________________
भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना
भारतीय दार्शनिक चिन्तन में उपस्थित सामाजिक सन्दर्भो को जीवन व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे समझने के लिए सर्वप्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि केवल कुछ विचारों में समानता हो । आगे पुन: वह कहता है - दार्शनिक प्रस्थान ही सम्पूर्ण भारतीय प्रज्ञा एवं भारतीय चिन्तन का समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम्। प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, इन दार्शनिक प्रस्थानों से हटकर भी भारत में समानी व आकूतिः समाना हृदयानी वः ।। दार्शनिक चिन्तन हुआ है और उसमें अनेकानेक सन्दर्भ उपस्थित हैं। समानमस्तु वो मनो यथावः सुसहासति ।। दूसरे यह कि भारतीय दर्शन मात्र बौद्धिक एवं सैद्धान्तिक ही नहीं है, वह
(ऋग्वेद १०/१९१/३-४) अनुमूल्यात्मक एवं व्यावहारिक भी है; कोई भी भारतीय दर्शन ऐसा नहीं आप सबके निर्णय समान हों, आप सबकी सभा भी सबके है जो मात्र तत्त्वमीमांसीय (Metaphysical) एवं ज्ञान-मीमांसीय लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन (Epistomological) चिन्तन से ही सन्तोष धारण कर लेता हो । उसमें भी समान हो और आपकी चित्त-वृति भी समान हो, आपके संकल्प एक ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं, अपितु जीवन के सफल संचालन के लिए हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एक-रूप हो ताकि आप है । उसका मूल दुःख की समस्या में है । दुःख और दुःख-मुक्ति यही मिलजुल कर अच्छी तरह से कार्य कर सकें । सम्भवतः सामाजिकजीवन भारतीय दर्शन का 'अथ' और 'इति' है । यद्यपि तत्त्व-मीमांसा प्रत्येक एवं समाज निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक युग के भारतीय चिन्तक के ये भारतीय दार्शनिक प्रस्थान के महत्त्वपूर्ण अंग रहे हैं किन्तु वे सम्यक् महत्त्वपूर्ण उद्गार हैं । वैदिक ऋषियों का 'कृण्वंतो विश्वमार्यम्' के रूप जीवनदृष्टि के निर्माण और सामाजिक व्यवहार की शुद्धि के लिए हैं। में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव-समाज की रचना का मिशन तभी भारतीय चिन्तन में दर्शन की धर्म और नीति से अवियोज्यता उसके सफल हो सकता था जबकि वे जन-जन में समाज-निष्ठा के बीज का सामाजिक सन्दर्भ को और स्पष्ट कर देती है । यहाँ दर्शन जानने की वपन करते । सहयोगपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था । प्रत्येक नहीं,अपितु जीने की वस्तु रहा है; वह ज्ञान (बौद्धिक ज्ञान) नहीं, अनुभूति अवसर पर शांति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में सामाजिक चेतना है और इसीलिए वह फिलासफी नहीं, दर्शन है, जीवन जीने का एक के विकास का प्रयास करते थे । वे अपने शांति-पाठ में कहते थे - सम्यक् दृष्टिकोण है।
ॐ सहनाववतु सहनोभुनक्तु सहवीर्यं करवावहे, यद्यपि हमारा दुर्भाग्य तो यह रहा कि मध्य-युग में दर्शन तेजस्विनावधीतमस्तुमा विद्विषावहे । साधकों और ऋषि-मुनियों के हाथों से निकलकर तथाकथित बुद्धिजीवियों
(तैत्तिरीय आरण्यक, ८/२) के हाथों में चला गया । फलत: उसमें तार्किक पक्ष प्रधान तथा हम सब साथ-साथ रक्षित हों, साथ-साथ पोषित हों, साथअनुभूतिपूरक साधना पक्ष एवं आचार-पक्ष गौण हो गया और हमारी साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हों, हम आपस में . जीवन-शैली से उसका रिश्ता धीरे-धीरे टूटता गया ।
विद्वेष न करें । वैदिक समाज दर्शन का आदर्श था - 'शत-हस्त: सामाजिक चेतना के विकास की दृष्टि से भारतीय चिन्तन को समाहर, सहस्त्रहस्त:सीकर' सैकड़ों हाथों से इकट्ठा करो और हजार हाथों हम तीन भागों में बाँट सकते हैं -
से बाँटो । किन्तु यह बाँटने की बात दया या कृपा नहीं है अपितु १- वैदिक युग,
सामाजिक दायित्व का बोध है । क्योंकि भारतीय चिन्तन में दान के लिए २- औपनिषदिक युग एवं
संविभाग शब्द का प्रयोग होता रहा है, इसमें सम वितरण या सामाजिक ३- जैन-बौद्ध युग
दायित्व का बोध ही प्रमुख है, कृपा, दया, करुणा ये सब गौण हैं । वैदिक युग में जनमानस में सामाजिक चेतना को जाग्रत करने आचार्य शंकर ने दान की व्याख्या की है 'दानं संविभागम्' । जैन दर्शन का प्रयत्न किया गया, जबकि औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना के में तो अतिथि-संविभाग के रूप में एक स्वतन्त्र व्रत की व्यवस्था की गई लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण किया गया और जैन-बौद्ध युग है । वैदिक ऋषियों का निष्कर्ष था कि जो अकेला खाता है वह पापी में सामाजिक सम्बन्धों के शुद्धिकरण पर बल दिया गया।
है (केवलाघो भवति केवलादी) । जैन दर्शनिक भी कहते थे 'असंविभागी भारतीय चिन्तन की प्रवर्तक वैदिक धारा में सामाजिकता का न हु तस्स मोक्खो' जो सम-विभागी नहीं है उसकी मुक्ति नहीं होगी। तत्त्व उसके प्रारम्भिक काल से ही उपस्थित है । वेदों में सामाजिक जीवन इस प्रकार हम वैदिक युग में सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प की संकल्पना के व्यापक सन्दर्भ हैं । वैदिक ऋषि सफल एवं सहयोगपूर्ण उपस्थित पाते हैं । किन्तु उसके लिए दार्शनिक आधार का प्रस्तुतिकरण सामाजिक जीवन के लिए अभ्यर्थना करते हुए कहता है कि 'संगच्छध्वं औपनिषदिक चिन्तन में ही हुआ है । औपनिषदिक ऋषि ‘एकस्तथा संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् (ऋग्वेद १०/१९१/२) तुम मिलकर सर्वभूतान्तरात्मा' 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साथ विचार करें अर्थात् तुम्हारे रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा । औपनिषदिक चिन्तन में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org