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जैन विद्या के आयाम खण्ड-६ पज्जोसमणा (पर्युपशमना)
पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) पज्जोसमणा शब्द की व्युत्पत्ति परि+उपशमन से भी की जाती प्राचीन परम्परा के अनुसार आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा को संवत्सर है। परि अर्थात् पूरी तरह से, उपशमन अर्थात् उपशान्त करना। पर्युषण पूर्ण होने के बाद श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से नववर्ष का प्रारम्भ होता पर्व में कषायों की अथवा राग-द्वेष की वृत्तियों को सम्पूर्ण रूप से है। वर्ष का प्रथम दिन होने से इसे पढमसमोसरण (प्रथम समवसरण) क्षय करने हेतु साधना की जाती है, इसलिए उसे पज्जोसमणा कहा गया है। दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर के (पर्युपशमना) कहा जाता है।
प्रथम समवसरण की रचना और उसकी वाक्धारा का प्रस्फुटन श्रावण
कृष्णा प्रतिपदा को हुआ था। इसी दिन उन्होंने प्रथम उपदेश दिया पज्जोसवणा/परिवसणा (परिवसना)
था, इसलिए इसे प्रथम समवसरण कहा जाता है। वर्तमानकाल में भी कुछ आचार्य पज्जोसवण की व्युत्पत्ति परि+उषण से भी करते चातुर्मास में स्थिर होने के पश्चात् चातुर्मासिक प्रवचनों का प्रारम्भ श्रावण हैं। उषण धातु वस् अर्थ में भी प्रयुक्त होती है- उषणं वसनं। इस कृष्णा प्रतिपदा से ही माना जाता है। अतः इसे पढमसमोसरण कहा प्रकार पज्जोसवण का अर्थ होगा- परिवसना अर्थात् विशेष रूप से गया है। निशीथ में पर्युषण के लिए 'पढमसमोसरण' शब्द का प्रयोग निवास करना। पर्युषण में एक स्थान पर चार मास के लिए मुनिगण हुआ है। उसमें कहा गया है कि जो साधु प्रथम समवसरण अर्थात् स्थित रहते हैं, इसलिए इसे परिवसना कहा जाता है। परिवसना का श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पश्चात् वस्त्र, पात्र आदि की याचना करता आध्यात्मिक अर्थ पूरी तरह आत्मा के निकट रहना भी है। 'परि' अर्थात् है वह दोष का सेवन करता है। सर्व प्रकार से और 'वसना' अर्थात् रहना- इस प्रकार पूरी तरह से आत्मा में निवास करना या रहना परिवसना है, जो कि पर्युषण के परियायठवणा/परियायवस्थणा (पर्याय स्थापना) आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करता है। इस पर्व की साधना में साधक पर्युषण पर्व में साधु-साध्वियों को उनके विगत वर्ष की संयम बहिर्मुखता का परित्याग कर तथा विषय-वासनाओं से मुँह मोड़कर साधना में हुई स्खलनाओं का प्रायश्चित देकर उनकी दीक्षा पर्याय का आत्मसाधना में लीन रहता है।
पुनर्निर्धारण किया जाता है। जैन परम्परा में प्रायश्चित के विविध रूपों
में एक रूप छेद भी है। छेद का अर्थ होता है- दीक्षा पर्याय में पज्जूसण (पर्युषण)
कमी करना। अपराध एवं स्खलनाओं की गुरुता के आधार पर विविध 'परि' उपसर्ग और 'उष्' धातु के योग से भी पर्युषण शब्द की काल की दीक्षा छेद किया जाता है और साधक की श्रमण संघ में व्युत्पत्ति मानी जाती है। उष् धातु दहन अर्थ की भी सूचक है। इस ज्येष्ठता और कनिष्ठता का पुनर्निर्धारण होता है, अत: पर्युषण का व्याख्या की दृष्टि से इसका अर्थ होता है सम्पूर्ण रूप से दग्ध करना एक पर्यायवाची नाम परियायठवणा (पर्याय स्थापना) भी कहा गया अथवा जलना। इस पर्व में साधना एवं तपश्चर्या के द्वारा कर्म रूपी है। साधुओं की दीक्षा पर्याय की गणना भी पर्युषणों के आधार पर मल को अथवा कषाय रूपी मल को दग्ध किया जाता है, इसलिए की जाती है। दीक्षा के बाद जिस साधु को जितने पर्युषण हुए हैं, पज्जसण (पर्युषण) आत्मा के कर्म एवं कषाय रूपी मलों को जला उसको उतने वर्ष का दीक्षित माना जाता है। यद्यपि पर्यायठवणा के कर उसके शुद्ध स्वरूप को प्रकट करने का पर्व है।
इस अर्थ की अपेक्षा उपर्युक्त अर्थ ही अधिक उचित है।
वासावास (वर्षावास)
'पर्युषणाकल्प' में पर्युषण शब्द का प्रयोग वर्षावास के अर्थ में भी हुआ है। वर्षाकाल में साधु-साध्वी एक स्थान पर स्थित रहकर पर्युषण कल्प का पालन करते हुए 'आत्मसाधना' करते हैं, इसलिए इसे वासावास (वर्षावास) भी कहा जाता है।
ठवणा (स्थापना)
चूँकि पर्युषण (चातुर्मास काल) की अवधि में साधक एक स्थान पर स्थित रहता है इसलिए इसे ठवणा (स्थापना) भी कहा जाता है। दूसरे पर्युषण (संवत्सरी) के दिन चातुर्मास की स्थापना होती है, इसलिए भी इसे ठवणा (स्थापना) कहा गया है।
पागइया (प्राकृतिक)
पागइया का संस्कृत रूप प्राकृतिक होता है। प्राकृतिक शब्द स्वाभाविकता का सूचक है। विभाव अवस्था को छोड़कर स्वभाव अवस्था में परिरमण करना ही पर्युषण की साधना का मूल हार्द है। वह विकृति से प्रकृति में आना है, विभाव से स्वभाव में आना है, इसलिए उसे पागइया (प्राकृतिक) कहा गया है। काम, क्रोध आदि विकृतियों (विकारों) का परित्याग कर क्षमा, शान्ति, सरलता आदि स्वाभाविक गुणों में रमण करना ही पर्युषण है।
जेट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह)
अन्य ऋतुओं में साधु-साध्वी एक या दो मास से अधिक एक स्थान पर स्थित नहीं रहते हैं, किन्तु पर्युषण (वर्षाकाल) में चार मास तक एक ही स्थान पर स्थित रहते हैं, इसलिए इसे जेट्ठोवग्ग (ज्येष्ठावग्रह) भी कहा गया है।
अष्टाह्निक पर्व
पर्युषण को अष्टाह्निक पर्व या अष्टाह्निक महोत्सव के नाम से
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