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जैन धर्म में सामाजिक चिन्तन
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से जुड़ने का अर्थ है कहीं से कटना । क्योंकि जो किसी से जुड़ता है सार्थकता स्वहितों/स्वार्थों का बलिदान करके दूसरों का मंगल करने में तो कहीं से कटता अवश्य है। राग का तत्त्व व्यक्ति के स्व की सीमा ही है। पारस्परिक हित-साधन ही जीव का स्वभाव है और इसी से का विस्तार तो अवश्य करता है किन्तु उसे दूसरों से अलग भी कर देता उसकी कर्त्तव्यता है । इसी के आधार पर हमारा मानव-समाज खड़ा हुआ है। जब हम वैयक्तिक स्वार्थों से युक्त होते हैं तो हमारा स्व संकुचित है। रागात्मकता हमें किसी से जोड़ती है तो कहीं से तोड़ती भी है, होता है और जब हम सामाजिकता से जुड़ते हैं तो हमारे स्व का क्षेत्र क्योंकि राग सदैव द्वेष के साथ-साथ जीता है । राग और द्वेष ऐसे जुड़वाँ विकसित होता है। किन्तु जब तक हम अपने और पराये के भाव का शिशु हैं जो एक-दूसरे के साथ जीते और मरते हैं । राग के अभाव में अतिक्रमण नहीं कर पाते हैं तब तक हमारा 'स्व' या 'आत्मा' पूर्ण नहीं द्वेष और द्वेष के अभाव में राग नहीं जी पाता है । अत: राग के आधार बन पाता है । जैनों के अनुसार हमारे जीवन में जो भी टूटन है, जो भी पर जो समाज खड़ा होगा उसमें अनिवार्य रूप से वर्गभेद और वर्णभेद सीमाएँ हैं और जो भी मेरे-पराये के भाव हैं, ये सभी राग और द्वेष के होगा ही, किन्तु कर्तव्यबोध के आधार पर जो समाज खड़ा होगा वह तत्त्वों के कारण हैं । जब तक हम मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म आदि वर्णभेद और वर्गभेद से ऊपर होगा। इन 'मैं' और 'मेरे' के घेरों से ऊपर नहीं उठते, दूसरे शब्दों में मेरे-तेरे वस्तुत: मानवीय विवेक के आधार पर ही कर्तव्यबोध की जो के घेरों का अतिक्रमण जब तक नहीं कर जाते तब तक सही अर्थों में चेतना जागृत होती है, वही हमारी सामाजिकता का आधार है। राग की सामाजिक भी नहीं बन पाते हैं ।१४ मेरे और पराये की मन:स्थिति में हम भाषा अधिकार की भाषा है, जबकि विवेक की भाषा दायित्वबोध या अपने आपको किन्हीं शृंखलाओं में जकड़ा हुआ ही पाते हैं । जैनधर्म की कर्तव्य की भाषा है । जिस समाज में केवल अधिकारों की बात होती साधना वीतरागता की साधना है, वह अनिवार्य रूप से स्व की संकुचित है वहाँ केवल विकृत सामाजिकता ही फलित होती है । स्वस्थ सीमा को तोड़ना है और अपने और पराये की इस संकुचित सीमा का सामाजिकता का आधार अधिकार नहीं, कर्तव्यबोध है । जैनधर्म जिस अतिक्रमण करना असामाजिक होना नहीं है । जैनधर्म मुख्यतया इस बात सामाजिक चेतना की बात करता है वह मानवीय विवेक का अनिवार्य पर बल देता है कि हम एक स्वस्थ सामाजिकता का विकास करें और परिणाम है । विवेक से कर्त्तव्यता और सम-बुद्धि/समता जागृत होती है यह स्वस्थ सामाजिकता राग के आधार पर नहीं वरन् राग का अतिक्रमण - जब विवेक हमारी सामाजिक चेतना का आधार बनता है, तब मेरे और करके ही की जा सकती है।
तेरे की चेतना ही समाप्त हो जाती है। सम-बुद्धि से सभी आत्मवत् हैं,
ऐसी दृष्टि विकसित होती है । यही आत्मवत् दृष्टि हमारी सामाजिकता सामाजिकता का आधार : रागात्मकता या विवेक ? का आधार है । जब तक आत्मतुल्यता का बोध नहीं आता है, तब तक
सम्भवत: यह प्रश्न उपस्थित किया जा सकता है कि जैनदर्शन न तो हिंसा, घृणा आदि की असामाजिक वृत्तियों से ऊपर उठा जा राग को समाप्त करने की बात करता है किन्तु राग के अभाव में सकता है और न हम सही अर्थ में सामाजिक ही बन पाते हैं । जैनदर्शन सामाजिक जीवन से जोड़ने वाला तत्त्व क्या होगा? यदि अपनेपन और में सामाजिकता का आधार यही आत्मतुल्यता का बोध है । मेरेपन का भाव न हो तो सारे सामाजिक बन्धन चरमरा कर टूट जायेंगे। यह रागात्मकता ही है जो हमें एक-दूसरे से जोड़ती है और समाज का सामाजिक जीवन का बाधक तत्त्व : अहंकार निर्माण करती है। किन्तु क्या वस्तुत: रागात्मकता हमारे सामाजिक
सामाजिक सम्बन्धों में व्यक्ति का अहंकार भी महत्त्वपूर्ण कार्य सम्बन्धों का यथार्थ कारण हो सकती है, जैसा कि पूर्व में कहा गया है- करता है । अहंकार के कारण शासन की इच्छा अथवा आधिपत्य की राग यदि हमें कहीं जोड़ता है तो वह हमें कहीं से तोड़ता भी है, मेरी भावना जागृत होती है और सामाजिक जीवन में विषमता पैदा होती है । विनम्र मान्यता है कि यदि हम राग के आधार पर समाज को खड़ा करेंगे शासक-शासित का भेद अहंकार के कारण ही खड़ा होता है । वर्तमान तो वह एक स्वार्थी व्यक्तियों का समाज ही होगा। वस्तुतः समाज की युग में बड़े राष्ट्रों में जो अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने की प्रवृत्ति है, उसके संरचना राग के आधार पर नहीं विवेक के आधार पर ही सम्भव है। मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि ही है । जब व्यक्ति में आधिपत्य यदि मैं दूसरों का मंगल या हितसाधन इसलिये करता हूँ कि वे मेरे अपने की प्रवृत्ति दृढ़ होती है तो वह दूसरों के अधिकारों का हनन करता है, हैं, और ऐसा करने से मेरे अपनेपन का घेरा कितना ही बड़ा क्यों न हो, परिणामत: दूसरों की स्वतन्त्रता खण्डित होती है । न केवल शासित मुझे एक स्वार्थी व्यक्ति से अधिक कुछ भी नहीं रहने देगा । हमें दूसरों और शासक का भेद अपितु जातिभेद और वर्गभेद के पीछे भी यही का हित-साधन केवल इसलिये नहीं करना है कि वे हमारे अपने हैं अहंकार का तत्त्व काम करता है । जब हम अपने कुल या जाति के अपितु इसलिये करना है कि दूसरों का हित-साधन करना मेरा स्वभाव अहंकार से युक्त होते हैं तो दूसरों को हीन समझने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, स्वधर्म है, कर्तव्य है । जैन दार्शनिकों के अनुसार समाज जिस है जिसका परिणाम जाति-संघर्ष या वर्ग-संघर्ष होता है । आधार पर खड़ा होता है वह राग नहीं, विवेक का तत्त्व है, कर्त्तव्यता का बोध है । तत्त्वार्थसूत्र में यह माना गया है कि जीवद्रव्य का स्वभाव जातिवाद का विरोध और सामाजिक समता परस्पर एक-दूसरे का उपकारक होना है१५ । व्यक्ति के जीवन की
जैनधर्म अहंकार के उपशमन के साथ-साथ जातिवाद और
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