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दशलक्षण पर्व / दशलक्षण धर्म
जिस पर्व को श्वेताम्बर परम्परा में पर्युषण कहते हैं, उसे दिगम्बर परम्परा में दशलक्षण पर्व के नाम से जाना जाता है। दिगम्बर परम्परा में इस दशलक्षण पर्व का प्रारम्भ कब से हुआ, यह अभी शोध का विषय है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में इस पर्व का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ है। जैसा कि हमने पर्युषण सम्बन्धी लेख (श्रमण, अगस्त १९८२) में सङ्केत किया था कि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इस पर्व का उल्लेख लगभग सतरहवीं शताब्दी के बाद से प्रारम्भ होता है। सतरहवीं शताब्दी के एक ग्रन्थ 'व्रत तिथि निर्णय' में इस पर्व का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा में यह पर्व दस दिनों में क्षमा आदि दस धर्मों की साधना के द्वारा मनाया जाता है। क्षमा आदि जिन दस धर्मों या सद्गुणों का पालन इस पर्व में किया जाता है, उनके उल्लेख काफी प्राचीन हैं जैन परम्परा और वैदिक परम्परा दोनों में ही इन दस धर्मों का उल्लेख मिलता है दशलक्षण पर्व के दस दिन में प्रत्येक दिन क्रमशः एक-एक धर्म की विशेष रूप से साधना की जाती है। इस प्रकार दशलक्षण पर्व सद्गुणों / धर्म की साधना का पर्व है।
दशविध धर्म (सद्गुण)
जैन आचार्यों ने दस प्रकार के धर्मों (सद्गुणों) का वर्णन किया है, जो कि गृहस्थ और भ्रमण दोनों के लिए समान रूप से आचरणीय हैं। आचारांगसूत्र, मूलाचार, बारस्सअणुवेक्खा, स्थानांगसूत्र, समवायांगसूत्र और तत्त्वार्थसूत्र के साथ-साथ परवर्ती अनेक ग्रन्थों में भी इन धर्मों का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है।
यहाँ 'धर्म' शब्द का अर्थ सद्गुण या नैतिक गुण ही अभिप्रेत है। सर्वप्रथम हमें आचरांगसूत्र में आठ सामान्य धर्मों का उल्लेख उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया हैं कि जो धर्म में उत्थित अर्थात् तत्पर हैं उनको और जो धर्म में उत्थित नहीं हैं उनको भी निम्न बातों का उपदेश देना चाहिए - शांति, विरति (विरक्ति), उपशम, निवृत्ति, शौच (पवित्रता), आर्जव, मार्दव और लाघव । ' इस प्रकार उसमें इनकी साधना गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित हैं। स्थानांगसूत्र और समवायांगसूत्र' में दस श्रमण-धर्मों के रूप में इन्हीं सद्गुणों का उल्लेख हुआ है। यद्यपि स्थानांगसूत्र और समवायांगसूत्र की सूची आचारांगसूत्र से थोड़ी भिन्न है उसमें दस धर्म हैं—क्षांति (क्षमा), मुक्ति, आर्जव, मार्दव, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग और ब्रह्मचर्यवास। इस सूची में शौच का अभाव है शान्ति, विरति उपशम और निवृत्ति के स्थान पर नामान्तर से शांति, मुक्ति, संयम और त्याग का उल्लेख हुआ है। जबकि सत्य, त्याग और ब्रह्मचर्यवास इस सूची में नये हैं । बारसअणुवेक्खा एवं तत्त्वार्थसूत्र में भी श्रमणाचार के प्रसंग में ही दस धर्मों का उल्लेख हुआ है। तत्त्वार्थसूत्र की सूची में लाघव के स्थान पर आकिंचन्य का उल्लेख हुआ है; यद्यपि दोनों का अर्थ समान ही
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है। दूसरे तत्त्वार्थसूत्र में मुक्ति के स्थान पर शौच का उल्लेख हुआ है। इन दोनों में अर्थ भेद भी है चाहे इन धर्मों (सद्गुणों) का उल्लेख श्रमणाचार के प्रसंग में ही अधिक हुआ है, किन्तु आचारांगसूत्र (१/ ६/५) और पद्मनन्दीकृत पंचविंशतिका (६/५९) के अनुसार इनका पालन गृहस्थ और श्रमण दोनों के लिए अपेक्षित है। इनके क्रम और नामों को लेकर जैन आचार ग्रन्थों में थोड़ा-बहुत मतभेद पाया जाता है। फिर भी इनकी मूलभावना में कोई विशेष अन्तर नहीं है। प्रस्तुत विवेचन तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर कर रहे हैं तत्त्वार्थसूत्र में निम्न दस धर्मों का उल्लेख हैं' (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग, (९) अकिंचनता और (१०) ब्रह्मचर्य।
१. क्षमा
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क्षमा प्रथम धर्म है दशवेकालिकसूत्र के अनुसार क्रोध प्रीति का विनाशक है। " क्रोध कषाय के उपशमन के लिए क्षमा-धर्म का विधान है क्षमा के द्वारा ही क्रोध पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जैन परम्परा में अपराधी को क्षमा करना और स्वयं के अपराधों के लिए, जिसके प्रति अपराध किया गया है, उससे क्षमा-याचना करना साधक का परम कर्तव्य है। जैन साधक का प्रतिदिन यह उदघोष होता है कि मैं सभी प्राणियों को क्षमा करता हूँ और सभी प्राणी मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है। महावीर का भ्रमण साधकों के लिए यह आदेश था कि साधुओं! यदि तुम्हारे द्वारा किसी का अपराध हो गया है, तो सबसे पहले क्षमा माँगो । जब तक क्षमा-याचना न कर लो भोजन मत करो, स्वाध्याय मत करो, शौचादि कर्म भी मत करो, यहाँ तक कि अपने मुँह का थूक भी गले से नीचे मत उतारो। अपने प्रधान शिष्य गौतम की लाये हुए आहार को रखवा कर पहले आनन्द श्रावक
क्षमा-याचना के लिए भेजना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि महावीर की दृष्टि में क्षमा-धर्म का कितना अधिक महत्त्व था । " जैन परम्परा के अनुसार प्रत्येक साधक को प्रातः काल एवं सायंकाल, पक्षान्त में, चातुर्मास के अन्त में और संवत्सरी पर्व पर सभी प्राणियों से क्षमायाचना करनी होती है। जैन समाज का वार्षिक पर्व 'क्षमावाणी' के नाम से भी प्रसिद्ध है। जैन आचार-दर्शन की मान्यता है कि यदि श्रमण साधक पक्षान्त तक अपने क्रोध को शान्त कर क्षमा-याचना नहीं कर लेता है तो उसका श्रमणत्व समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार गृहस्थ उपासक यदि चार महीने से अधिक अपने हृदय में क्रोध के भाव बनाये रखता है और जिसके प्रति अपराध किया है, उससे क्षमायाचना नहीं करता तो वह गृहस्थ धर्म का अधिकारी नहीं रह पाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति एक वर्ष से अधिक तक अपने क्रोध की तीव्रता को बनाये रखता है और क्षमा-याचना नहीं करता वह सम्यक्
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