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पर्युषण पर्व : एक विवेचन
५११ भी जाना जाता है। वर्तमान में यह पर्व आठ दिनों तक मनाया जाता इसका समय वर्षान्त ही होना चाहिये। प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ है इसलिए इसे अष्टाह्निक अर्थात् आठ दिनों का पर्व भी कहते हैं। पूर्णिमा को वर्ष का अन्तिम दिन माना जाता था। श्रावण बदी प्रतिपदा
से नव वर्ष का आरम्भ होता था। भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पञ्चमी को दशलक्षण पर्व
किसी भी परम्परा (शास्त्र) के अनुसार वर्ष का अन्त नहीं होता। अत: दिगम्बर परम्परा में इसका प्रसिद्ध नाम दशलक्षण पर्व है। दिगम्बर भाद्र शुक्ल पञ्चमी को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की वर्तमान परम्परा परम्परा में भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र शुक्ल चतुर्दशी तक दश दिनों समुचित प्रतीत नहीं होती। प्राचीन आगमों में जो देवसिक, रात्रिक, में, धर्म के दस लक्षणों की क्रमश: विशेष साधना की जाती है, अतः । पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण का उल्लेख है, उसको इसे दशलक्षण पर्व कहते हैं।
देखने से ऐसा लगता है कि उस अवधि के पूर्ण होने पर ही तत्
सम्बन्धी प्रतिक्रमण (आलोचना) किया जाता था। जिस प्रकार आज पर्युषण (संवत्सरी) पर्व कब और क्यों?
भी दिन की समाप्ति पर देवसिक, पक्ष की समाप्ति पर पाक्षिक, चातुर्मास प्राचीन ग्रन्थों विशेष रूप से कल्पसूत्र एवं निशीथ के देखने से की समाप्ति पर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है, उसी प्रकार यह स्पष्ट होता है कि पर्युषण मूलत: वर्षावास की स्थापना का पर्व वर्ष की समाप्ति पर सांवत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाना चाहिये। प्रश्न था। यह वर्षावास की स्थापना के दिन मनाया जाता था। उपवास, होता है कि सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की यह तिथि भिन्न कैसे हो गई? केशलोच, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एवं प्रायश्चित्त, क्षमायाचना (कषाय- निशीथचूर्णि में जिनदासगणि ने स्पष्ट लिखा है कि पर्युषण पर्व पर उपशमन) और पज्जोसवणाकप्प (पर्युषण कल्प कल्पसूत्र) का पारायण वार्षिक आलोचना करनी चाहिये। (पज्जोसवनासु वरिसिया आलोयणा उस दिन के आवश्यक कर्तव्य थे। इस प्रकार पर्युषण एक दिवसीय दायिवा)। चूँकि वर्ष की समाप्ति आषाढ़ पूर्णिमा को ही होती है, इसलिए पर्व था। यद्यपि निशीथचूर्णि के अनुसार पर्युषण के अवसर पर तेला आषाढ़ पूर्णिमा को पर्युषण अर्थात् सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना चाहिए। (अष्टम भक्त तीन दिन का उपवास) करना आवश्यक था। उसमें स्पष्ट निशीथभाष्य में स्पष्ट उल्लेख है- आषाढ़ पूर्णिमा को ही पर्युषण उल्लेख है कि 'पज्जोसवणाए अट्ठम न करेइ तो चउगुरु' अर्थात् जो करना उत्सर्ग सिद्धान्त है। साधु पर्युषण के अवसर पर तेला नहीं करता है तो उसे गुरु चातुर्मासिक सम्भवत: इस पक्ष के विरोध में समवायाङ्ग और आयारदशा प्रायश्चित्त आता है। इसका अर्थ है कि पर्युषण की आराधना का (दशाश्रुतस्कन्ध) के उस पाठ को प्रस्तुत किया जा सकता है जिसके प्रारम्भ उस दिन के पूर्व भी हो जाता था। जीवाभिगमसूत्र के अनुसार अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा के एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो पर्युषण एक अठाई महोत्सव (अष्ट दिवसीय पर्व) के रूप में मनाया जाने पर पर्युषण करना चाहिए। चूँकि कल्पसूत्र के मूल पाठ में यह जाता था। उसमें उल्लेख है कि चातुर्मासिक पूर्णिमाओं एवं पर्युषण भी लिखा हुआ है कि श्रमण भगवान् महावीर ने आषाढ़ पूर्णिमा से के अवसर पर देवतागण नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव एक मास और बीस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर वर्षावास (पर्युषण) मनाया करते हैं।११ दिगम्बर परम्परा में आज भी आषाढ़, कार्तिक और किया था उसी प्रकार गणधरों ने किया, स्थविरों ने किया और उसी फाल्गुन की पूर्णिमाओं (चातुर्मासिक पूर्णिमाओं) के पूर्व अष्टाह्निक पर्व प्रकार वर्तमान श्रमण निर्ग्रन्थ भी करते हैं। निश्चित रूप से यह कथन मनाने की प्रथा है। लगभग आठवीं शताब्दी से दिगम्बर साहित्य में भाद्र शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण करने के पक्ष में सबसे बड़ा प्रमाण इसके उल्लेख मिलते हैं। प्राचीनकाल में पर्युषण आषाढ़ पूर्णिमा को है। लेकिन हमें यह विचार करना होगा कि क्या यह अपवाद मार्ग मनाया जाता था और उसके साथ ही अष्टाह्निक महोत्सव भी होता था या उत्सर्ग मार्ग था? यदि हम कल्पसूत्र के उसी पाठ को देखें था। हो सकता है कि बाद में जब पर्युषण भाद्र शुक्ल चतुर्थी/पञ्चमी तो, उसमें यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि इसके पूर्व तो पर्युषण एवम् को मनाया जाने लगा तो उसके साथ भी अष्ट-दिवस जुड़े रहे और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करना कल्पता है, किन्तु वर्षा ऋतु के एक मास इसप्रकार वह अष्ट दिवसीय पर्व बन गया।
और बीस रात्रि का अतिक्रमण करना नहीं कल्पता है- 'अंतरा वि वर्तमान में पर्युषण पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण दिन संवत्सरी पर्व य कप्पइ (पज्जोसवित्तए) नो से कप्पइ तं रयणि उवाइणा वित्तए।' माना जाता है। समवायाङ्गसूत्र के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा से एक मास निशीथचूर्णि में और कल्पसूत्र की टीकाओं में भाद्र शुक्ल चतुर्थी को
और बीस रात्रि पश्चात् भाद्रपद अर्थात् शुक्ल पञ्चमी को पर्युषण- पर्युषण या संवत्सरी करने का कालक आचार्य की कथा के साथ जो सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर लेना चाहिये। निशीथ के अनुसार पचासवीं उल्लेख है वह भी इस बात की पुष्टि करता है कि भाद्र शुक्ल पञ्चमी रात्रि का उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये। उपवासपूर्वक सांवत्सरिक के पूर्व तो पर्युषण किया जा सकता है किन्तु उस तिथि का अतिक्रमण प्रतिक्रमण करना, श्रमण का आवश्यक कर्तव्य तो था ही, लेकिन नहीं किया जा सकता है। निशीथचूर्णि में स्पष्ट लिखा है कि- 'आसाढ़ निशीथचूर्णि में उदयन और चण्डप्रद्योत के आख्यान से ऐसा लगता पूणिमाए पज्जोसेवन्ति एस उसग्गो सेस कालं पज्जोसेवन्ताणं अवहै कि वह गृहस्थ के लिए भी अपरिहार्य था। लेकिन मूल प्रश्न यह वातो। अवताते वि सवीससतिरातमासातो परेण अतिकम्मेउण वट्टति है कि यह सांवत्सरिक पर्व कब किया जाय? सांवत्सरिक पर्व के दिन सवीसतिराते मासे पुण्णे जति वासखेत्तं लब्भति तो रूक्ख हेठ्ठावि समग्र वर्ष के अपराधों और भूलों का प्रतिक्रमण करना होता है, अतः पज्जोसवेयव्वं तं पुण्णिमाए पञ्चमीए, दसमीए, एवमाहि पव्वेसु
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