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पर्युषण पर्व : एक विवेचन
५१३ तिथिनिर्णय में यह उल्लेख अवश्य है कि दशलाक्षणिक व्रत में भाद्रपद कुछ व्यक्ति यह तर्क उठाते हैं कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण आषाढ़ी पूर्णिमा की शुक्ल पञ्चमी को प्रोषध करना चाहिए। इससे पर्व का भी मुख्य को ही करना चाहिए। यही वर्ष का अन्तिम दिन है। भाद्रपद शुक्ल दिन यही प्रतीत होता है। 'क्षमाधर्म' आराधना का दिन होने से भी पञ्चमी को जैन ज्योतिष की दृष्टि से तथा अन्य किसी भी दृष्टि से यह श्वेताम्बर परम्परा की संवत्सरी-पर्व की मूल भावना के अधिक निकट वर्ष का न अन्तिम दिन है और न प्रारम्भिक दिन। बैठता है। आशा है दिगम्बर परम्परा के विद्वान् इस पर अधिक प्रकाश इसका समाधान यह है कि यद्यपि आषाढ़ पूर्णिमा संवत्सर का डालेंगे।
अन्तिम दिन माना गया है, किन्तु शास्त्र में जो पर्युषण का विधान इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में भी पर्युषण का उत्सर्गकाल आषाढ़ है वह आषाढ़ पूर्णिमा से पचास दिन के भीतर किसी पर्व तिथि अर्थात् पूर्णिमा और अपवादकाल भाद्र शुक्ल पञ्चमी माना जा सकता है। पञ्चमी, दशमी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि में मनाने का है। निर्दोष
स्थान आदि की प्राप्ति न हो तो भी आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास समन्वय कैसे करें?
और बीस दिन बीत जाने पर तो अवश्य ही मनाना होता है। इस उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आषाढ़ पूर्णिमा पर्युषण (संवत्सरी) दृष्टि से देखें तो आषाढ़ पूर्णिमा से पचासवाँ दिन एक निश्चित दिन पर्व की अपर सीमा है और भाद्र शुक्ल पञ्चमी अपर सीमा है। इस है, इस दिन पर्युषण निश्चित रूप से करना ही होता है। इस दिन प्रकार पर्युषण इन दोनों तिथियों के मध्य कभी भी पर्व तिथि में किया का उल्लङ्घन करने पर प्रायश्चित्त आता है, अर्थात् अन्य सभी विकल्प जा सकता है। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं के अनुसार आषाढ़ __ के दिनों को पार कर लेने के बाद पचासवाँ दिन निर्विकल्पक दिन पूर्णिमा को केशलोच, उपवास एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर वर्षावास है, अत: इस दिन का सबसे अधिक महत्त्व है। यह सीमा का वह की स्थापना कर लेनी चाहिये, यह उत्सर्ग मार्ग है। यह भी स्पष्ट है अन्तिम पत्थर है जिसका उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता। आचार्यों कि बिना किसी विशेष कारण के अपवाद मार्ग का सेवन करना भी ने इसी दिन को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का दिन स्वीकार कर दूरदर्शिता उचित नहीं है। प्राचीन युग में जब उपाश्रय नहीं थे तथा साधु साध्वियों का परिचय दिया है, साथ ही समस्त श्रमण संघ को एकसूत्र में बाँधे के निमित्त बने उपाश्रयों में नहीं ठहरते थे, तब योग्य स्थान की प्राप्ति रखने का भी एक सुन्दर मार्ग दिखाया है। बीच के दिन तो अपनी-अपनी के अभाव में पर्युषण (वर्षावास की स्थापना) कर लेना सम्भव नहीं सुविधा के दिन हो सकते हैं, जिस दिन जहाँ पर जिसको स्थान आदि था। पुनः साधु-साध्वियों की संख्या अधिक होने से आवास प्राप्ति की सुविधा मिले वह उसी पर्व तिथि (पञ्चमी-दशमी-पूर्णिमा आदि) सम्बन्धी कठिनाई बराबर बनी रहती थी। अत: अपवाद के सेवन की को पर्युषण कर ले तो इससे सङ्घ में बहुरूपता आ जाती है, विभिन्नता सम्भावना अधिक बनी रहती थी। स्वयं भगवान् महावीर को भी स्थान आती है, फिर मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना वाली स्थिति आ सकती है, इसलिए सम्बन्धी समस्या के कारण वर्षाकाल में विहार करना पड़ा था। भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी अर्थात् आषाढ़ पूर्णिमा से पचासवें दिन पर्युषण निशीथचूर्णि की रचना तक अर्थात् सातवीं-आठवीं शताब्दी तक करने अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का निश्चित विधान है, जो साधु-साध्वी स्थान की उपलब्धि होने पर अपनी एवं स्थानीय संघ की सङ्घ की एकता और श्रमण सङ्घ की अनुशासनबद्धता के लिए भी सुविधा के अनुरूप आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा से भाद्र शुक्ल पञ्चमी तक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है"।१६ कभी भी पर्युषण कर लेते थे। यद्यपि उस युग तक चैत्यवासी साधुओं यदि सम्पूर्ण जैन समाज की एकता की दृष्टि से विचार करें तो ने महोत्सव के रूप में पर्व मनाना तथा गृहस्थों के समक्ष कल्पसूत्र आज साधु-साध्वी वर्ग को स्थान उपलब्ध होने में सामान्यतया कोई का वाचन करना एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना आदि आरम्भ कर कठिनाई नहीं होती है। आज सभी परम्परा के साधु-साध्वी आषाढ़ दिया था, किन्तु तब भी कुछ कठोर आचारवान साधु थे, जो इसे पूर्णिमा को वर्षावास की स्थापना कर लेते हैं और जब अपवाद का आगमानुकूल नहीं मानते थे। उन्हीं को लक्ष्य में रखकर चूर्णिकार ने कोई कारण नहीं है तो फिर अपवाद का सेवन क्यों किया जाये? कहा था- यद्यपि साधु को गृहस्थों के सम्मुख पर्युषण कल्प का वाचन दूसरे भाद्रपद शुक्ल पक्ष में पर्युषण / संवत्सरी करने से जो अपकाय नहीं करना चाहिए, किन्तु यदि पासत्था (चैत्यवासी-शिथिलाचारी और त्रस की विराधना से बचने के लिए संवत्सरी के पूर्व केशलोच साधु) पढ़ता है तो सुनने में कोई दोष नहीं है। लगता है कि आठवीं का विधान था उसका कोई मूल उद्देश्य हल नहीं होता है। वर्षा में शताब्दी के पश्चात् कभी संघ की एकरूपता को लक्ष्य में रखकर किसी बालों के भीगने से अपकाय की विराधना और त्रस जीवों के उत्पत्ति प्रभावशाली आचार्य ने अपवादकाल की अन्तिम तिथि भाद्र शुक्ल की सम्भावना रहती है। अत: उत्सर्ग मार्ग के रूप आषाढ़ पूर्णिमा चतुर्थी/पञ्चमी को पर्युषण (संवत्सरी) मनाने का आदेश दिया हो। को संवत्सरी/पर्युषण करना ही उपयुक्त है, इसमें आगम से कोई विरोध युवाचार्य मिश्रीमलजी म० ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। वे भी नहीं है और समग्र जैन समाज की एकता भी बन सकती है। साथ लिखते हैं कि “सामान्यत: संवत्सर का अर्थ है- वर्ष। वर्ष के अन्तिम ही दो श्रावण या दो भाद्रपद का विवाद भी स्वाभाविक रूप से हल दिन किया जाने वाला कृत्य सांवत्सरिक कहलाता है। वैसे जैन परम्परा हो जाता है। के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को संवत्सर समाप्त होता है, और श्रावण यदि अपवाद मार्ग को ही स्वीकार करना है तो फिर अपवाद मार्ग प्रतिपदा (श्रावण बदी १) को नया संवत्सर प्रारम्भ होता है। इसलिए के अन्तिम दिन भाद्र शुक्ल पञ्चमी को स्वीकार किया जा सकता है। इस
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