका एक सामाजिक पक्ष भी है । दुःखविमुक्ति का उनका आदर्श मात्र सामाजिक चेतना का आधार एकत्व की अनुभूति न होकर समत्व की वैयक्तिक दुःखों की विमुक्ति नहीं है अपितु सम्पूर्ण प्राणिजगत् के दुःखों अनुभूति रही है । यद्यपि आचारांग में कहा गया है कि जिसे तू दुःख या की विमुक्ति है और यही उन्हें समाज से जोड़ देता है । श्रमणधारा में पीड़ा देना चाहता है, वह तू ही है । इसमें यह फलित होता है कि धर्म और नीति को अवियोज्य माना गया है और धर्म एवं नीति की यह आचारांगसूत्र भी एकत्व की अनुभूति पर सामाजिक या अहिंसक चेतना अवियोज्यता भी उसमें सामाजिक सन्दर्भ को स्पष्ट कर देती है। को विकसित करता है, फिर भी जैन और बौद्ध परम्परा में सामाजिक
चेतना एवं अहिंसा की अवधारणा के विकास का आधार सभी प्राणियों भारतीय चिन्तन में सामाजिक चेतना
के प्रति समभाव या समता की भावना रही । उनमें दूसरों की जिजीविषा सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिन्तन को और सुख-दुःखानुभूति 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के आधार पर समझने का तीन युगों में बाँटा जा सकता है । (१) वैदिक युग, (२) औपनिषदिक प्रयत्न किया गया और सामाजिक सम्बन्धों की शुद्धि पर विशेष बल युग, (३) जैन और बौद्ध युग । सर्वप्रथम जहाँ वैदिक युग में 'संगच्छध्वं दिया गया। यद्यपि जैन और बौद्धधर्म निवृत्तिप्रधान रहे किन्तु इसका यह संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्' अर्थात् तुम मिलकर चलो, तुम मिलकर अर्थ नहीं है कि वे समाज से विमुख थे । वस्तुत: भारत में यदि धर्म बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें- इस रूप में सामाजिक चेतना के क्षेत्र में संघीय साधना-पद्धति का विकास किसी परम्परा ने किया तो को विकसित करने का प्रयत्न किया गया, तो वहीं औपनिषदिक युग वह श्रमण-परम्परा ही थी। जैनधर्म के अनुसार तो तीर्थंकर अपने प्रथम में उस सामाजिक एकत्व की चेतना के लिये दार्शनिक आधार प्रस्तुत प्रवचन में ही चतुर्विध संघ की स्थापना करता है । उसके धर्मचक्र का किए गये। ईशावास्योपनिषद् में ऋषि कहता है कि जो सभी प्राणियों प्रवर्तन संघ-प्रवर्तन से ही प्रारम्भ होता है । यदि महावीर में लोकमंगल को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है वह अपनी इस या लोककल्याण की भावना नहीं होती तो वे अपनी वैयक्तिक साधना एकत्व की अनुभूति के कारण किसी से घृणा नहीं करता । औपनिषदिक की पूर्णता के पश्चात् धर्मचक्र का प्रवर्तन ही क्यों करते? प्रश्नव्याकरणसूत्र चिन्तन में सामाजिकता का आधार यही एकत्व की अनुभूति रही है। में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि तीर्थङ्कर का यह सुकथित प्रवचन सभी जब एकत्व की दृष्टि विकसित होती है तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व प्राणियों की रक्षा और करुणा के लिए है । पाँचों महाव्रत सब प्रकार स्वतः समाप्त हो जाते हैं क्योंकि 'पर' रहता ही नहीं, अत: किससे घृणा से लोकहित के लिए हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और संग्रह या विद्वेष किया जाये । घृणा, विद्वेष आदि परायेपन के भाव में ही सम्भव (परिग्रह) ये सब वैयक्तिक नहीं, सामाजिक जीवन की ही दुष्प्रवृत्तियाँ हैं होते हैं, जब सभी स्व या आत्मीय हों तो घृणा या विद्वेष का अवसर । जैन साधना-परम्परा में पंचव्रतों या पंचशीलों के रूप में जिस धर्मही कहाँ रह जाता है। इस प्रकार औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना मार्ग का उपदेश दिया गया, वह मात्र वैयक्तिक साधना के लिए नहीं को एक सुदृढ़ दार्शनिक आधार प्रदान किया गया है। साथ ही सम्पत्ति अपितु सामाजिक जीवन के लिए था । क्योंकि हिंसा का अर्थ है किसी पर वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर सामूहिक-सम्पदा का विचार अन्य की हिंसा, असत्य का मतलब है किसी अन्य को गलत जानकारी प्रस्तुत किया गया है। ईशावास्योपनिषद् में सम्पूर्ण सम्पत्ति को ईश्वरीय देना, चोरी का अर्थ है किसी दूसरे की शक्ति का अपहरण करना, सम्पदा मानकर उस पर से वैयक्तिक अधिकार को समाप्त कर दिया गया व्यभिचार का मतलब है सामाजिक मान्यताओं के विरुद्ध यौन सम्बन्ध और व्यक्ति को यह कहा गया कि वह जागतिक सम्पदा पर दूसरों के स्थापित करना । इसी प्रकार संग्रह या परिग्रह का अर्थ है समाज में अधिकारों को मान्य करके ही उस सम्पत्ति का उपभोग करे। इस प्रकार आर्थिक विषमता पैदा करना । क्या सामाजिक जीवन के अभाव में इनका 'तेन त्यक्तेन भुजीथा' के रूप में उपभोग के सामाजिक अधिकार की कोई अर्थ रह जाता है ? अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह चेतना को विकसित किया गया। इसी तथ्य की पुष्टि श्रीमद्भागवत में भी के जो जीवनमूल्य जैन-दर्शन ने प्रस्तुत किये वे पूर्णत: सामाजिक मूल्य
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