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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६
प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्यनिष्ठ और प्रामाणिक नहीं क्या वह असामाजिक हो जाता है ? संन्यास के संकल्प में वह कहता हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या है कि 'वित्तेषणा पुढेषणा लोकेषणा मया परित्यक्ता अर्थात् मैं आसक्ति से ऊपर नहीं उठता तब तक सामाजिकता का सद्भाव सम्भव धर्म-कामना, सन्तान-कामना और यश-कामना का परित्याग करता हूँ नहीं हो सकता। समाज त्याग एवं समर्पण के आधार पर खड़ा होता है किन्तु क्या धन-सम्पदा, सन्तान तथा यशकीर्ति की कामना का परित्याग अत: वीतराग या अनासक्त दृष्टि ही सामाजिक जीवन के लिए वास्तविक समाज का परित्याग है ? वस्तुत: समस्त एषणाओं का त्याग स्वार्थ का आधार प्रस्तुत कर सकती है और सम्पूर्ण मानव-जाति में सुमधुर त्याग है, वासनामय जीवन का त्याग है, संन्यास का यह संकल्प उसे सामाजिक सम्बन्धों का निर्माण कर सकती है । भारतीय दर्शन में राग समाज-विमुख नहीं बनाता है, अपितु समाज-कल्याण की उच्चतर के साथ-साथ अहं के प्रत्यय के विगलन पर भी समान रूप से बल दिया भूमिका पर अधिष्ठित करता है क्योंकि सच्चा लोकहित नि:स्वार्थता एवं गया है । अहं भाव भी हमारे सामाजिक सम्बन्धों में बाधा ही उत्पन्न करता विराग की भूमि पर स्थित होकर ही किया जा सकता है। है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व है और भारतीय चिन्तन संन्यास को समाज-निरपेक्ष नहीं मानता । इनके कारण सामाजिक जीवन में विषमता एवं टकराहट उत्पन्न होती भगवान बुद्ध का यह आदेश 'चरत्थ भिक्खवे चारिकं बहुजन-हिताय है। भारतीय दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन बहुजन-सुखाय लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय देव मनुस्सानं' (विनय में परतन्त्रता को समाप्त करता है । यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में पिटक-महावग्ग)। इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लोक-मंगल के उत्पन्न होने वाली विषमता एवं टकराहट के कारणों का विश्लेषण करें लिए होता है । सच्चा संन्यासी वह व्यक्ति है जो समाज से अल्पतम तो उसके मूल में हमारी आसक्ति, रागात्मकता या अहं ही प्रमुख है। लेकर उसे अधिकतम देता है । वस्तुत: कुटुम्ब, परिवार आदि का त्याग आसक्ति, ममत्व भाव या राग के कारण ही मनुष्य में संग्रह, आवेश और इसलिए करता है कि वह समष्टि का होकर रहे क्योंकि जो किसी का कपटाधार के तत्त्व जन्म लेते हैं। संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, है वह सबका नहीं हो सकता, जो सबका है वह किसी एक का नहीं अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार एवं विश्वासघात के तत्त्व विकसित है। संन्यासी नि:स्वार्थ और निष्काम रूप से लोक-मंगल-साधक होता होते हैं । इसी प्रकार आवेश की मनोवृत्ति के कारण क्रूर व्यवहार, संघर्ष, है। संन्यास शब्द सम्पूर्वक न्यास है, न्यास शब्द का एक अर्थ देखरेख युद्ध एवं हत्याएँ होती हैं । और कपट की मनोवृत्ति अविश्वास एवं करना भी है । संन्यासी वह व्यक्ति है जो सम्यक् रूप से एक न्यासी अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को जन्म देती है। अत: यह कहना उचित ही होगा (ट्रस्टी) की भूमिका अदा करता है और न्यासी वह है जो ममत्व भाव कि भारतीय दर्शन ने राग या आसक्ति के प्रहाण पर बल देकर सामाजिक और स्वामित्व का त्याग करके किसी ट्रस्ट (सम्पदा) का रक्षण एवं विषमताओं को समाप्त करने एवं सामाजिक समत्व की स्थापना करने विकास करता है । संन्यासी सच्चे अर्थ में एक ट्रस्टी है। ट्रस्टी यदि में महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया है । समाज त्याग एवं समर्पण पर खड़ा होता ट्रस्ट का उपयोग अपने हित में करता है, अपने को उसका स्वामी है, जीता है और विकसित होता है, यह भारतीय चिन्तन का महत्त्वपूर्ण समझता है तो वह सम्यक् ट्रस्टी नहीं हो सकता है। इसी प्रकार यदि निष्कर्ष है । वस्तुत: आसक्ति या राग तत्त्व की उपस्थिति में सच्चा वह ट्रस्ट के रक्षण एवं विकास का प्रयत्न न करे तो भी सच्चे अर्थ में लोकहित भी फलित नहीं होता है । आसक्ति या कर्म-फल की आकांक्षा ट्रस्टी नहीं है । इसी प्रकार यदि संन्यासी लोकेषणा से युक्त है, ममत्वके साथ किया गया कोई भी लोक-हित का कार्य स्वार्थपरता से शून्य बुद्धि या स्वार्थ बुद्धि से काम करता है तो संन्यासी नहीं है और यदि लोक नहीं होता है । जिस प्रकार शासन की ओर से नियुक्त समाज कल्याण की उपेक्षा करता है, लोक मंगल के लिए प्रयास नहीं करता है तो वह अधिकारी लोकहित को करते हुए भी सच्चे अर्थों में लोकहित का कर्ता भी संन्यासी नहीं है । उसके जीवन का मिशन तो 'सर्वभूत-हिते रतः' नहीं है, क्योंकि वह जो कुछ भी करता है वह केवल अपने वेतन के का है। लिए करता है, इसी प्रकार आसक्ति या राग-भावना से युक्त व्यक्ति चाहे संन्यास का राग से ऊपर उठना आवश्यक है। किन्तु इसका बाहर से लोकहित का कर्ता दिखाई दे किन्तु वह सच्चे अर्थ में लोकहित तात्पर्य समाज की उपेक्षा नहीं है । संन्यास की भूमिका में स्वत्व एवं का कर्ता नहीं है। अत: भारतीय दर्शन ने आसक्ति से या राग से ऊपर ममत्व के लिए निश्चय ही कोई स्थान नहीं है। फिर भी वह पलायन नहीं, उठकर लोकहित करने के लिए एक यथार्थ भूमिका प्रदान की। सराग अपितु समर्पण है । ममत्व का परित्याग कर्त्तव्य की उपेक्षा नहीं है, लोकहित या फलासक्ति से युक्त लोकहित छद्म स्वार्थ ही है । अतः अपितु कर्त्तव्य का सही बोध है । संन्यासी उस भूमिका पर खड़ा होता भारतीय दर्शनों में अनासक्ति एवं वीतरागता के प्रत्यय पर जो कुछ बल है जहाँ व्यक्ति अपने में समष्टि को और समष्टि में अपने को देखता है। दिया है वह सामाजिकता का विरोधी नहीं है।
उसकी चेतना अपने और पराये के भेद से ऊपर उठ जाती है । अपने
और पराये के विचार से ऊपर हो जाना विमुखता नहीं है, अपितु यह सामान्यतया भारतीय दर्शन के संन्यास के प्रत्यय को समाज तो उसके हृदय की व्यापकता है, महानता है । इसलिए भारतीय निरपेक्ष माना जाता है किन्तु क्या संन्यास की धारणा समाज-निरपेक्ष हैं ? चिन्तकों ने कहा है - निश्चय ही संन्यासी पारिवारिक जीवन का त्याग करता है किन्तु इससे
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