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जैन साधना में प्रणव का स्थान
के आद्य अक्षरों को लेकर व्याकरण के नियमों के अनुसार उनसे ओम् शब्द को निष्पन्न बताया है। 'ओम्' शब्द पञ्च परमेष्ठियों के प्रथम अक्षरों से कैसे निष्पन्न होता है? इस सम्बन्ध में वे बताते हैं कि पञ्च परमेष्ठियों के प्रथम अक्षर अ, अ, आ, उ और म् है। इनमें पहले 'समानः सवर्णे दीर्घौ भवति' इस सूत्र से 'अ अ' मिलकर दीर्घ आ बनाकर परच लोपम्' इससे अक्षर आ का लोप करके अ, अ आ इन तीनों के स्थान में एक आ सिद्ध किया। फिर 'उवर्णे ओ' इस सूत्र से आ उ के स्थान में ओ बनाया। फिर मुनि के म् से सन्धि करने से 'ओम्', यह शब्द सिद्ध होता है।
जैन परम्परा में हिन्दू परम्परा के अनुरूप ही ॐ शब्द को सर्वविद्याओं का आद्यबीज, सकल आगमों का उपनिषद्भूत तत्त्व अर्थात् सारतत्त्व, सभी विघ्नों का विनाशक, सभी संकल्पों की पूर्ति में कल्पद्रुम के समान परम मङ्गलकारी कहा गया है। जैनों की दिगम्बर परम्परा में ॐ को जिनवाणी का प्रतीक माना गया है। पुनः उसे जिनवाणी का पर्याय भी बताया, क्योंकि उनके अनुसार अर्हन्त् भगवान् की वाणी प्रयत्नजन्य न होने के कारण मात्र अन्क्षर ध्वनि रूप होती है। ओंकार शब्द मात्र ध्वनि रूप है और इसीलिए उसमें सर्वभाषारूप में परिणमन करने का सामर्थ्य है। दिगम्बर जैनों का यह विश्वास है कि भगवान् की वाणी दिव्य ध्वनि रूप होती है। जिसे प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भाषा में समझ जाता है। जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में ॐ शब्द को तीनों लोक का वाची माना जाता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में भी ॐ शब्द को त्रिलोक का वाची माना गया है। इसमें 'अ' अक्षर अधोलोक का, 'उ' उर्ध्वलोक का और 'म' मध्यलोक का वाची है। इस प्रकार ॐ को लोक का पर्यायवाची भी मान लिया गया। ज्ञातव्य है कि ॐ शब्द की जो-जो व्याख्याएँ जैन परम्परा में की गई, उनकी समानान्तर व्याख्याएं वैदिक परम्परा में भी मिल रही हैं। अतः निःसंकोच रूप से यह स्वीकार करना होगा कि ओम् शब्द की ये सभी व्याख्याएँ ब्राह्मण परम्परा से प्रभावित हैं और ब्राह्मण परम्परा के कर्मकाण्ड को स्वीकार करने के साथ ही जैन परम्परा में गृहीत हो गयी हैं। प्राचीनकाल में जैन परम्परा में साधना का मूल मन्त्र 'अर्हम्' ही होता था, किन्तु जब से जैन परम्परा में हिन्दु परम्परा के कर्मकाण्ड प्रविष्ट हुए 'ॐ' शब्द जैन साधना का अभिन्न अङ्ग बन गया। लगभग छठी-सातवीं शती के पश्चात् जैन परम्परा में ध्यान, जप और मन्त्र साधना में 'ॐ' शब्द को स्थान प्राप्त हो गया। जैनों में जप और ध्यान साधना में 'ॐ' और 'अर्हम्' का सम्मिलित रूप ॐ अर्हम् प्रयुक्त होने लगा । इस सम्बन्ध में निम्न मन्त्र द्रष्टव्य है
ॐ ह्रीं अर्हं असिआउसाय नमः ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं पार्श्वनाथाय नमः
यह सत्य है कि ओम् और अर्हम् दोनों ही शब्द मूलतः नाद रूप हैं और उनकी विशिष्ट ध्वनि से जो कम्पन उत्पन्न होते हैं वे व्यक्ति और उसके परिवेश को प्रभावित करते हैं। अतः इसमें कोई सन्देह का प्रश्न नहीं है कि इसकी जप साधना से व्यक्ति के व्यक्तित्व और उसके परिवेश में विशिष्ट परिवर्तन न हो। ये परिवर्तन कैसे और किस
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रूप में घटित होते हैं उसकी चर्चा में न जाकर मैं केवल यह बताना चाहता हूँ कि साधना के क्षेत्र में जो ध्वनिरूप इन शब्दों का प्रयोग हुआ, वह एक विशिष्ट स्थान रखता है। जैन परम्परा में ॐ के महत्त्व और उसके साधनागत प्रयोग में जो अभिवृद्धि हुई, उसका मूल कारण तन्त्र परम्परा का जैन साधना पर प्रभाव ही है। वस्तुतः जैसे-जैसे जैन परम्परा तन्त्र को आत्मसात करती गई, उसके साधना विधान में इन बीज मन्त्रों का महत्त्व बढ़ता गया । यह माना जाने लगा कि नमस्कार महामन्त्र के प्रत्येक पद के प्रारम्भ में प्रणव का उच्चारण करना चाहिए। मल्लिषेणसूरि भैरवपद्मावतीकल्प में लिखते है। पञ्चनमस्कारपदैः प्रत्येकं प्रणवपूर्वहोमान्त्यैः । पूर्वोक्तपश्चशून्यैः परमेष्ठिपदाग्रविन्यस्तैः ॥
इसी बात को ह्वेताम्बर चक्रचूड़ामणि श्री यशोभद्रोपध्याय के शिष्य श्रीचन्द्रसूरि विरचित अद्भुतपद्मावतीकल्प में भी कहा गया है४होमान्ताः प्रणवनमोमुख्याः पञ्चपरमेष्ठिमध्यगताः । ह्रीं ह्रीं हूँ हो हः शरबीजा: श्रान्त्यादिदेशपदाः ॥
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में 'प्रणव' का प्रयोग आध्यात्मिक साधना की अपेक्षा तान्त्रिक साधना में ही अधिक देखा जाता है। भैरवपद्मावतीकल्प के वशीकरणयन्त्राधिकार के निम्न दो श्लोक इसका स्पष्ट प्रमाण है।
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भ्रमयुगलं केशि भ्रम माते भ्रम विभ्रमं च मुह्यपदम् । मोहय पूर्णैः स्वाहा मन्त्रोऽयं प्रणवपूर्वगतः ।।
अथवा
प्रणवं विच्चे मोहे स्वाहान्तं सप्तलक्षणजाप्येन । एकाकिनी निशायां सिद्धयाति सा याक्षिणी रण्डा । । इसी प्रकार भैरवपद्मावतीकल्प के निम्न श्लोक भी द्रष्टव्य हैप्रणवाद्रिपञ्चशून्यैरभिमन्त्रण कुमारिकाकुचस्थाने। अशितुं तयोश्च दधाद् घृतेण सम्मिश्रितान् पूपान् ।। प्रणवः पिङ्गलयुगलं पण्णत्तिद्वितयं महाविधेयम् । टान्तदयं च होमो दर्पणमन्त्रो जिनोद्दिष्टः । ।
ये उल्लेख इस तथ्य के प्रमाण हैं कि वैदिक परम्परा के कर्मकाण्ड और तन्त्र साधना को जब जैन आचायों ने किंचित् परिष्कार एवं परिवर्तन के साथ अपनी परम्परा में गृहीत किया तो अनेक वैदिक देवी-देवताओं के साथ-साथ 'प्रणव' का ग्रहण भी मन्त्र के रूप में, जैन परम्परा में हुआ मात्र यही नहीं, इन मन्त्रों को 'जिनोद्दिष्टः' अर्थात् जिनप्रणीत भी कहा गया। इन्हें जिनप्रणीत कहने का तात्पर्य यही था कि इन पर सामान्य जैन की पूर्ण आस्था बनी रहे, क्योंकि मन्त्रों की अपेक्षा उनके प्रति साधक की आस्था ही वस्तुतः फलवती होती है।
जैन परम्परा में तांत्रिक साधना के साथ-साथ आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में और विशेष रूप से ध्यान साधना के क्षेत्र में भी ॐ (प्रणव) को स्थान प्राप्त हुआ है।
जहाँ तक मेरी जानकारी है सर्वप्रथम आचार्य शुभचन्द्र (१०वीं शती) ने ज्ञाणार्णव में पदस्थ ध्यान की चर्चा करते हुए ॐ को जैन परम्परा के ध्यान के क्षेत्र में भी स्थान दिया । आचार्य शुभचन्द्र
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