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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ दिन को स्थानकवासी और तेरापंथी समाज तो मानता ही है, मूर्तिपूजक शिथिलाचार प्रविष्ट हो गया हो, अत: जनसाधारण के समक्ष मुनि आचार समाज को भी इसमें आगमिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं आती है, क्योकि का विवेचन करना उचित नहीं समझा जाता हो। इस निषेध का एक कालकाचार्य की भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी की व्यवस्था अपवादिक व्यवस्था तात्पर्य यह भी हो सकता है कि पर्युषण-कल्प की आवृत्ति के साथ थी और एक नगर विशेष की परिस्थिति विशेष पर आधारित थी। सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के अवसर पर साधुओं को उनके विगत वर्ष आज चूँकि उसका कोई कारण नहीं, पुनः स्वयं निशीथचूर्णि के अनुसार के अतिचारों या दोषों का प्रायश्चित भी दिया जाता रहा हो। अन्य तैर्थिकों चतुर्थी अपर्व तिथि है; अत: आषाढ़ पूर्णिमा और भाद्र शुक्ल पञ्चमी या गृहस्थों के उपस्थित रहने पर प्रथम तो साधु अपने अपराधों या में से किसी एक दिन को पर्व का मूल दिन चुन लिया जाये। शेष दोषों को स्वीकार ही नहीं करेंगे, साथ ही सबके समक्ष दण्ड दिये जाने दिन उसके आगे हो या पीछे, यह अधिक महत्त्व नहीं रखता है- पर उनकी बदनामी होगी। अत: सांवत्सरिक प्रतिक्रमण और पर्युषण-कल्प सुविधा की दृष्टि से उन पर एक आम सहमति बनाई जा सकती है। का जनता के समक्ष वाचन पहले निषिद्ध था। किन्तु कालान्तर में उस
समाचारी (आचार सम्बन्धी भाग) को गौण करके तथा उसमें कथा पर्युषण में पठनीय आगम ग्रन्थ
भाग, इतिहास को जोड़कर गृहस्थों के समक्ष उसके पठन की परम्परा ___ वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में पर्युषण में कल्पसूत्र प्रचलित हो गई, जो कि आज १५०० वर्षों से निरन्तर प्रचलित है। वाचन की परम्परा है। पहले पर्युषण (संवत्सरी) के दिन साधुगण रात्रि श्वेताम्बर समाज की स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं में के प्रथम प्रहर में दशाश्रुतस्कन्ध (आयारदशा) के आठवें अध्ययन पर्युषण कल्पसूत्र के स्थान पर अन्तकृत्दशाङ्गसूत्र के वाचन की प्रथा है। इसका कल्प का पारायण करते थे, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने वर्तमान कल्पसूत्र प्रारम्भ स्थानकवासी परम्परा के उद्भव के साथ ही हुआ है। अत: का प्राचीनतम अंश बताया है। कालान्तर में इस अध्याय को उससे यह प्रथा ४०० वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। यद्यपि मूल कल्पसूत्र अलग कर तथा उसके साथ महावीर, पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि और ऋषभ में ऐसा कुछ नहीं है जो स्थानकवासी परम्परा के प्रतिकूल हो, फिर के जीवनवृत्तों एवं अन्य तीर्थङ्करों के सामान्य उल्लेखों तथा स्थविरावली भी इस नवीन प्रथा का प्रारम्भ क्यों हुआ यह विचारणीय है। प्रथम (महावीर से परवर्ती आचार्य परम्परा) को जोड़कर कल्पसूत्र नामक स्वतन्त्र कारण तो यह हो सकता है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा से अपनी ग्रन्थ की रचना की गई, जो कि लगभग पन्द्रह सौ वर्षों से पर्युषण भिन्नता रखने के लिए इसका वाचन प्रारम्भ किया गया हो। दूसरे इसे पर्व में पढ़ा जाता है। पर्युषण के अवसर पर जनसाधारण के समक्ष इसलिए चुना गया हो कि पर्युषण के आठ दिन माने गये थे और कल्पसूत्र पढ़ने की परम्परा का प्रारम्भ वीर निर्वाण के ९८० या ९९३ यह अष्टम अङ्ग था तथा इसमें आठ ही वर्ग थे। तीसरे यह कि कल्पसूत्र वर्ष के बाद आनन्दपुर नगर में ध्रुवसेन राजा के समय हुआ था। की अपेक्षा भी इसमें तप-त्याग की विस्तृत चर्चा थी, जो आडम्बर जनसाधारण के समक्ष पढ़ने के उद्देश्य से ही इसमें तीर्थङ्करों के जीवन रहित तप-त्यागमय आचार प्रधान स्थानकवासी परम्परा के लिए अधिक चरित्रों का समावेश किया गया था क्योकि उस समय तक हिन्दुओं अनुकूल थी। चौथे कल्पसूत्र का जिन टीकाओं के साथ वाचन हो और बौद्धों में भी अपने उपास्य देवों के जीवन चरित्रों को जनसाधारण रहा था, उनमें मूर्तिपूजा आदि सम्बन्धी ऐसे प्रसङ्ग थे जिनका वाचन के समक्ष पढ़ने की प्रथा प्रारम्भ हो चुकी थी और जैन आचार्यों के करना उनके लिए सम्भव नहीं था। अत: उन्हें एक नये आगम का लिए भी यह आवश्यक हो गया था कि वे भी अपने उपास्य तीर्थङ्करों चुनाव ही अधिक उपयुक्त लगा हो। अन्तकृतदशाङ्गसूत्र में प्रथम पाँच का जीवनवृत्त अपने अनुयायियों को बतायें। ध्रुवसेन के पुत्रशोक को वर्गों में भगवान् अरिष्टनेमि के काल के ४१ त्यागी पुरुषों एवं १० दूर करने का कथानक इस परम्परा के प्रारम्भ होने का एक निमित्त महिलाओं का जीवनवृत्त है। शेष तीन वर्गों में महावीरकालीन १६ माना जा सकता है, किन्तु उसका मूल कारण तो उपर्युक्त तत्कालीन त्यागी पुरुषों एवं २३ महिलाओं का जीवनवृत्त है, जिन्होंने साधना परिस्थिति ही थी। यद्यपि इसके पूर्व भी 'पर्युषण-कल्प' की आवृत्ति के उत्तुङ्ग शिखरों पर चढ़कर तथा देहभाव से ऊपर उठकर कठोर पर्युषण (संवत्सरी) के दिन मुनि वर्ग सामूहिक रूप से करता था, तथापि तपश्चर्याएँ की और अपने अन्तिम समय में कैवल्य को प्राप्त कर मोक्षरूपी निशीथ के अनुसार उसका गृहस्थों के सामने वाचन निषिद्ध था। निशीथ लक्ष्मी का वरण किया। सूत्र में मुनियों को गृहस्थों एवं अन्य तैर्थिकों के साथ पर्युषण करने दिगम्बर परम्परा में इन दशलक्षणपर्व के दिनों में तत्त्वार्थसूत्र के का चातुर्मासिक प्रायश्चित (अर्थात् १२० दिन के उपवास का दण्ड) दस अध्यायों के वाचन की परम्परा रही है, जो दिन की संख्या के बताया गया है-जे भिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारथिएणवा पज्जोसवेइ साथ सङ्गतिपूर्ण है। तत्त्वार्थसूत्र जैन तत्त्वज्ञान का साररूप ग्रन्थ होने पज्जोसवंतं वा साइज्जइ- निशीथ (१०/४७)। सम्भवत: यह निषेध से पर्व के दिन में इसका वाचन उपयुक्त ही है। इसी प्रकार दस धर्मो इसलिए किया गया था कि पर्युषण-कल्प का वाचन गृहस्थों एवं अन्य पर प्रवचन भी नैतिक चेतना के जागरण की दृष्टि से उचित है। तैर्थिकों के समक्ष करने पर उन्हें मुनि के वर्षावास सम्बन्धी आचार यद्यपि विभिन्न परम्पराओं में पर्युषण में पठनीय ग्रन्थों में से किसी नियमों की जानकारी हो जायेगी और किसी को उसके विपरीत आचरण का भी महत्त्व कम नहीं है, किन्तु जैन सङ्घ की एकात्मकता की दृष्टि करते देखकर वे उसकी आलोचना करेंगे, इससे सङ्घ की बदनामी होगी। से किसी समणसुत्तं जैसे सर्वमान्य ग्रन्थ के वाचन की परम्परा भी प्रारम्भ यह भी सम्भव है निशीथ की रचना के समय तक मुनि जीवन में की जा सकती है।
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