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दशलक्षण पर्व / दशलक्षण धर्म
श्रद्धा का अधिकारी भी नहीं होता है और इस प्रकार जैनत्व से भी च्युत हो जाता है।
बौद्ध परम्परा में क्षमा- बौद्ध परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व निर्विवाद रूप से मान्य है। कहा गया है कि आर्य विनय के अनुसार इससे उन्नति होती है जो अपने अपराध को स्वीकार करता है और भविष्य में संयत रहता है।" संयुत्तनिकाय में कहा गया है कि क्षमा से बढ़कर अन्य कुछ नहीं है। क्षमा ही परम तप है । ११ आचार्य शान्तिरक्षित ने क्षान्ति पारमिता (क्षमा-धर्म) का सविस्तार सजीव विवेचन किया है, वे लिखते हैं-द्वेष के समान पाप नहीं है और क्षमा के समान तप नहीं है, इसलिए विविध प्रकार के यत्नों से क्षमाभावना करनी चाहिए।" २
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वैदिक परम्परा में क्षमा- वैदिक परम्परा में भी क्षमा का महत्त्व माना गया है। मनु ने दस धर्मों में क्षमा को धर्म माना है। गीता में क्षमा को दैवी सम्पदा एवं भगवान् की ही एक वृत्ति कहा गया है"। महाभारत के उद्योग पर्व में क्षमा के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। उसमें कहा गया है कि क्षमा असमर्थ मनुष्यों का गुण है, तथा समर्थ मनुष्यों का भूषण है। हे राजन् ! ये दो प्रकार के पुरुष स्वर्ग के भी ऊपर स्थान पाते हैं- (१) शक्तिशाली होने पर भी क्षमा करने वाला और (२) निर्धन होने पर भी दान देने वाला। क्षमा, द्वेष को दूर करती है, इसलिए वह एक महत्वपूर्ण सद्गुण है।
२. मार्दव
मार्दव का अर्थ विनीतता या कोमलता है। मान कषाय या अहंकार को उपशान्त करने के लिए मार्दव (विनय) धर्म के पालन का निर्देश है। विनय अहंकार का प्रतियोगी है व उससे अहंकार पर विजय प्राप्त की जाती है।" उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि धर्म का मूल विनय है।" उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र में विनय का विस्तृत विवेचन है। जैन परम्परा में अविनय का कारण अभिमान कहा गया है। अभिमान आठ प्रकार के हैं- (१) जातिमद -- जाति का अहंकार करना, जैसे मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हैं जाति के अहंकार के कारण उच्च जाति में निम्न जाति के लोगों के प्रति घृणा की वृत्ति उत्पन्न होती है और परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन में एक प्रकार की दुर्भावना और विषमता उत्पन्न होती है। (२) कुलमद - परिवार की कुलीनता का अहंकार करना । कुलमद व्यक्ति को दो तरह से नीचे गिराता है। एक तो यह कि जब व्यक्ति में कुल का अभिमान जागृत होता है तो वह दूसरों को अपने से निम्न समझने लगता है और इस प्रकार सामाजिक जीवन में असमानता की वृत्ति को जन्म देता है। दूसरे कुल के अहंकार के कारण वह कठिन परिस्थितियों में भी श्रम करने से जी चुराता है, जैसे कि मैं राजकुल का है; अतः अमुक निम्र श्रेणी का व्यवसाय या कार्य कैसे करूँ ? इस प्रकार झूठी प्रतिष्ठा के व्यामोह में अपने कर्तव्य से विमुख होता है व समाज पर भार बनकर रहता है। (३) बलमद - शारीरिक शक्ति का अहंकार करना शक्ति का अहं व्यक्ति में भावावेश उत्पन्न करता है, और परिणामस्वरूप व्यक्ति का अभाव हो जाता है। राष्ट्रों
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में जब यह शक्तिमद तीव्र होता है तो वे दूसरे राष्ट्रों पर आक्रमण के लिए बड़े ही आतुर हो जाते हैं और छोटी सी बात के लिए भी आक्रमण कर देते हैं। (४) तपमद - तपस्या का अहंकार करना । व्यक्ति में जब तप का अहंकार जागृत होता है तो वह साधना से गिर जाता है। जैन कथा - साहित्य में कुरुगुडुक केवली की कथा इस बात को बड़े ही सुन्दर रूप में चित्रित करती है कि तप का अहंकार करने वाले साधना के क्षेत्र में कितने पीछे रह जाते हैं। (५) रूपमद शारीरिक सौन्दर्य का अहंकार करना। रूपमद व्यक्ति में अहंकार की वृत्ति जागृत कर दूसरे को अपने से निम्न समझने की भावना उत्पन्न करता है और इस प्रकार एक प्रकार की असमानता का बीज बोता है । पाश्चात्य राष्ट्रों में श्वेत और काली जातियों के बीच चलने वाले संघर्ष के मूल में रूप और जाति की अभिमान ही प्रमुख है। (६) ज्ञानमद-बुद्धि अथवा विद्या का अहंकार करना ज्ञान का अहंकार जब व्यक्ति में आता है तो वह दूसरे लोगों को अपने से छोटा मानने लगता है। इस प्रकार एक ओर वह दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाने से वंचित रहता है तो दूसरी ओर बुद्धि का अभिमान स्वयं उसके ज्ञान उपलब्धि के प्रयत्नों में बाधक बनता है। इस प्रकार उसके ज्ञान का विकास कुण्ठित हो जाता है। (७) ऐश्वर्यमद - धन-सम्पदा और प्रतिष्ठा का अहंकार करना। यह भी समाज में वर्ग-विद्वेष का कारण और व्यक्ति के अन्दर एक प्रकार की असमानता की वृत्ति को जन्म देता है। (८) सत्तामद-पद, अधिकार आदि का घमण्ड करना, जैसे— गृहस्थ वर्ग में राजा, सेनापति, मंत्री आदि के पद, श्रमण संस्था में आचार्य, उपाध्याय, गणि आदि के पद जैन परम्परा के अनुसार जब तक अहंभाव का विगलन होकर विनम्रता नहीं आती तब तक व्यक्ति नैतिक विकास की दशा में आगे नहीं बढ़ सकता उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि विनय के स्वरूप को जानकर नम्र बनाने वाले बुद्धिमान की लोक में प्रशंसा होती है, जिस प्रकार प्राणियों के लिए पृथ्वी आधारभूत है, उसी प्रकार वह भी सद्गुणों का आधार होता है । १७
बौद्ध परम्परा में अहंकार की निन्दा-बौद्ध परम्परा में अहंकार को साधना की दृष्टि से अनुचित माना गया है। अंगुत्तरनिकाय में तीन मदों का विवेचन उपलब्ध है। भिक्षुओं ! यौवनमद में, आरोग्यमद में, जीवनमद में मत अज्ञानी सामान्यजन शरीर से दुष्कर्म करता है, वाणी से दुष्कर्म करता है तथा मन से दुष्कर्म करता है। वह शरीर, वाणी तथा मन से दुष्कर्म करके शरीर के छूटने पर, मरने के अनन्तर अपाय, दुर्गति, पतन, एवं नरक को प्राप्त होता है। भिक्षुओं! आरोग्य-मद
भिक्षु शिक्षा का त्याग कर पतनोन्मुख होता है। भिक्षुओं! जीवनमद से मत्त भिक्षु शिक्षा का त्यागकर पतनोन्मुख होता है । " सुत्तनिपात में कहा है कि जो मनुष्य जाति, धन और गोत्र का गर्व करता है, वह उसकी अवनति का कारण है। १९ इस प्रकार बौद्ध धर्म में १. यौवन, २. आरोग्य. ३. जीवन, ४ जाति ५ धन और ६ गोत्र इन छह मदों से बचने का निर्देश है।
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गीता में अहंकारवृत्ति की निन्दा - गीता के अनुसार अहंकार को पतन का कारण माना गया है। जो यह अहंकार करता है कि मैं
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