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भारतीय संस्कृति का समन्वित स्वरूप
५२५ प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति पूजा मोक्ष को प्राप्त कर लिया था। सूत्रकृतांगकार की दृष्टि में ये ऋषिगण जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक भिन्न आचारमार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के सभी कुछ सन्निविष्ट है।
ऋषि थे । सूत्रकृतांग में इन ऋषियों को सिद्धि प्राप्त कहना तथा अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्दु परम्परा से भिन्न नहीं माना उत्तराध्ययन में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता जा सकता । जैन व बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पथ के अनुयायी है जिसका है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती प्रवर्तन औपनिषदिक ऋषियों ने किया था। उनकी विशेषता यह है कि थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार नियमों का पालन करने उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मजातिवाद, वाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार मार्ग का पालन करने वाला कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है। धर्म का प्रतिपादन किया जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे इसी संदर्भ में यहाँ ऋषिभाषित (इसिभासियाई) का उल्लेख कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। करना भी आवश्यक है जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ चाहे उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त (ई. पू. चौथी शती ) है । जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय किया हो, फिर भी वे विदेशी नहीं हैं, इस माटी की संतान हैं, वे शत- हुआ होगा जब जैन धर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ प्रतिशत भारतीय हैं । उनकी भूमिका एक शल्य-चिकित्सक की भूमिका था । इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगीरस, पाराशर, अरुण, है जो मित्र की भूमिका है, शत्र की नहीं । जैन और बौद्ध धर्म नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप,
औपनिषदिक धारा का ही एक विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य मंखलिगोसाल, संजय (वेलठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का में समझने की आवश्यकता है।
उल्लेख है और इन सभी को अर्हत्ऋषि, बुद्ध-ऋषि एवं ब्राह्मणऋषि भारतीय धर्मों विशेषरूप से औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धर्मों कहा गया है । ऋषिभाषित में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा-आचारांग, संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन परम्परा का सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन आदि हमारे दिशा-निर्देशक उद्गम स्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैन धर्म की धार्मिक उदारता सिद्ध हो सकते हैं । मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास परम्पराओं का मूल स्रोत एक ही है । औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, दूर हो जायेगा कि जैन धर्म, बौद्ध धर्म और हिन्दू धर्म परस्पर विरोधी आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्रोत से निकली हुई धारायें धर्म हैं । आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने हैं। जिस प्रकार जैन धर्म में ऋषिभाषित में विभिन्न परम्पराओं के उपदेश भाव, शब्दयोजना और भाषाशैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के संकलित हैं उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की थेरगाथा में भी विभिन्न निकट हैं । आचारांग में आत्मा के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण परम्पराओं के जिन-स्थविरों के उपदेश संकलित हैं, उनमें भी अनेक प्रस्तुत किया गया है वह माण्डूक्योपनिषद् से यथावत् मिलता है। औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं जिनमें आचारांग में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप एक वर्धमान (महावीर) भी है । यह सब इस तथ्य का सूचक है कि में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में ही मिलता है। चाहे आचारांग, भारतीय परम्परा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी उत्तराध्ययन आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज हैं किन्तु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से जकड़ कर परस्पर संघर्षों में उलझ अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में गये हैं इन ग्रन्थों का अध्ययन हमें एक नई दृष्टि प्रदान कर सकता ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है । उसमें अनेक स्थलों है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिंतन की इन धाराओं को एक दूसरे से पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायेगा तो हम उन्हें सम्यक् रूप से
समझने में सफल नहीं हो सकेंगे । उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित इसी प्रकार सूत्रकृतांग में यद्यपि तत्कालीन दाशनिक मान्यताओं और आचारांग को समझने के लिए औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन की समीक्षा है किन्तु उसके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक आवश्यक है । इसी प्रकार उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक, असितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा का समादर पूर्वक उल्लेख हुआ है । सूत्रकृतांग स्पष्ट रूप से यह स्वीकार सकता है। आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं करता है कि यद्यपि इन ऋषियों के आचार-नियम उसकी आचार परम्परा तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है जो से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है। मानता है । वह उन्हें महापुरुष और तपोधना के रूप में उल्लेखित करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य
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